काम, क्रोध, मद, लोभ, सब,नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि,भजहुँ भजहिं जेहि संत।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Ramcharitmanas
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  इसका शाब्दिक अर्थ एकदम स्पष्ट है। वह ये कि काम क्रोध मद मतलब अहंकार और लोभ अर्थात लालच ये सब नरक के रास्ते हैं। इसलिए रावण तू इन सबका बहिष्कार कर सिर्फ राम का भजन कर, जिसका कि संत लोग भजन करते हैं।

  ईश्वर प्रेम का सागर है और प्रेम के सागर के निकट होते हुए भी प्यासे रहो तो इससे बड़ा दुर्भाग् य क्या होगा। काम, क्रोध और लोभ यह नर्क के मार्ग हैं। इन पर ईश्वर भक्ति से ही विजय प्राप्त की जा सकती है। ईश्वर ऐश्वर्य सौंदर्य और माधुर्य का रूप है। यह सभी गुण अपने भगवान श्रीराम में विद्यमान हैं। तभी तो उन्होंने मिथिला को सौंदर्य से किष्किंधा को शील से और लंका को बल से जीत लिया।

  यहाँ काम क्रोध मद लोभ आदि कारकों से विभीषण हमेशा के लिए रावण को मुक्त होने के लिए नहीं कहता है। क्योंकि वह जानता है कि सफल राजनीतिक जीवन के लिये काम क्रोध मद लोभ इत्यादि स्वाभाविक तत्वों का होना आवश्यक है। काम संतानोत्पत्ति, क्रोध दुश्मनों के दमन, मद याने स्वाभिमान स्वत्व की वृद्धि, लोभ व्यवसाय वृद्धि में महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा करता है। इसलिए वह इन तत्वों को नरक नहीं कहता बल्कि नरक के पंथ कहता है।

  भगवान श्री कृष्ण ने गीता में काम, क्रोध और लोभ को  विनाशकारी नरक के द्वार की संज्ञा दी है। अतः इन तीनों को त्यागना ही उचित है। 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

  गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के अरण्य काण्ड एक स्थान पर कहा है कि काम, क्रोध और लोभ तीनों दुष्ट उत्पात मचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए इनसे मुक्ति तभी मिल सकती है, जब हम सब प्रकार की वासनाओं से रहित हो जायँ ।

तात तीनि अति प्रवल खल काम क्रोध अरु लोभ।

मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुं छोभ।।

   कलियुग में ‌लोभ ने एक महामारी का रूप ले लिया है, जिससे भृष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। आज विश्व में भ्रष्टाचार ने जो बिकराल रूप धारण कर रखा है, वह सब लोभ के कारण ही है। जब कि हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उनका पेट भर जाय। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दंड मिलना चाहिए 

यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।

आधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।

  लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी नहीं होती। लोभ की स्थिति तो यह है कि जैसे लकड़ी अपने ही भीतर से प्रकट हुई आग के द्वारा जलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार जिसका मन वश में नहीं हुआ, वह पुरुष अपने साथ ही पैदा हुई लोभवृत्ति के कारण नाश को प्राप्त हो जाता है।

यथैध: स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।

तथा कृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति।।

  इसके लिए आवश्यक है कि हमें जितना प्रभु से मिला है, उसमें संतोष करें। जितना मिला है, उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करें और जो नहीं मिला है, उसके लिए कभी आहत न हों, कभी शिकायत न करें। जो इस भावदशा में जीता है, वही वास्तविक धनवान है।

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