हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान् का युद्ध, भागवत कथा, श्रीमद्भागवत महापुराण,
हिरण्याक्ष के साथ वराह भगवान् का युद्ध |
मैत्रेय उवाच
तदेवमाकर्ण्य जलेशभाषितं
महामनास्तद् विगणय्य दुर्मदः ।
हरेर्विदित्वा गतिमङ्ग नारदाद्
रसातलं निर्विविशे त्वरान्वितः ॥
तात ! वरुण जी की यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ, उसने उनके इस कथन पर कि ‘तू उनके हाथ से मारा जायेगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारद जी से श्रीहरि का पता लगाकर रसातल में पहुँच गया। वहाँ उसने विश्वविजयी वराह भगवान् को अपनी दाढ़ों की नोक पर पृथ्वी को ऊपर की ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रों से उसके तेज को हर लेते थे,उन्हें देखकर-
मुष्णन्तमक्ष्णा स्वरुचोऽरुणश्रिया
जहास चाहो वनगोचरो मृगः ।।
वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे! यह जंगली पशु यहाँ जल में कहाँ से आया’, फिर वराह जी से कहा,
आहैनमेह्यज्ञ महीं विमुञ्च नो
रसौकसां विश्वसृजेयमर्पिता ।
न स्वस्ति यास्यस्यनया ममेक्षतः
सुराधमासादितसूकराकृते ।।
‘रे नासमझ! इधर आ, इस पृथ्वी को छोड़ दे; इसे विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने हम रसातलवासियों के हवाले कर दिया है, रे सूकररूप धारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता।
"श्रीधर स्वामी कहते हैं कि यद्यपि वह असुर वराह रूपी श्रीभगवान् का उपहास करना चाहता था, किन्तु वास्तव में उसने अनेक शब्दों से उनकी पूजा की-
उसने उन्हें वन-गोचर कहकर सम्बोधित किया जिसका अर्थ है- “जो वन का वासी है"।
किन्तु “वनगोचर” का एक दूसरा भी अर्थ है- “जो जल में लेटा रहता है।”
विष्णु जलशायी हैं, अत: परम पुरुषोत्तम भगवान् का यह सही सम्बोधन है।
उस असुर ने उन्हें “मृग” कहकर सम्बोधित किया जिससे अनिच्छित यह अभिव्यक्त होता है कि भगवान् की खोज बड़े-बड़े ऋषि मुनि तथा दिव्य ज्ञानी करते रहते हैं।
उसने उन्हें “अज्ञ” कहकर सम्बोधित किया।
श्रीधर स्वामी कहते हैं कि, “ज्ञ” का अर्थ ज्ञान है, अत: कोई ऐसा ज्ञान नहीं जो भगवान् को ज्ञात न हो, अत: असुर ने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि विष्णु सर्वज्ञाता हैं।
असुर ने उन्हें सुराधम भी कहा-
सुर का अर्थ ‘देवता’ है और अधम का अर्थ है ‘सबों’ का।
वे समस्त देवताओं के भगवान् हैं, अत: वे समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हैं।
जब असुर ने ‘मेरी उपस्थिति’ वाक्यांश का प्रयोग किया, तो उसका यही अर्थ था, “मेरे उपस्थित रहने पर भी आप पृथ्वी को ले जा सकते हैं।”
"न स्वस्ति यास्यसि" —“जब तक कृपा करके आप इस पृथ्वी को हमारी निगरानी से ले नहीं लेते तब तक हमारा कल्याण नहीं।”
त्वं नः सपत्नैरअभवाय किं भृतो
यो मायया हन्त्यसुरान् परोक्षजित् ।
त्वां योगमायाबलमल्पपौरुषं
संस्थाप्य मूढ प्रमृजे सुहृच्छुचः ॥
तू माया से लुक-छिपकर ही दैत्यों को जीत लेता और मार डालता है। क्या इसी से हमारे शत्रुओं ने हमारा नाश कराने के लिये तुझे पाला है? मूढ़! तेरा बल तो योगमाया ही है और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है। आज तुझे समाप्त कर मैं अपने बन्धुओं का शोक दूर करूँगा, जब मेरे हाथ से छूटी हुई गदा के प्रहार से सिर फट जाने के कारण तू मर जायेगा, तब तेरी आराधना करने वाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षों की भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे’।
असुर ने अभवाय शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ, “मारने के लिए” है।
श्रीधर स्वामी की टीका है कि इस "मारने" का अर्थ मुक्ति दिलाना अर्थात् जन्म-मरण के प्रक्रम को मारना है।
भगवान् जन्म-मरण के प्रक्रम को मारते हैं, किन्तु स्वयं अदृश्य बने रहते हैं।
भगवान् की अन्त:शक्ति अचिन्त्य है, किन्तु इस शक्ति के नाममात्र के प्रदर्शन से भगवान् की कृपावश अज्ञान से उद्धार हो जाता है। "शुच:" का अर्थ है शोक या कष्ट।
भगवान् अपनी योगमाया से इस भौतिक संसार के सारे दुखों को दूर कर सकते हैं।
उपनिषदों (श्वेताश्वतर उपनिषद ६.८) में कहा गया है—
"परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते"।
भगवान् सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर नहीं होते, किन्तु उनकी शक्तियाँ अनेक प्रकार से कार्यशील रहती हैं। जब असुर संकट में होते हैं, तो वे कहते हैं कि ईश्वर अपने को छिपा रहा है और योगशक्ति से काम कर रहा है। वे सोचते हैं कि यदि ईश्वर उन्हें मिल जाय तो वे उसे मात्र दृष्टिपात से मार डालें।
हिरण्याक्ष यही सोचता था इसीलिए उसने भगवान् को ललकारा—“तुमने देवताओं का पक्ष लेकर हमारी जाति को महान् क्षति पहुँचाई है और तुमने अपने को सदा अदृश्य रखते हुए न जाने हमारे कितने ही बन्धु-बान्धवों का वध किया है।
अब मैं तुम्हें अपने समक्ष पा गया हूँ, अत: मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा, मैं तुम्हारा वध करके अपने कुटुम्बियों को तुम्हारे योगिक कुकृत्यों से मुक्त करूँगा।
स तुद्यमानोऽरिदुरुक्ततोमरैः
दंष्ट्राग्रगां गां उपलक्ष्य भीताम् ।
तोदं मृषन् निरगाद् अम्बुमध्याद्
ग्राहाहतः सकरेणुर्यथेभः ॥
हिरण्याक्ष भगवान् को दुर्वचन-बाणों से छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँत की नोक पर स्थित पृथ्वी को भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जल से उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राह की चोट खाकर हथिनी सहित गजराज। जब उसकी चुनौती का कोई उत्तर न देकर वे जल से बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गज का पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ों वाले उस दैत्य ने उनका पीछा किया तथा वज्र के समान कड़ककर वह कहने लगा-
"गतह्रियां किं त्वसतां विगर्हितम्"।
‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? सच है, असत् पुरुषों के लिये कौन-सा काम न करने योग्य है।
स गां उदस्तात् सलिलस्य गोचरे
विन्यस्य तस्यां अदधात् स्वसत्त्वम्।
अभिष्टुतो विश्वसृजा प्रसूनैः
आपूर्यमाणो विबुधैः पश्यतोऽरेः॥
भगवान् ने पृथ्वी को ले जाकर जल के ऊपर व्यवहार योग्य स्थान में स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्ति का संचार किया। उस समय हिरण्याक्ष के सामने ही ब्रह्मा जी ने उनकी स्तुति की और देवताओं ने फूल बरसाये। तब श्रीहरि ने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्ष से, जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्यों से उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोध पूर्वक हँसते हुए कहा-
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ।
न मृत्युपाशैः प्रतिमुक्तस्य वीरा
विकत्थनं तव गृह्णन्त्यभद्र ॥
अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्रामसिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं। दुष्ट! वीर पुरुष तुझ-जैसे मृत्युपाश में बँधे हुए अभागे जीवों की आत्मश्लाघा पर ध्यान नहीं देते। हाँ, हम रसातलवासियों की धरोहर चुराकर और लज्जा छोड़कर तेरी गदा के भय से यहाँ भाग आये हैं।
"तिष्ठामहेऽथापि कथञ्चिदाजौ
स्थेयं क्व यामो बलिनोत्पाद्य वैरम्"।
हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे-जैसे अद्वितीय वीर के सामने युद्ध में ठहर सकें, फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ-जैसे बलवानों से वैर बाँधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं?
त्वं पद्-रथानां किल यूथपाधिपो
घटस्व नोऽस्वस्तय आश्वनूहः ।
संस्थाप्य चास्मान् प्रमृजाश्रु स्वकानां
यः स्वां प्रतिज्ञां नातिपिपर्त्यसभ्यः ॥
तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब निःशंक होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है-भले आदमियों में बैठने लायक नहीं है।
मैत्रेय जी कहते हैं-
सोऽधिक्षिप्तो भगवता प्रलब्धश्च रुषा भृशम् ।
आजहारोल्बणं क्रोधं क्रीड्यमानोऽहिराडिव ॥
विदुर जी! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा, वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया।
भगवान् तु गदावेगं विसृष्टं रिपुणोरसि ।
अवञ्चयत् तिरश्चीनो योगारूढ इवान्तकम् ॥
किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलाई हुई शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया-ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है। फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा —
"अभ्यधावद् हरिः क्रुद्धः संरम्भाद् दष्टदच्छदम्"।
, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे।
सौम्यस्वभाव विदुर जी! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया।
एवं गदाभ्यां गुर्वीभ्यां हर्यक्षो हरिरेव च ।
जिगीषया सुसंरब्धौ अन्योन्यं अभिजघ्नतुः ॥
इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे।
"हर्यक्ष हिरण्याक्ष का दूसरा नाम है।"
उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अंगों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो साँडों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।
दैत्यस्य यज्ञावयवस्य माया
गृहीतवाराहतनोर्महात्मनः ।
कौरव्य मह्यां द्विषतोर्विमर्दनं
दिदृक्षुरागाद् ऋषिभिर्वृतः स्वराट् ॥
विदुर जी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्मा जी आये, वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकर रूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे -
एष ते देव देवानां अङ्घ्रिमूलमुपेयुषाम् ।
विप्राणां सौरभेयीणां भूतानां अपि अनागसाम् ॥
देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहने वाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचाने वाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करने वाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है।
यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरंकुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें।
न यावदेष वर्धेत स्वां वेलां प्राप्य दारुणः ।
स्वां देव मायां आस्थाय तावत् जह्यघमच्युत ॥
देव! अच्युत! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी बल-वृद्धि वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये।
एषा घोरतमा सन्ध्या लोकच्छम्बट्करी प्रभो ।
उपसर्पति सर्वात्मन् सुराणां जयमावह।।
प्रभो! देखिये, लोकों का संहार करने वाली सन्ध्या की भयंकर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये। इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अतः
"शिवाय नस्त्वं सुहृदां आशु निस्तर दुस्तरम्"।
अपने सुहृद् हम लोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये।
दिष्ट्या त्वां विहितं मृत्युं अयं आसादितः स्वयम् ।
विक्रम्यैनं मृधे हत्वा लोकान् आधेहि शर्मणि ॥
प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हम लोगों के बड़े भाग्य हैं, अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये।
मैत्रेय जी कहते हैं-
अवधार्य विरिञ्चस्य निर्व्यलीकामृतं वचः।
प्रहस्य प्रेमगर्भेण तदपाङ्गेन सोऽग्रहीत्॥
विदुर जी! ब्रह्मा जी के कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपन पर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्ष के द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
ततः सपत्नं मुखतः चरन्तं अकुतोभयम् ।
जघानोत्पत्य गदया हनौ अवसुरमक्षजः ॥
उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रु की ठुड्डी पर गदा मारी, किन्तु हिरण्याक्ष की गदा से टकराकर वह गदा भगवान् के हाथ से छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीन पर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई। उस समय शत्रु पर वार करने का अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर -
"मानयन् स मृधे धर्मं विष्वक्सेनं प्रकोपयन्"।
युद्ध धर्म का पालन करते हुए उन पर आक्रमण नहीं किया।
उसने भगवान् का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था।
गदायां अपविद्धायां हाहाकारे विनिर्गते ।
मानयामास तद् धर्मं सुनाभं चास्मरद्विभुः ॥
गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्म बुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान् के हाथ में घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्यधम हिरण्याक्ष के साथ विशेष रूप से क्रीड़ा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जानने वाले देवताओं के ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे-
"तत्रास्मासन् स्वस्ति तेऽमुं जहीति"।
‘प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’।
स तं निशाम्यात्तरथाङ्गमग्रतो
व्यवस्थितं पद्मपलाशलोचनम् ।
विलोक्य चामर्ष परिप्लुतेन्द्रियो
रुषा स्वदन्तच्छदमादशच्छ्वसन् ॥
जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोध से तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होंठ चबाने लगा। उस समय वह तीखी दाढ़ों वाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान् को भस्म कर देगा, उसने उछलकर-
"अभिप्लुत्य स्वगदया हतोऽसीत्याहनद् हरिम्"।
‘ले अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया।
साधुस्वभाव विदुर जी! यज्ञमूर्ति श्रीवाराह भगवान् ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेग वाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा,
"आह चायुधमाधत्स्व घटस्व त्वं जिगीषसि"।
‘अरे दैत्य! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान् के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा।
तां स आपततीं वीक्ष्य भगवान् समवस्थितः ।
जग्राह लीलया प्राप्तां गरुत्मानिव पन्नगीम् ॥
गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवान् ने, जहाँ खड़े थे वहीं से, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड़ साँपिनी को पकड़ कर लें। अपने उद्यम को इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार भगवान् के देने पर उसने उस गदा को लेना न चाहा।
जग्राह त्रिशिखं शूलं ज्वलज्ज्वलनलोलुपम्।
यज्ञाय धृतरूपाय विप्रायाभिचरन् यथा।।
किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मण के ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुष पर प्रहार करने के लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया। महाबली हिरण्याक्ष का अत्यन्त वेग से छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाश में बड़ी तेजी से चमकने लगा, तब भगवान् ने उसे अपनी तीखी धार वाले चक्र से इस प्रकार काट डाला-
"चक्रेण चिच्छेद निशातनेमिना
हरिर्यथा तार्क्ष्यपतत्रमुज्झितम्"
जैसे इन्द्र ने गरुड़ जी के छोड़े हुए तेजस्वी पंख को काट डाला था।
"एक बार गरुडजी अपनी माता विनता को सर्पों की माता कद्रू के दासीपने से मुक्त करने के लिये देवताओं के पाससे अमृत छीन लाये थे। तब इन्द्रने उनके ऊपर अपना वज्र छोड़ा। इन्द्र का वज्र कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिये उसका मान रखने के लिये गरुडजी ने अपना एक पर गिरा दिया। उसे उस वज्र ने काट डाला।"
वृक्णे स्वशूले बहुधारिणा हरे:
प्रत्येत्य विस्तीर्णमुरो विभूतिमत् ।
प्रवृद्धरोष: स कठोरमुष्टिना
नदन् प्रहृत्यान्तरधीयतासुर: ॥
भगवान् के चक्र से अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया।
"श्रीवत्स श्वेत बालों की भौंरी है, जो भगवान् के वक्षस्थल पर है और उनके श्रीभगवान् होने का विशिष्ट चिह्न है। वैकुण्ठ लोक अथवा गोलोक वृन्दावन के सभी निवासी श्रीभगवान् की ही समरूप होते हैं अत: इसी श्रीवत्स चिह्न के द्वारा भगवान् को अन्यों के बीच पहचाना जाता है।"
तेनेत्थमाहतः क्षत्तः भगवान् आदिसूकरः।
नाकम्पत मनाक्क्वापि स्रजा हत इव द्विपः।।
विदुर जी! जैसे हाथी पर पुष्पमाला की चोट का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारने से भगवान् आदिवराह तनिक भी टस-से-मस नहीं हुए।
तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरि पर अनेक प्रकार की मायाओं का प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसार का प्रलय होने वाला है।
प्रववुर्वायवश्चण्डाः तमः पांसवमैरयन्।
दिग्भ्यो निपेतुर्ग्रावाणः क्षेपणैः प्रहिता इव।।
बड़ी प्रचण्ड आँधी चलने लगी, जिसके कारण धूल से सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओर से पत्थरों की वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपण यन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों।
बिजली की चमचमाहट और कड़क के साथ बादलों के घिर आने से आकाश में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीब, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियों की वर्षा होने लगी।
गिरयः प्रत्यदृश्यन्त नानायुधमुचोऽनघ।
दिग्वाससो यातुधान्यः शूलिन्यो मुक्तमूर्धजाः।।
विदुर जी! ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथ में त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियाँ दीखने लगीं, बहुत-से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों पर चढ़े सैनिकों के साथ आततायी यक्ष- राक्षसों का ‘मारो-मारो, काटो-काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा।
प्रादुष्कृतानां मायानां आसुरीणां विनाशयत्।
सुदर्शनास्त्रं भगवान् प्रायुङ्क्त दयितं त्रिपात्।।
इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया-जाल का नाश करने के लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराह ने अपना प्रिय सुदर्शन चक्र छोड़ा, उस समय अपने पति का कथन स्मरण हो आने से दिति का हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनों से रक्त बहने लगा।
विनष्टासु स्वमायासु भूयश्चाव्रज्य केशवम्।
रुषोपगूहमानोऽमुं ददृशेऽवस्थितं बहिः।।
अपना माया-जाल नष्ट हो जाने पर वह दैत्य फिर भगवान् के पास आया। उसने उन्हें क्रोध से दबाकर चूर-चूर करने की इच्छा से भुजाओं में भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं।
"भगवान् को केशव कहा गया हैं क्योंकि उन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में केशी असुर का वध किया था, कृष्ण का नाम केशव भी है। श्रीकृष्ण समस्त अवतारों के मूल हैं और ब्रह्म-संहिता में इसकी पुष्टि हुई है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् गोविन्द समस्त कारणों के कारण हैं और वे एक साथ ही विभिन्न अवतारों तथा अंशों में विद्यमान रहने वाले हैं। असुर हमेशा पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को आँकने का प्रयत्न करता रहता है, यह सोचकर कि वह अपनी भौतिक शक्ति से अपनी सीमित बाहों के भीतर भगवान् को जकड़ सकेगा, उसने अपनी बाहों में उन्हें भरना चाहा। उसे यह ज्ञात न था कि भगवान् महान् से महानतम और सूक्ष्म से सूक्ष्मतम हैं। कोई भी व्यक्ति न तो उन्हें बन्दी बना सकता हैं और न अपने वश में रख सकता है, किन्तु आसुरी व्यक्ति सदैव भगवान् की लम्बाई चौड़ाई मापने का प्रयास करता रहता है।"
तं मुष्टिभिर्विनिघ्नन्तं वज्रसारैरधोक्षज: ।
करेण कर्णमूलेऽहन् यथा त्वाष्ट्रं मरुत्पति: ॥
वह भगवान् को वज्र के समान कठोर मुक्कों से मारने लगा,
इन्द्र ने जैसे वृत्रासुर पर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान् ने उसकी कनपटी पर एक तमाचा मारा।
यहां पर श्रीभगवान को "अधोक्षज" अर्थात् समस्त गणनाओं से परे कहा गया है।
अक्षज का अर्थ है, “हमारी इन्द्रियों की माप” और "अधोक्षज" का अर्थ है कि वे "इन्द्रियातीत" है , अर्थात उन्हें भौतिक इन्द्रियों की सहायता से देखना असम्भव है।
यद्यपि वे इन्द्रियातीत हैं फिर भी वे सबके हृदय में उपस्थित हैं। साथ ही वे ब्रह्म के सर्वव्यापी पक्ष के द्वारा सर्वत्र उपस्थित हैं परम सत्य के तीन पक्ष हैं- श्रीभगवान , अन्तर्यामी परमात्मा . और सर्वव्यापक ब्रह्म।"
विश्व विजयी भगवान् ने यद्यपि बड़ी उपेक्षा से तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोट से हिरण्याक्ष का शरीर घूमने लगा-
विशीर्णबाह्वङ्घ्रिशिरोरुहोऽपतद्
यथा नगेन्द्रो लुलितो नभस्वता ॥
उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधी से उखड़े हुए विशाल वृक्ष के समान पृथ्वी पर गिर पड़ा।
हिरण्याक्ष का तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ों वाले दैत्य को दाँतों से होठ चबाते पृथ्वी पर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखने के लिये आये हुए -
अजादयो वीक्ष्य शशंसुरागता
अहो इमं को नु लभेत संस्थितिम्"
ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है।
यं योगिनो योगसमाधिना रहो
ध्यायन्ति लिङ्गादसतो मुमुक्षया।
तस्यैष दैत्यऋषभः पदाहतो
मुखं प्रपश्यन् तनुमुत्ससर्ज ह।।
अपनी मिथ्या उपाधि से छूटने के लिये जिनका योगिजन समाधियोग के द्वारा एकान्त में ध्यान करते हैं, उन्हीं के चरण-प्रहार उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराज ने अपना शरीर त्यागा।
एतौ तौ पार्षदावस्य शापाद् यातौ असद्गतिम्।
पुनः कतिपयैः स्थानं प्रपत्स्येते ह जन्मभिः।।
ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान् के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है, अब कुछ जन्मों में ये फिर अपने स्थान पर पहुँच जायँगे’।
देवता लोग कहने लगे-
नमो नमस्तेऽखिलयज्ञतन्तवे
स्थितौ गृहीतामलसत्त्वमूर्तये।
दिष्ट्या हतोऽयं जगतामरुन्तुदः
त्वत् पादभक्त्या वयमीश निर्वृताः।।
'प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है, आप सम्पूर्ण यज्ञों का विस्तार करने वाले हैं तथा संसार की स्थिति के लिये शुद्धसत्त्वमय मंगलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्द की बात है कि संसार को कष्ट देने वाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब आपके चरणों की भक्ति के प्रभाव से हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी।'
मैत्रेय जी कहते हैं-
एवं हिरण्याक्षमसह्यविक्रमं
स सादयित्वा हरिरादिसूकरः।
जगाम लोकं स्वमखण्डितोत्सवं
समीडितः पुष्करविष्टरादिभिः।।
विदुर जी! इस प्रकार महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धाम को पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे।
भगवान् अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राम में खिलौने की भाँति-
"यथा हिरण्याक्ष उदारविक्रमो
महामृधे क्रीडनवन्निराकृतः"
महापराक्रमी हिरण्याक्ष का वध कर डाला, मित्र विदुर जी! वह सब चरित्र जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, तुम्हें सुना दिया।
सूत जी कहते हैं-
इति कौषारवाख्यातां आश्रुत्य भगवत्कथाम्।
क्षत्तानन्दं परं लेभे महाभागवतो द्विज।।
शौनक जी! मैत्रेय जी के मुख से भगवान् की कथा सुनकर परमभागवत विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ। जब अन्य पवित्रकीर्ति और परमयशस्वी महापुरुषों का चरित्र सुनने से ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान् की ललितललाम लीलाओं की तो बात ही क्या है।
यो गजेन्द्रं झषग्रस्तं ध्यायन्तं चरणाम्बुजम् ।
क्रोशन्तीनां करेणूनां कृच्छ्रतोऽमोचयद्द्रुतम् ॥
जिस समय ग्राह के पकड़ने पर गजराज प्रभु के चरणों का ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दुःख से चिग्घाड़ने लगीं, उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दुःख से छुड़ाया और जो सब ओर से निराश होकर अपनी शरण में आये हुए सरल हृदय भक्तों से सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु दुष्ट पुरुषों के लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं-उन पर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभु के उपकारों को जानने वाला कौन ऐसा पुरुष है, जो उनका सेवन न करेगा?
यो वै हिरण्याक्षवधं महाद्भुतं
विक्रीडितं कारणसूकरात्मनः।
श्रृणोति गायत्यनुमोदतेऽञ्जसा
विमुच्यते ब्रह्मवधादपि द्विजाः।।
शौनकादि ऋषियों! पृथ्वी का उद्धार करने के लिये वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीला को जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या-जैसे घोर पाप से भी सहज में ही छूट जाता हैं।
एतन् महापुण्यमलं पवित्रं
धन्यं यशस्यं पदमायुराशिषाम्।
प्राणेन्द्रियाणां युधि शौर्यवर्धनं
नारायणोऽन्ते गतिरङ्ग श्रृण्वताम्।।
यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद परमपवित्र, धन और यश की प्राप्ति कराने वाला तथा आयुवर्धक और कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा युद्ध में प्राण और इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने वाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्त में श्रीभगवान् का आश्रय प्राप्त होता है।
रहस्य -
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के संहार के लिए भगवान ने क्रमशः वराह और नृसिंह अवतार धारण किया था, हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु लोभ के ही अवतार है।
भगवान ने "काम" को मारने के लिए एक ही अवतार लिया अर्थात रावण-कुम्भकर्ण को संहारने के लिए रामचन्द्रजी का अवतार लिया।
"क्रोध" को मारने के लिए -शिशुपाल के वध के लिए एक कृष्णावतार ही लिया।
किन्तु "लोभ" को मारने के लिए दो अवतार लेने पड़े-वराह और नरसिंह अवतार।
काम-क्रोध को मारने के लिए एक-एक अवतार ही लेना पड़ा। किन्तु लोभ को मारने के लिए दो अवतार लेने पड़े,यही बताता है कि लोभ -पर जीत करना बड़ा दुष्कर है।
वृद्धावस्था में शक्ति क्षीण होने पर काम को जीतने में कौन सी बड़ी बात है?
किन्तु लोभ तो वृद्धावस्था में भी अन्त तक नहीं छूट पाता, लोभ को मारना कठिन है।
सत्कर्म में विघ्नकर्ता लोभ है अतः संतोष के द्वारा उसे मारना चाहिए।
लोभ संतोष से ही मरता है, इसलिए संतोष की आदत डालो।
लोभ आदि के प्रसार से पृथ्वी दुःखरूपी सागर में डूब गई थी। अतः भगवान ने वराह अवतार लेकर उसका उध्धार किया। वराह भगवान "संतोष" के अवतार है।
वराह अवतार यज्ञावतार है।
वर + अह -- वर अर्थात 'श्रेष्ठ' और 'अह' अर्थात दिन।
जिस दिन अपने हाथों से कोई सत्कर्म हो जाय वही दिन श्रेष्ठ है। श्रेष्ठ कर्म करने से दिवस भी श्रेष्ठ बन जायेगा, जिस कार्य से प्रभु प्रसन्न हों वही सत्कर्म है, सत्कर्म को ही यज्ञ कहते है।
हिरण्याक्ष (लोभ) सत्कर्म में विघ्नकर्ता है, मनुष्य के हाथों सत्कर्म नहीं होता क्योंकि उसे लगता है कि प्रभु ने उसे बहुत कम दिया है।
समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी को वराह भगवान ने बहार तो निकाला किन्तु उसे अपने पास न रखा। उन्होंने पृथ्वी मनु को अर्थात मनुष्य को सौंप दी, अपने हाथों में आया उसे औरो को दे दिया। यही "संतोष" है।
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