समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Ramcharitmanas
Ramcharitmanas

  देखने और समझने में नाम और नामी‒दोनों एक-से हैं; परंतु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है अर्थात् नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलता है । भगवान् अपने नामका अनुगमन करते हैं अर्थात् नाम लेते ही वहाँ जाते हैं ।

  नाम और नामी‒दो चीज हैं । दीखने में दोनों बराबर दीखते हैं । जैसे मनुष्यों में उनके नाम और खुद नामी में परस्पर प्रीति रहती है, ऐसे ‘राम’‒यह हुआ नाम और भगवान् रघुनाथजी महाराज हो गये नामी । नाम लेने से श्रीरघुनाथजी महाराज का बोध होता है । दोनों में भेद न होने पर भी एक फर्क है । 

वह क्या है ?

 ‘प्रभु अनुगामी’‒नाम महाराज के पीछे-पीछे राम महाराज चलते हैं । दोनों एक होने पर भी भगवान्‌ का नाम भगवान्‌ से आगे चलता है ।

भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि —

ऋणमेतत् प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति।

यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम्॥

'द्रुपदकुमारी कृष्णा ने कौरव सभा में वस्त्र खींचे जाते समय जो मुझ दूरवासी (द्वारका निवासी) श्रीकृष्ण को 'गोविन्द' कहकर पुकारा था, उसका यह ऋण मुझ पर बहुत बढ़ गया है। यह हृदयसे कभी दूर नहीं होता।'

 रघुनाथजी महाराज अपने नाम के पीछे चलते हैं । 

यह कैसे ? 

भगवान का नाम लेने से वहाँ भगवान् आ जाते हैं, और भगवान्‌ को आना ही पड़ता है, पर जहाँ भगवान् जायँ, वहाँ उनका नाम आ जाय‒यह कोई नियम नहीं है । नाम के बिना भगवान्‌ को जान नहीं सकते । इसलिये नाम आँख मीचकर लेते जाओ । वहाँ रघुनाथजी महाराज आ जायेंगे । प्रेम से पुकार की जाय तो भगवान् उसके आचरणों की ओर देखते ही नहीं और बिना बुलाये ही आ जाते हैं ।

भगवान शिव जी देबी पार्वती जी से कहते हैं कि —

राम' यह दो अक्षर मन्त्र जपने पर समस्त पापों का नाश करता है। चलते, खड़े हुए अथवा सोते (जिस किसी भी समय) जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहाँ कृत कार्य होकर जाता है और अन्त में भगवान हरि का पार्षद बनता है 'राम' यह दो अक्षर का मन्त्र शत कोटि मन्त्रों से भी अधिक महत्त्व रखता है। राम नाम से बढ़कर जगत् में जप करने योग्य कुछ भी नहीं है। जिन्होंने राम नाम का आश्रय लिया है, उनको यमयातना नहीं भोगनी पड़ती। जो मनुष्य अन्तरात्मस्वरूप से राम नाम का उच्चारण करता है, वह स्थावर-जंगम सभी भूत प्राणियों में रमण करता है। 'राम' यह मन्त्रराज है, यह भय तथा व्याधि का विनाश करने वाला है। 'रामचन्द्र', 'राम', 'राम'-इस प्रकार उच्चारण करने पर यह दो अक्षर का मन्त्रराज पृथ्वी के समस्त कार्यों को सफल करता है। गुणों की खान इस राम नाम का देवता लोग भी भलीभाँति गान करते हैं। हे देवेश्वरि! अतएव तुम भी सदा राम नाम का उच्चारण किया करो। राम नाम का जप करता है, वह सारे पापों (पूर्वकृत एवं वर्तमान कृत सूक्ष्म और स्थूल पापों से और समस्त पाप वासनाओं से सदा के लिये) छूट जाता है।’

विष्णोरेकैकनामापि सर्ववेदाधिकं मतम्।

तादृङ्नामसहस्त्रेण रामनाम समं स्मृतम् ।।

‘भगवान विष्णु का एक-एक नाम भी सम्पूर्ण वेदों से अधिक माहात्म्य शाली माना गया है। ऐसे एक सहस्र नाम के तुल्य राम नाम कहा गया है।'

कालोऽस्ति दाने यज्ञे च स्नाने कालोऽस्ति मज्जने।

विष्णुसंकीर्तने कालो नास्त्यत्र पृथिवीतले॥

'दान और यज्ञ के लिये काल का नियम है, स्नान और मज्जन (नदी, सरोवर आदि में गोता लगाने) -के लिये भी समय का नियम है, 

परंतु इस भूतल पर भगवान् विष्णु का कीर्तन करने के लिये कोई काल निश्चित नहीं है। उसे हर समय किया जा सकता है।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । 

भए नाम जपि जीव बिसोका ॥

 केवल कलियुग की ही बात नहीं है, चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं । भगवान् के नाम की महिमा चारों युगों में है।

लेकिन हमारे धर्म ग्रंथों में आता है कि —

पूर्ण शुद्धो नित्य मुक्तो

अभिन्न त्वान्नाम नामिनोह।

 हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं। हरि तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है।

नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति-

स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।

एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि 

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥

 हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी भी समय स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है।

अर्थात् भगवान और उनके नाम में कोई अंतर नहीं है। क्योंकि उन्होंने अपनी समस्त शक्ति अपने नाम में रख दी है। जिसका किसी भी समय स्मरण किया जा सकता है। सूतजी भगवान के भजन एवं नाम कीर्तन की महिमा पर पद्म पुराण में बताते हैं कि —

स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः ।

आत्मनोऽभ्यधिकां शक्तिं स्थापयामास सुव्रताः ॥

 जगदगुरु भगवान नारायण ने स्वयं ही अपने नाम में अपने से भी अधिक शक्ति स्थापति कर दी है।

ऐसे भगवान्‌ के नाम को छोड़कर धन के पीछे आप लोग पड़े हैं । भोगों के, मान-बड़ाई के और आराम के पीछे पड़े हैं । न ये चीजें रहने वाली हैं, न आराम और भोग रहने वाले हैं, न मान-बड़ाई रहने वाली है, न वैभव रहने वाला है । ये सब जाने वाले हैं और आप रहने वाले हो । फिर भी जाने वाले के गुलाम बन गये । बड़े दुःख की बात है, पर करें क्या ?

 भीतर में यह बात जँची हुई है कि इनसे ही हमारी इज्जत है । इनसे आपकी खुद की बेइज्जती है, पर इधर दृष्टि ही नहीं जाती । मनुष्य यह खयाल ही नहीं करता कि इसमें इज्जत किसकी है ! सब लोग ‘वाह-वाह’ करें‒इसमें आप अपनी इज्जत मानते हैं और कोई आदर नहीं करे, उसमें आप अपनी बेइज्जती मानते हैं, यह अपनी खुद की इज्जत नहीं है । 

पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं। 

 पराधीन व्यक्ति कभी भी सुख को अनुभव नहीं कर सकता है। सुख पराधीन और परावलंबी लोगों के लिए नहीं बना है। पराधीन एक तरह का अभिशाप होता है। मनुष्य तो बहुत ही दूर है पशु-पक्षी भी पराधीनता में छटपटाने लगते हैं। आप पराधीन होने को इज्जत मानते हो ।

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