तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Ramcharitmanas
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जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू।

सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥

 सबके हृदय में निवास करनेवाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ राम की दासी अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

प्रेम अगर निर्विकार है तो उसकी सफलता में कोई सन्देह नहीं और जब सब कुछ प्रेम की दृढ़ता पर निर्भर है तो फिर इस प्रेम के प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों पड़ने लगी? अपने प्रेम में कहीं कोई कमी तो नहीं हो रही? किसी प्रकार की विकृतियाँ इसे विद्रूप तो नहीं कर रहीं? जिसकी खुशबू पाते ही साँसें महक जानी चाहिये, जिसके सामने होते ही अन्तःकरण में असंख्य गुलाब अपने आप खिल उठने चाहिये, उसी को रिझाने के लिये अगर बाजारू गुलाब लाना पड़ता है तो कहीं न कहीं कुछ छूट अवश्य रहा है। भूल कहाँ हो रही है यह देखना पड़ेगा। देखना पड़ेगा कि जिसे प्रेम का नाम दिया जा रहा है वह वास्तव में प्रेम है या कुछ और।

जिसको जिस चीज से सच्चा प्रेम होता है उसे वह चीज अवश्य मिल जाती है। यानी सच्चे मन से चाही गई वस्तु अवश्य प्राप्त होती है।

 परम तत्त्व एक ऐसे रूप में हमारे सामने आ सकता है जो खेलने वाला हो, प्रत्यक्ष नाचने वाला हो, हमारे साथ खाने-पीने वाला हो, हँसने-बोलने वाला हो और हमें गले लगाने वाला हो। यह हो सकता है यदि उस स्वरूपके भावमें अनन्यता हो।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:॥

 हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

 इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं।

 उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए भगवान ने उसे मृत्यु प्रदान की। हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए, जिस रूप में हम उसे पाना चाहते हैं।

   काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि मुझे तो भगवान् का बालकरूप ही प्रिय है। दूसरे राम की कथा कहते रहेंगे परन्तु अपने सामने बालरूप राम ही नाचते हैं। इतने बड़े ज्ञानी काकभुशुण्डिजी से जब पूछा गया कि आप कौआ ही क्यों बना रहना चाहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि इस कौआ शरीर के रूप में ही बालरूप राम मुझसे खेलते हैं। इसलिये मुझे कौआ बना रहना ही अच्छा है। मुझे नहीं चाहिये देवता का वेष।

  लेकिन हम तो भगवान से भी स्वार्थ वश लगाव रखते हैं, जैसा हम करते हैं ईश्वर भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है

 हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ , स्व मे ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है । जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व , आत्म, आत्मा, खुद को ही दृढ़ कर रहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कर रहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़- सबल कर रहे होते हैं। यह भी मनो-विज्ञान है । विज्ञान इसे मनो-विज्ञान कहता है। यह दर्शन भी है ।

 जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनो-विज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी । और आस्था व ईश्वर कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता ।

जो हल जोतै खेती वाकी ।

और नहीं तो जाकी ताकी॥

 खेती उसी की अच्छी होती है जो खुद जुताई करता है। उसी प्रकार प्रभु के प्रति आपकी आस्था भी होनी चाहिए।

सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।

सुखं नास्ति विना धर्मं तस्मात् धर्मपरो भव ॥

सब प्राणियों की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है, (और) बिना धर्म के सुख मिलता नही । इस लिए, तू धर्मपरायण बनो। 

 यदि हमारी इच्छाएं सात्विक नहीं हैं तो परिणाम भी सात्विक नहीं होंगे। हम स्वयं के अच्छे होने का संकल्प कर लें तो हमारे अच्छे होने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी। इच्छाएं ही हमारा जीवन है, इच्छाओं से ही हमारे व्यक्तित्व का विकास है और इच्छाओं से ही समाज क ा निर्माण है। जो भी ये कहते हैं कि इच्छाएं जीवन में परेशानी का कारण बनती हैं, गलत कहते हैं। गलत इच्छाएं जीवन में परेशानी का कारण बनती हैं न कि इच्छाएं। जीवन को संवारना है तो इच्छाओं को संवारना होगा। अस्वस्थ भावों का त्याग करना होगा तथा स्वस्थ भावधारा का चुनाव या निर्माण कर उसे पोषित करना होगा। उसे दूसरे दूषित भावजिस प्रकार अच्छी फसल पाने के लिए उत्तम किस्म का बीज बोना अनिवार्य शर्त है, उसी तरह अन्य कुछ भी पाने के लिए उस चीज की मजबूत चाहत, यानी मन में दृढ़ इच्छा का बीजारोपण भी अनिवार्य है। जब हम कोई बीज बो देते हैं तो उससे पेड़ उगना स्वाभाविक है। बीज बो देने के बाद उसे उगने से रोकना असंभव है। बिल्कुल इसी तरह से विचार रूपी बीज को वास्तविकता में परिवर्तित होने से रोकना भी असंभव है। यदि किसी भी तरह से अच्छे विचार रूपी बीजों का मन में रोपण कर दें तो उसके परिणाम को कोई नहीं रोक पाएगा। स्पष्ट है कि जैसी चाहत होगी वैसी ही उपलब्धि होगी। जीवन को संवारना है तो अच्छी सोच अथवा शुभ संकल्प अनिवार्य हैं। तभी तो कामना की गई है कि मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो।

जननी जनक बंधु सुत दारा।

तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।

सब कै ममता ताग बटोरी। 

मम पद मनहि बांध बरि डोरी।

समदरसी इच्छा कछु नाहीं।

हरष सोक भय नहिं मन माहीं।

अस सज्जन मम उर बस कैसें।

लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें।।

तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।

धरऊं देह नहिं आन निहोरें।।

  माता-पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सबके ममत्वरूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है यानी सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है, जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम-सरीखे संत ही मुझे प्रिय हैं। श्रीराम कहते हैं इन दस बातों को मुझसे जोड़ दो। भगवान का सीधा संदेश है मेरे लिए कुछ छोडऩे की जरूरत नहीं है, जरूरत है मुझसे जुडऩे की।

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