भगवान श्रीकृष्ण के बारे में कुछ रोचक जानकारियाँ

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Krishna
Krishna Bhagwan


  ३११२ ईसा पूर्व हुए भगवान श्रीकृष्ण एक राजनीतिक, आध्यात्मिक और योद्धा ही नहीं थे बल्कि वे हर तरह की विद्याओं में पारंगत थे। भगवान श्रीकृष्ण से धर्म का एक नया रूप और संघ शुरू होता है। श्रीकृष्ण ने धर्म, राजनीति, समाज और नीति-नियमों का व्यवस्थीकरण किया था।

   जनश्रुति अनुसार कुछ लोग श्रीकृष्ण की त्वचा का रंग काला और ज्यादातर लोग श्याम रंग का मानते हैं। श्याम रंग अर्थात कुछ-कुछ काला और कुछ-कुछ नीला। मतलब काले जैसा नीला। जैसा सूर्यास्त के बाद जब दिन अस्त होने वाला रहता है तो आसमान का रंग काले जैसा नीला हो जाता है। 

  कुछ के मतानुसार उनका रंग न तो काला और न ही नीला था। यह भी कि उनका रंग काला मिश्रित ‍नीला भी नहीं था। उनकी त्वचा का रंग श्याम रंग भी नहीं था। दरअसल उनकी त्वचा का रंग मेघ श्यामल था। अर्थात काला, नीला और सफेद मिश्रित रंग।

  प्रचलित मान्यताओं के अनुसार माना जाता है कि उनके शरीर से मादक गंध निकलती रहती थी। इस गंध को वे अपने गुप्त अभियानों में छुपाने का उपक्रम करते थे। यही खूबी द्रौपदी में भी थी।

  द्रौपदी के शरीर से भी सुगंध निकलती रहती थी जो लोगों को आकर्षित करती थी। सभी इस सुगंध की दिशा में देखने लगते थे। इसीलिए अज्ञातवास के समय द्रौपदी ने चंदन, उबटन और इत्रादि का कार्य किया जिसके चलते उनको सैरंध्री कहा जाने लगा था।

  माना जाता है कि श्रीकृष्‍ण के शरीर से निकलने वाली गंध गोपिकाचंदन और कुछ-कुछ रातरानी की सुगंध से मिलती जुलती थी।

   कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण की देह कोमल अर्थात लड़कियों के समान मृदु थी लेकिन युद्ध के समय उनकी देह विस्तृत और कठोर हो जाती थी। माना जाता है कि ऐसा इसलिए हो जाता था क्योंकि वे योग और कलारिपट्टू विद्या में पारंगत थे।

  इसका मतलब यह कि श्रीकृष्ण अपनी देह को किसी भी प्रकार का बनाना जानते थे। इसीलिए स्त्रियों के समान दिखने वाला उनका कोमल शरीर युद्ध के समय अत्यंत ही कठोर दिखाई देने लगता था। यही गुण कर्ण और द्रौपदी के शरीर में भी था।

  भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। द्वारिका को उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया और सोमनाथ के पास स्थित प्रभास क्षेत्र में उन्होंने देह छोड़ दी। दरअसल भगवान कृष्ण इसी प्रभास क्षेत्र में अपने कुल का नाश देखकर बहुत व्यथित हो गए थे। वे तभी से वहीं रहने लगे थे। 

  एक दिन वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे तभी किसी बहेलिये ने उनको हिरण समझकर तीर मार दिया। यह तीर उनके पैरों में जाकर लगा और तभी उन्होंने देह त्यागने का निर्णय ले लिया। एक दिन वे इसी प्रभाव क्षेत्र के वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी 'जरा' नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी।

  भगवान श्रीकृष्ण ने जब देहत्याग किया तब उनकी देह के केश न तो श्वेत थे और ना ही उनके शरीर पर किसी प्रकार से झुर्रियां पड़ी थी। अर्थात वे ११९ वर्ष की उम्र में भी युवा जैसे ही थे।

  भगवान कृष्ण ने गुजरात के समुद्री तट पर अपने पूर्वजों की भूमि पर एक भव्य नगर का निर्माण किया था। कुछ विद्वान कहते हैं कि उन्होंने पहले से उजाड़ पड़ी कुशस्थली को फिर से निर्मित करवाया था। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में ६ महीने से ज्यादा नहीं रहे।

  जो भी हो श्रीकृष्ण की इस नगरी को विश्‍वकर्मा और मयदानव ने मिलकर बनाया था। विश्वकर्मा देवताओं के और मयदानव असुरों के इंजीनियर थे। दोनों ही राम के काल में भी थे। इतिहासकार मानते हैं कि द्वारिका जल में डूबने से पहले नष्ट की गई थी। किसने नष्ट किया होगा द्वारिका को? यह सवाल अभी भी बना हुआ है। हालांकि समुद्र के भीतर द्वारिका के अवशेष ढूंढ लिए गए हैं। वहां उस समय के जो बर्तन मिले हैं वो १५२८ ईसा पूर्व से ३००० ईसा पूर्व के बताए जाते हैं।

  भारतीय मतानुसार भगवान श्रीकृष्‍ण ने ही मार्शल आर्ट का अविष्कार किया था। दरअसल पहले इसे कालारिपयट्टू कहा जाता था। इस विद्या के माध्यम से ही उन्होंने चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया था तब उनकी उम्र १६ वर्ष की थी। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया था। 

  श्रीकृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास उसी का एक नृत्य रूप है। कालारिपयट्टू विद्या का प्रथम आचार्य श्रीकृष्ण को ही माना जाता है। हालांकि इसके बाद इस विद्या को अगस्त्य मुनि ने प्रचारित किया था।

  इस विद्या के कारण ही 'नारायणी सेना' भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी। श्रीकृष्ण ने ही कलारिपट्टू की नींव रखी, जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई। बोधिधर्मन के कारण ही यह विद्या चीन, जापान आदि बौद्ध राष्ट्रों में खूब फली-फूली। आज भी यह विद्या केरल और कर्नाटक में प्रचलित है।

  श्रीकृष्ण ने इस विद्या को अपनी 'नारायणी सेना' को सिखा रखा था। डांडिया रास इसी का एक रूप है। मार्शल आर्ट के कारण उस काल में 'नारायणी सेना' को भारत की सबसे भयंकर प्रहारक माना जाता था।

  श्रीकृष्ण के पास यूं तो कई प्रकार के दिव्यास्त्र थे। लेकिन सुदर्शन चक्र मिलने के बाद सभी ओर उनकी साख बढ़ गई थी। 

  शिवाजी सावंत की किताब 'युगांधर अनुसार' श्रीकृष्ण को भगवान परशुराम ने सुदर्शन चक्र प्रदान किया था, तो दूसरी ओर वे पाशुपतास्त्र चलाना भी जानते थे। पाशुपतास्त्र शिव के बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास ही था। इसके अलावा उनके पास प्रस्वपास्त्र भी था, जो शिव, वसुगण, भीष्म के पास ही था।

  प्रचलित मान्यता अनुसार कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय प्रयोग किये गए 'माहेश्वर ज्वर' के विरुद्ध 'वैष्णव ज्वर' का प्रयोग कर विश्व का प्रथम 'जीवाणु युद्ध' लड़ा था। हालांकि यह शोध का विषय हो सकता है।

   कृष्ण से प्रद्युम्न का और प्रद्युम्न से अनिरुद्ध का जन्म हुआ। प्रद्युम्न के पुत्र तथा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की पत्नी के रूप में उषा की ख्याति है। अनिरुद्ध की पत्नी उषा शोणितपुर के राजा वाणासुर की कन्या थी। अनिरुद्ध और उषा आपस में प्रेम करते थे। उषा ने अनिरुद्ध का हरण कर लिया था। वाणासुर को अनिरुद्ध-उषा का प्रेम पसंद नहीं था। उसने अनिरुद्ध को बंधक बना लिया था। वाणासुर को शिव का वरदान प्राप्त था। भगवान शिव को इसके कारण श्रीकृष्ण से युद्ध करना पड़ा था। अंत में देवताओं के समझाने के बाद यह युद्ध रुका था।

  भगवान श्रीकृष्ण ६४ कलाओं में दक्ष थे। एक ओर वे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे तो दूसरी ओर वे द्वंद्व युद्ध में भी माहिर थे। इसके अलावा उनके पास कई अस्त्र और शस्त्र थे। उनके धनुष का नाम 'सारंग' था। उनके खड्ग का नाम 'नंदक', गदा का नाम 'कौमौदकी' और शंख का नाम 'पांचजञ्य' था, जो गुलाबी रंग का था। श्रीकृष्ण के पास जो रथ था उसका नाम 'जैत्र' दूसरे का नाम 'गरुढ़ध्वज' था। उनके सारथी का नाम दारुक था और उनके अश्वों का नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक था।

  कृष्ण के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि उनकी १६ हजार पटरानियां थी। लेकिन यह तथ्‍य गलत है। उनकी मात्र ८ पत्नियां थीं।

  कृष्ण की जिन १६ हजार पटरानियों के बारे में कहा जाता है, दरअसल वे सभी भौमासुर जिसे नरकासुर भी कहते हैं उसके यहां बंधक बनाई गई महिलाएं थीं जिनको श्रीकृष्‍ण मुक्त कराया था। ये महिलाएं किसी की मां थी, किसी की बहिन तो किसी की पत्नियां थी जिनको भौमासुर अपहरण करके ले गया था।

  दरअसल, ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद और जनश्रुतियों में इसका जिक्र है कि राधा, ललिता आदि उनकी प्रेमिकाएं थीं। राधा की कुछ सखियां भी कृष्ण से प्रेम करती थीं जिनके नाम निम्न हैं- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रग्डदेवी और सुदेवी। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण अनुसार कृष्ण की कुछ ही प्रेमिकाएं थीं जिनके नाम इस तरह हैं- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा। माना जाता है कि ललिता नाम की प्रेमिका को मोक्ष नहीं मिल पाया था, तो बाद में उसने मीरा के नाम से जन्म लिया।

  श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का जिक्र महाभारत में कहीं भी नहीं मिलता है। इसके अलावा सबसे पुराने हरिवंश और विष्णु पुराण में भी राधा का जिक्र नहीं मिलता। भागवत पुराण में भी राधा का जिक्र नहीं है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के बारे में कहा जाता है कि संभवत: यह चाणक्य या गुप्तकाल में लिखा गया था।

  श्रीकृष्ण ने अपने गुरु संदिपनि को जब गुरुदक्षिणा मांगने के लिए कहा, तब गुरु ने कहा कि मेरे पुत्र को एक असुर उठा ले गया है आप उसे वापस ले आएं तो बड़ी कृपा होगी। श्रीकृष्ण ने गुरु के पुत्र को कई जगह ढूंढ और अंत में वे समुद्र के किनारे चले गए जहां से उन्हें पता चला कि असुर उसे समुद्र में ले गया है तो श्रीकृष्ण भी वहीं पहुंच गये। बाद में पता चला कि उसे तो यमराज ले गए हैं तब श्रीकृष्ण ने यमराज से गुरु के पुत्र को हासिल कर लिया और गुरु दक्षिणा पूर्ण की।

  ऐसे कई उदाहरण हैं जब भगवान कृष्ण ने लोगों को फिर से जीवित कर दिया। भीम पुत्र घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की गर्दन कटी होने के बावजूद श्रीकृष्ण ने उसे महाभारत युद्ध की समाप्ति तक जीवित रखा।

  हिन्दू धर्म के बेहद पवित्र स्थल और चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की धरती को भगवान विष्णु का स्थल माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है।

  स्थानीय मान्यताओं अनुसार कहते हैं कि इस मूर्ति के भीतर भगवान कृष्ण के दिल का एक पिंड रखा हुआ है जिसमें ब्रह्मा विराजमान हैं। पौराणिक मतानुसार जब श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा। ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया।

  राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला तो उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर १२ वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है, लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है। हालांकि यह शोध का विषय हो सकता है।

  महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए शाप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा।

  शाप के चलते श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर यदुवंशियों को लेकर प्रभास क्षेत्र में आ गए। कुछ दिनों बाद महाभारत-युद्ध की चर्चा करते हुए सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। सात्यकि ने गुस्से में आकर कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे उनमें आपसी युद्ध भड़क उठा और वे समूहों में विभाजित होकर एक-दूसरे का संहार करने लगे। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत सभी यदुवंशी मारे गए थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे रह गए थे। यदुवंश के नाश के बाद कृष्ण के ज्येष्ठ भाई बलराम समुद्र तट पर बैठ गए और एकाग्रचित्त होकर परमात्मा में लीन हो गए। इस प्रकार शेषनाग के अवतार बलरामजी ने देह त्यागी और स्वधाम लौट गए।

  बलरामजी के देह त्यागने के बाद जब एक दिन श्रीकृष्ण पीपल के नीचे ध्यान की मुद्रा में लैटे थे, तब उस क्षेत्र में एक जरा नाम का बहेलिया आया हुआ था। जरा एक शिकारी था और वह हिरण का शिकार करना चाहता था। जरा को दूर से हिरण के मुख के समान श्रीकृष्ण का तलवा दिखाई दिया। बहेलिए ने बिना कोई विचार किए वहीं से एक तीर छोड़ दिया जो कि श्रीकृष्ण के तलवे में जाकर लगा। जब वह पास गया तो उसने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में उसने तीर मार दिया है। इसके बाद उसे बहुत पश्चाताप हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। तब श्रीकृष्ण ने बहेलिए से कहा कि जरा, तू डर मत, तूने मेरे मन का काम किया है। अब तू मेरी आज्ञा से स्वर्गलोक प्राप्त करेगा।

  बहेलिए के जाने के बाद वहां श्रीकृष्ण का सारथी दारुक पहुंच गया। दारुक को देखकर श्रीकृष्ण ने कहा कि वह द्वारिका जाकर सभी को यह बताए कि पूरा यदुवंश नष्ट हो चुका है और बलराम के साथ कृष्ण भी स्वधाम लौट चुके हैं। अत: सभी लोग द्वारिका छोड़ दो, क्योंकि यह नगरी अब जल मग्न होने वाली है। मेरी माता, पिता और सभी प्रियजन इंद्रप्रस्थ को चले जाएं। यह संदेश लेकर दारुक वहां से चला गया। इसके बाद उस क्षेत्र में सभी देवता और स्वर्ग की अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि आए और उन्होंने श्रीकृष्ण की आराधना की। आराधना के बाद श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिए और वे सशरीर ही अपने धाम को लौट गए।

  श्रीमद्भागवत के अनुसार जब श्रीकृष्ण और बलराम के स्वधाम गमन की सूचना इनके प्रियजनों तक पहुंची तो उन्होंने भी इस दुख से प्राण त्याग दिए। देवकी, रोहिणी, वसुदेव, बलरामजी की पत्नियां, श्रीकृष्ण की पटरानियां आदि सभी ने शरीर त्याग दिए। इसके बाद अर्जुन ने यदुवंश के निमित्त पिण्डदान और श्राद्ध आदि संस्कार किए।

  महाभारत और पुराणों अनुसार इन संस्कारों के बाद यदुवंश के बचे हुए लोगों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद श्रीकृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर शेष द्वारिका समुद्र में डूब गई। यदि यदुवंश के लोग बच गए थे तो क्या उनका वंश नष्ट नहीं हुआ था? श्रीकृष्ण के स्वधाम लौटने की सूचना पाकर सभी पाण्डवों ने भी हिमालय की ओर यात्रा प्रारंभ कर दी थी। इसी यात्रा में ही एक-एक करके पांडव भी शरीर का त्याग करते गए। अंत में युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे।

  पौराणिक मान्यताओं अनुसार प्रभु ने त्रेता में राम के रूप में अवतार लेकर बाली को छुपकर तीर मारा था। कृष्णावतार के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी।

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