Swami Paramhans ji maharaj |
भीतर से आप क्या है, यही सबसे अधिक मूल्यवान और महत्वपूर्ण है.....
एक फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि जब पहली दफा एस्किमो ध्रुवीय देशों में गया, तो उसे उनके बारे में कुछ पता नहीं था। वह सोचता था कि एस्किमो बहुत गरीब है। यहां के लोगों की आदत का उसे कुछ पता नहीं था, कि यहां रिवाज क्या है, यहां का हिसाब क्या है ?
उस फ्रेंच लेखक ने लिखा है कि मैने उनसे ज्यादा समृद्ध लोग नहीं देखे।
इसका पता उसे कैसे चला ?
किसी एस्किमो से उसने कह दिया कि तुम्हारे जूते तो बहुत खूबसूरत है ! उसने तत्काल जूते उसे भेंट कर दिये। उसके पास दूसरी जोड़ी नहीं है। बर्फीली जगह है, नंगे पैर चलना जीवन को जोखम में डालना है, लेकिन यह सवाल नहीं है।
दों-चार दिन बाद उसे बड़ी हैरानी हुई कि वह जिससे भी कुछ कह दे, कि यह चीज बड़ी अच्छी है, वह तत्काल उसे भेंट कर देता है। तब उसे पता चला कि एस्किमो मानते हैं कि जो चीज किसी को पसंद आ गयी, वह उसकी हो गयी।
उसने पूछा कि इसके मानने का कारण क्या है ?
तो जिस वृद्ध से उसने पूछा, उस वृद्ध ने कहां, इसके तीन कारण हैं !
एक तो चीजें किसी की नहीं है, वह बस चीजें है।
दूसरा इसके मानने का कारण है कि जिसके पास है, उसके लिए तो अब व्यर्थ हो गयी है। जिसके पास नहीं है, वहसम्मोहित हो रहा है। अगर उसे न मिले तो उसका सम्मोहन लंबा हो जायेगा, इसलये उसे तत्काल दे देनी जरूरी है, ताकि उसका सम्मोहन टूट जाये।
और तीसरा कारण यह है कि जिस चीज के हम मालिक है, उसकी मालकियत का मौका ही तभी आता है, जब हम किसी को देते हैं। नहीं तो कोई मौका नहीं आता।
चीजों का होना, आपको गृहस्थ नहीं बनाता; चीजों को पकडना, उनके प्रति आशक्ति का भाव, क्लिगिंग आपको गृहस्थ बनाता है।
ये एस्किमो एक प्रकार से संन्यासी है, साधु है।
जिसे हम साधु कहते हैं, अगर उसके भीतर भी हम झांकें तो वहां संग्रह मौजूद रहता है, बना रहता है। तो फिर वह गृहस्थ है।
बाहर से आप क्या है, यह बहुत मूल्य की बात नहीं है। भीतर से आप क्या है, यही मूल्य का है, यही महत्वपूर्ण है।
लेकिन भीतर से आप क्या है, यह आपके अतिरिक्त कौन जानेगा ? कैसे जानेगा ?
इसलिए सदा अपने भीतर पर भी एक आंख रखनी चाहिए निरीक्षण की, कि मैं भीतर से क्या हूं।
क्या मैं चीज को पकड़ता हूं ? कहीं मेरे मन में भी यह भाव तो जड़ जमाये नहीं बैठे हैं, कि चीज बहुत मूल्यवान है ? चीज न होगी तो मैं मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा।
अगर मैं चीजों का एक जोड़ हूं, तो मैं गृहस्थ हूं।
फिर भाग कर जंगल में जाने से कुछ भी न होगा। फिर इस गृहस्थ होने की भीतरी व्यवस्था को तोड़ना पड़ेगा।
संन्यासी होना एक आंतरिक क्रांति है। यह भीतर घटित हो जाये, तो फिर बाहर वस्तुएं हों या न हों, यह बात गौण हो जाती है।
यह भाव अगर आपके अन्तर्मन में घटित हो जाय तो आप इस संसार में रहते हुए भी संन्यासी हैं। यह इस बात का प्रतीक है, कि अब आपके कदम प्रभु के द्वार की ओर बढ़ने लगे हैं।
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