मां काली सामने थीं, फिर भी कुछ मांग नहीं पाए

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Mata Kali, Ramakrishna Paramhans & Vivekanand
Mata Kali, Ramakrishna Paramhans & Vivekanand

  बात उन दिनों की है, जब विवेकानंद नरेंद्र थे और उनकी माली हालत खासी पतली थी। जो खानदानी घर था, वह मुकदमे में आधे से अधिक जाता रहा था। नौकरी कहीं मिल नहीं रही थी। घर में कभी-कभार फाके के हालात आ जाते। यार दोस्त उनको कभी-कभार कहीं ले जाते और गाना गाने को कहते। नरेंद्र खाली पेट सबके लिए गाना गाते। हालांकि उनके एक दोस्त को उनका हाल पता चल गया, तो वह चुपके से उनके घर जाकर उनकी मां की मदद करता। इसी बीच एक बेहद अमीर औरत ने नरेंद्र के पास यह प्रपोजल भेजा कि वह उसके साथ रहें, और हरेक इच्छा पूरी करें, जिसके बदले में वह उनको काफी धन देगी। नरेंद्र ने बहुत ही कठोरता से यह प्रपोजल ठुकरा दिया।

  कठिनाइयों भरे ये दिन नरेंद्र के आध्यात्मिक विकास में खासा महत्व रखते हैं। उन्होंने ख़ुद लिखा भी है, 'इन सब विपत्तियों के रहते हुए भी मेरा विश्वास ना तो ईश्वर की सत्ता से और ना ही देवी कृपा से उठा। हर सुबह मैं उनका नाम लेकर उठता और नौकरी की तलाश में निकल जाता।'

  एक दिन नरेंद्र की मां ने यह सब देखकर उनसे कहा, 'तुम वाकई मूर्ख हो। बचपन से ही तुम भगवान-भगवान की रट लगाए हो। क्या किया भगवान ने तुम्हारे लिए?'

  मां का यह कहना था कि नरेंद्र के दिमाग़ में जैसे सैकड़ों घंटियां बज उठीं। दिमाग़ में शक घर कर गया, 'क्या ईश्वर वाकई है? है तो मुझे सुनता क्यों नहीं? कुछ बोलता क्यों नहीं? है तो इतना क्लेश क्यों है?'

  ईश्वर चंद्र विद्यासागर की यह बात भी उनके दिमाग़ में घूमती कि अगर ईश्वर दयालु और गौरवपूर्ण है, तो अकाल के समय दो-दो कौर बगैर करोड़ों लोग मरते क्यों हैं? नरेंद्र ईश्वर से नाराज़ हो उठे थे। छुपाने की आदत उनकी कभी थी ही नहीं, तो ईश्वर से यह नाराज़गी भी वह छुपा नहीं पाए।

  नरेंद्र के विचार बदल गए हैं। उसके दिल में शक घर कर गया है, वह भी ईश्वर के लिए। बहुत जल्द यह ख़बर कलकत्ता भर में आग की तरह फैल गई। लोगों को लगने लगा कि अब तो नरेंद्र शराब भी पीने लगेंगे और मांस भी खाने लगेंगे। ख़बर दक्षिणेश्वर काली मंदिर भी पहुंची। रामकृष्ण परमहंस ने भी यह सब सुना, लेकिन यकीन करने से मना कर दिया। उनके शिष्य नरेंद्र से मिलने गए। नरेंद्र ने उनको समझाया कि सिर्फ एक नर्क के डर से ईश्वर में यकीन लाना कायरता है, बहुत बड़ी बुजदिली है। नतीजतन रामकृष्ण परमहंस के शिष्यों ने इस भरोसे के साथ नरेंद्र से विदा ली कि अब तो यह लड़का भटक गया।

  लेकिन, नरेंद्र जानते थे कि रामकृष्ण उनको ज़रूर समझेंगे। शिष्यगण दक्षिणेश्वर पहुंचे और पूरी तफसील रामकृष्ण परमहंस को दी। रामकृष्ण ने सब कुछ सुना और कुछ भी नहीं सुना। उनके भाव एक से बने रहे। जब रामकृष्ण के एक प्रिय शिष्य भवनाथ ने आंखों में आंसू भरकर यह कहा कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि नरेंद्र इतना नीचे गिर जाएंगे, तो रामकृष्ण परमहंस से नहीं रहा गया। बड़े ही गुस्से में वह बोले, 'चुप रह मूर्ख! मां ने मुझसे कहा है कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। अगर तूने फिर मुझसे ऐसी बात की, तो जीवन में कभी तेरी शक्ल नहीं देखूंगा।' दरअसल नरेंद्र को भगवान शिव का अवतार मानते थे रामकृष्ण। उनके ख़िलाफ़ वह एक हर्फ तक नहीं सुन सकते थे। एक और शिष्य बोला तो उसे भी डपट दिया कि तुम शिव निंदा कर रहे हो। नरेंद्र को समझना इतना आसान नहीं है।

  खैर, दिन बीते, महीने और ऋतुएं भीं, लेकिन नरेंद्र को कहीं स्थायी काम नहीं मिल पाया। एक बार बारिश में भीगते भूखे पेट, थके मांदे नरेंद्र घर लौट रहे थे। हर ओर निराशा, हर ओर अंधेरा। आंखें खुली थीं, लेकिन कुछ दिखता ही नहीं था। सामने एक मकान था। नरेंद्र उसके सूने बरामदे में एक ओर बैठ गए। दिमाग़ में आंधियां चलने लगीं। नरेंद्र को चक्कर आने लगा। तभी उन्हें लगा कि कोई अलौकिक ताकत उनके दिमाग़ में छाया सारा भ्रम छांट रही है। उन्होंने महसूस किया कि उनके सारे शक एक के बाद एक ताश के पत्तों की तरह ढहते जा रहे हैं। ईश्वर में उनका भरोसा वापस लौट रहा है। अब नरेंद्र शांत हो गए। थकान जाती रही। घर वापस लौट आए। उस दिन के बाद से वह एकदम बदल गए। अब उनके दिल में बस एक ख्याल था, 'अपने दादा की तरह मुझे भी संन्यास लेना है, सत्य की खोज करनी है।'

  इसी समय एक दिन रामकृष्ण परमहंस कलकत्ता आए। नरेंद्र उनसे मिलने गए, तो उन्होंने उनको मंदिर चलने को मजबूर कर दिया। दक्षिणेश्वर पहुंचकर रामकृष्ण ने उनको बाकी चेलों के हवाले किया और ख़ुद समाधि में डूब गए। काफी देर बाद जब वह समाधि से उठकर आए, तो नरेंद्र को बड़े प्यार से छुआ। फिर आंख में आंसू दबाए एक गीत गाने लगे। गीत का मर्म जान नरेंद्र भी रोने लगे। दोनों को इतना भावविह्वल हो रोते देख वहां मौजूद हर कोई रोने लगा।

  दूसरे दिन तो नरेंद्र वहां से अपने घर लौट आए, लेकिन लौटते ही फिर से अविश्वास की वही आंधियां दिलो-दिमाग़ को मथने लगीं, जिनसे बरसात की उस रात छुटकारा पाया था। नतीजतन वह फिर से दक्षिणेश्वर पहुंच गए। नरेंद्र ने इस बार रामकृष्ण परमहंस की मदद लेने की ठानी थी। गुरु से मिलते ही उन्होंने कहा कि वह उनके परिवार के भरण पोषण के लिए मां काली से प्रार्थना करें। रामकृष्ण ने पहले तो कुछ टालमटोल की, फिर कहा, 'मैं तो ऐसे नहीं कह सकता मां से। तुम ख़ुद क्यों नहीं कहते? तुम्हारे दिल में मां के लिए कोई इज्जत नहीं है, इसीलिए तुमको इतने दुख हैं।' लेकिन, नरेंद्र जिद पर अड़े रहे। उनकी जिद देख रामकृष्ण परमहंस ने कहा, 'आज मंगलवार है। रात में काली मंदिर जाओ, मां के सामने साष्टांग दंडवत करो। फिर जो मांगना है, मांगो। मां ज़रूर देगी।'

  रात करीब नौ बजे रामकृष्ण ने नरेंद्र को काली मंदिर में जाने की इजाज़त दी। लेकिन, नरेंद्र ने जैसे ही मंदिर की चौखट पर क़दम रखे, उन पर देवी उन्मांद छा गया। उनके पैर डगमगाने लगे। मंदिर में पहुंचकर जैसे ही उन्होंने देवी प्रतिमा को निहारा, वह सजीव सी दिखने लगीं। उस समय उनका सब कुछ प्रेम और भक्ति की बड़ी-बड़ी लहरों तले कहीं दब गया। खुशी के नशे में वह बार-बार मां को दंडवत करते रहे और कहते रहे, 'विवेकं देहि, वैराग्यं देहि, ज्ञानं देहि।'

  एक जगह विवेकानंद ने ख़ुद लिखा है कि उसके बाद तो मेरी आत्मा में एक सौम्य शक्ति का साम्राज्य छा गया। मैं दुनिया भूल गया। दिल में सिर्फ देवी मां ही दिखाई देती रहीं। लेकिन, जिस समस्या को लेकर नरेंद्र देवी मां के सामने गए थे, वह तो उनके मन में ही रह गई। मां के साक्षात दर्शन के बाद जब खुशी से झूमते हुए वह वापस रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे, तो गुरुदेव ने पूछा, 'तुमने अपनी समस्या मां को बताई? कुछ उनसे वरदान वगैरह मांगा कि बस ऐसे ही लौट आए?'

  शरमाकर नरेंद्र बोले, 'वह तो मैं भूल गया। अब क्या होगा? क्या कोई और तरीका है?' गुरुदेव बोले, 'फिर जाओ और अपनी बात उनसे कहो।' नरेंद्र फिर मंदिर पहुंचे। मां वहां खड़ी मुस्कुरा रही थीं। वह नरेंद्र को देख रही थीं, एकदम स्थिर भाव से। नरेंद्र फिर सबकुछ भूल गए और फिर से यही कहते रहे, 'विवेकं देहि, वैराग्यं देहि, ज्ञानं देहि।'

  यह कहकर वह फिर रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। गुरु ने पूछा, 'अब तो बोले या अब भी नहीं बोले?' फिर से वैसे ही शरमाकर नरेंद्र बोले, 'फिर से भूल गया।' इस बार गुरुदेव नाराज़ हो गए। बोले, 'कैसे नासमझ हो? क्या उन थोड़े से शब्दों को कहने के लिए ख़ुद पर नियंत्रण नहीं रख सकते? जाओ, फिर से मां के पास जाओ। वह तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं। और हां, इस बार अपनी बात ज़रूर बोलना।'

  नरेंद्र फिर से मां के पास पहुंचे। मां फिर से उनके सामने साक्षात उपस्थित। इस बार फिर से नरेंद्र वही बोले कि वह ज्ञान और भक्ति के अलावा कुछ और नहीं चाहते। बाहर आए तो वह समझ गए कि यह सब उनके गुरु की इच्छा के चलते ही हो रहा है। यहां से नरेंद्र के जीवन का दूसरा चरण शुरू होता है। अभी तक उन्होंने जो भी सोचा या महसूस किया था, वह सब पढ़ी-पढ़ाई, सुनी-सुनाई बातें थीं। लेकिन, देवी दर्शन होने के बाद तो वह अक्सर ही एक अलौकिक भवसागर में डूब जाया करते। वह समझ गए थे कि प्रतिमा की आराधना पूजा भी वही है, जो ब्रह्म की उपासना है। इस ज्ञान से नरेंद्र का आध्यात्मिक जीवन भरापूरा हो गया।

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