अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन(भाग 9) Medical science in the Atharva Veda: A Study(part 9)
अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन
Atharvveda's medical science |
गुप्तरोग चिकित्सा
अथर्ववेद में गुप्त रोगों को दो प्रकार का बताया गया है। एक वे जो पुरुषों और स्त्रियों के गुप्त स्थानों में उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे गुदास्थान में अर्श (बवासीर) आदि। इन्हें दुर्णाम कहा गया है। दूसरे वे रोग हैं जो मुँह आदि में छाले आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं। इन्हें दुर्वाच् बताया गया है(दुर्णाम्नीः सर्वा दुर्वाचस् ता अस्मन् नाशयामसि । अ. ४.१७.५) । दुर्णाम का भाव यह है - ऐसे रोग जिनका नाम लेना, उनकी भयंकरता के कारण, बुरा माना जाता है। दूसरे दुर्वाच् वे रोग हैं, जिनके मुँह के अन्दर उत्पन्न होने के कारण बोलने में कठिनाई होती है। अर्श को दूर करने के लिये अपामार्ग अत्यन्त प्रभावशाली ओषधि बताई गई है। वैद्य का वचन है रोगों को अभिभूत करने वाली, यह दिव्य गुणों वाली उत्तम चित्रपर्णी (पृश्निपर्णी)) उत्पन्न हुई है। यह बलवती है और रोग के बीजों का दलन करने वाली है। इसके द्वारा मैं बुरे नाम वाले (अर्थात् गुप्त रोगों को इस प्रकार काट डालूँगा, जिस प्रकार बहेलिया पंछी के सिर को काट डालता है(सहमानेयं प्रथमा पृश्निपर्ण्य जायत। तयाहं दुर्णाम्नां शिरो वृश्चामि शकुनेरिव अ. २.२५.२) । यह दिव्य गुणों वाली चित्रपर्णी रोगों का विनाश करके हमें सुख देने वाली होवे। चूँकि यह रोगों के बीजभूत क्रिमि आदियों का दलन करने वाली है, इसलिये में इस प्रभावशालिनी ओषधि को अपने रोगियों को खिलाता हूँ(शं नो देवी पृश्निपर्ण्यंशं निर्ऋत्या अकः । उग्रा हि कण्वजम्भनी ताम् अभक्षि सहस्वतीम्।। अ. २.२५.१)।
अथर्ववेद काण्ड १, सूक्त ३ में शर (सरकंडा) अथवा उसकी पूँज के द्वारा मूत्रावरोधचिकित्सा का वर्णन है। यह चिकित्सा शर को पानी में पीसकर पीने से अथवा उसे घिसकर मूत्रस्थान पर लेप करने से होती थी, यह स्पष्ट नहीं है। यहाँ मेघ (पर्जन्य), वायु (मित्र), जल (वरुण), चन्द्र और सूर्य को पालक (पिता) कहा गया है। यह इस लिये, क्योंकि ये सब दैवी शक्तियाँ उसे उत्पन्न होने, बढ़ने और परिपक्व होने में सहायक होती हैं। वैद्य का वचन है - हे रोगी! हम असंख्य वर्षाओं को करने वाले, सर (सरकंडे) के पिता, अर्थात् शर को उत्पन्न करने वाले और उसका पालन करने वाले पर्जन्य (मेघ) को जानते हैं। मैं वैद्य उस सरकंडे के प्रयोग के द्वारा तुझे सुखी (नीरोग) करता हूँ। अब तेरा सारा मूत्र धरती पर धारा-प्रवाह से पड़ेगा। तेरे मसानों में रुका हुआ मूत्र शू-शू ध्वनि (मूत्र त्याग करते समय होने वाली ध्वनि) के साथ बाहर हो जाएगा, अथवा मूत्र रूपी जल (वार्> वाल् बाल्) बाहर हो जाएगा(विद्मा शरस्य पितरं पर्जन्यं शतवृष्ण्यम् । तेना ते तन्वे शं करं पृथिव्यां ते निषेचन बहिष् टे अस्तु बालू इति ॥ अ. १.३.१) । जो (मूत्र) आँतों में, दो पार्श्वनाडियों में और मूत्राशय में जमा हो गया है, वह सारे का सारा शू-शू (बाळ) ध्वनि के साथ बाहर हो जाएगा। (६)। जिस प्रकार किसी जलाशय के जलनिकासी के मार्ग को खोदकर खोल दिया जाता है, उसी प्रकार मैं तेरे मूत्रद्वार को खोले देता हूँ। इस प्रकार तेरा सारे का सारा मूत्र शू-शू ध्वनि के साथ बाहर आ जाएगा( प्र ते भिनद्मि मेहनं वर्त्रं वेशन्त्या इव। एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर् बालू इति सर्वकम्॥ १.३.७) । इस वर्णन से पता चलता है कि उस काल में भी कोई शल्य चिकित्सा पद्धति प्रचलित रही होगी । मन्त्र (८) के वर्णन से पता चलता है कि अथर्ववेद के उस प्राचीन काल में भी आधुनिक शल्यचिकित्सा जैसी कोई पद्धति विद्यमान थी चिकित्सक मूत्रमार्ग को खोल देने के पश्चात् कहता है कि मैंने तेरे मूत्राशय के मार्ग को इस प्रकार खोल दिया है, जिस प्रकार जल को धारण करने वाले बहुत बड़े जलाशय में जल के निकास के लिये मार्ग बना दिया जाता है। इस प्रकार तेरा सारा मूत्र तीर की तरह वेग से ध्वनि करता हुआ बाहर निकल जाएगा(विषितं ते बलं समुद्रस्योदधेरिव । एवा ते मूत्रं मुच्यतां बहिर् बालू इति सर्वकम्॥ १.३.८) ।
अथर्ववेद में वाजीकरण का भी वर्णन है। इसके द्वारा निर्वार्य और नपुंसक मनुष्य को वीर्यसम्पन्न और सन्तानोत्पत्नि के योग्य बनाया जा सकता है। अथर्व (४.४) में धरती से खोदकर निकाली जाने वाली शेपहर्षिणी नामक एक ओषधि का वर्णन है। वैद्य निर्वीर्य मनुष्य से कहता है कि यह औषधि तुझे अत्यन्त बलशाली बना देगी (३) । यह औषधि अन्य ओषधियों से उत्तम बल वाली और वृषभों के बल को देने वाली है। हे इन्द्र! तू इसके द्वारा इस मनुष्य में वृषत्व को स्थापित कर दे। (४)। हे अग्नि आदि देवो! तुम इस औषधि से इसके इन्द्रिय को धनुष की तरह तान दो। (६)। हे इन्द्र ! अश्व के, खच्चर के बकरे के, मेंढे के और सांड के जो बल हैं, उनको तू इस पुरुष में स्थापित कर दे। एक अन्य मन्त्र में आक (अर्क) को वाजीकरण में समर्थ बताया गया है। 'जिस प्रकार काला सर्प अपने शरीर को अनेक स्थितियों में स्थापित करता हुआ प्रभुप्रद शक्ति से इच्छानुसार फैलाता है, उसी प्रकार तेरे इन्द्रिय को यह अर्क (औषधि) बल से भरकर अंग के साथ मिलकर गति करने वाला अंग बना देवे( यथासितः प्रथयते वशाँ अनु वपूंषि कृण्वन्नसुरस्य मायया । एवा ते शेपः सहसायम् अर्को ऽङ्गेना संसमकं कृणोतु ।। अ. ६.७२.१)।
स्त्रीरोग चिकित्सा
स्त्रीरोगों में मुख्य रोग बांझपन है। अथर्ववेद काण्ड ३ सूक्त २३ में बांझपन को दूर करने और प्रजननशक्ति की वृद्धि के लिये प्रार्थनाएँ हैं और ओषधियों के महत्त्व का वर्णन है। एक मन्त्र में गर्भ की स्थापना, उसकी वृद्धि और उसके संरक्षण में ओषधियों के योगदान को पूर्णतया स्वीकार किया गया है। वहाँ स्पष्ट कहा गया है द्यौ अर्थात् सूर्य ओषधियों का पिता अर्थात् उत्पत्तिकर्ता है। पृथिवी उनको गर्भ में धारण करने और जन्म देने के कारण उनकी माता है। अन्तरिक्ष जलों को बरसाकर उनको बढ़ाता और उनका पालन-पोषण करता है। इसलिये जल बरसाने वाला अन्तरिक्ष उनका मूलाधार है। इस प्रकार तैयार होने वाली ये दिव्य ओषधियाँ, हे सन्तान को जन्म देने वाली स्त्री !, पुत्रप्राप्ति के लिये तेरी भरपूर वृद्धि और रक्षा करें(यासां द्यौः पिता पृथिवी माता समुद्रो मूलं वीरुधां बभूव । तास् त्वा पुत्रविद्याय दैवी : प्रावन्त्वोषधयः ।। अ. ३.२३.६) । छठे काण्ड के सूक्त ११ के प्रथम मन्त्र में कहा है- शमी के वृक्ष पर यदि पीपल का पेड़ चढ़ा हो तो उसमें पुंस्त्व का गुण होता है। उसका स्त्रियों को सेवन कराने से उन्हें पुत्र की प्राप्ति होती है(शमीम् अश्वत्थ आरूढस् तत्र पुंसवनं कृतम्। तत् वै पुत्रस्य वेदनं तत् स्त्रीष्वाभरामसि ।। अ. ६.११.१) । काण्ड ८ के सूक्त ६ में गर्भदोषनिवारण के अनेक उपायों का वर्णन है। स्त्रियों के रोगों का कारण क्रिमियों को बताया गया है। इस सूक्त में पलाल, अनुपलाल, शर्कु, कोक आदि लगभग २० क्रिमियों के नामों का उल्लेख हुआ है। बज और पिंग (पीली सरसों अथवा हरताल) को इन क्रिमियों अथवा रोगबीजों का विनाशक बताया गया है। ये क्रिमि सूर्य से इस प्रकार परे भागते हैं, जिस प्रकार पुत्रवधू ससुर से बज और पिङ्ग औषधियाँ इनके हृदयों को बाँध देवें(ये सूर्यात् परिसर्पन्ति स्नुषेव श्वशुराद् अधि । बजश् च तेषां पिङ्गश् च हृदये ऽधि नि विध्यताम् ।। अ. ८.६.२४ ) ।एक मन्त्र में कहा है "जो तेरे गर्भ को हानि पहुँचाए, अथवा तेरे उत्पन्न शिशु को मार देवे, पिङ्ग औषधि उसके हृदय को अपने उम्र धनुष से बाँध देवे(यस् ते गर्भं प्रतिमृशाज् जातं वा मारयति ते। पिङ्गस् तम् उग्रधन्वना कृणोतु हृदयाविधम्।। अ. ८.६.१८) । एक अन्य मन्त्र में होम से बची श्वेत और पीली सरसों को नीवि में बाँधकर रखने से गर्भ की रक्षा बताई गई है(परिसृष्टं धारयतु यद् हितं माव पादि तत्। गर्भं त उग्रौ रक्षतां भेषजौ नीविभार्यौ।। अ. ८.६.२०१) । अगले मन्त्र में स्पष्ट संकेत है कि पिङ्ग ओषधि वज्रसम नासिका वाले तङ्गल्व और विनाशकारी नग्नक नामक क्रिमियों से सन्तान की रक्षा करती है(पवीनसात् तङ्गल्वाच् छायकाद् उत नग्नकात् । ....प्रजायै पत्ये त्वा पिङ्गः परिपातु किमीदिनः । अ. ८.६.२१) । एक मन्त्र में कहा गया है कि चित्रक ओषधि और गूलर (ब्रह्मवृक्ष) की छाल को मिलाकर सेवन करने से स्त्री के गर्भ में स्थित गुप्तरोग नष्ट हो जाता है(यस् से गर्भम् अमीवा दुर्णामा योनिम् आशये। अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष् क्रव्यादम् अनीनशत् ।। अ. २०.९६.१२ )। काण्ड १, सूक्त ११ में गर्भिणी स्त्री की प्रसवक्रिया का विस्तृत वर्णन दिया है। गर्भ में देवों का वास बताया गया है और उनसे प्रार्थना की गई है कि वे गर्भ को सुखपूर्वक बाहर आने के लिये प्रेरित करें। प्रसव सुखपूर्वक हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है। आसन्नप्रसवा स्त्री को सूषणा (सुख से प्रसव करने वाली) कहा गया है। अन्तिम मन्त्र में कहा गया है जिस प्रकार वायु, मन और पक्षी सहजता से उड़ते हैं, उसी प्रकार, हे दसवें मास के गर्भ, तू जरायु के साथ शीघ्रता से नीचे आ जा(यथा वातो यथा मनो यथा पतन्ति पक्षिणः । एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुणा पताव जरायु पद्यताम्।। अ. १.११.६) । स्त्रियों में रज के अतिस्राव को रोकने का वर्णन भी अथर्ववेद के प्रथम काण्ड के सूक्त १७ में हुआ है।
अथर्ववेद (७.३६) में गर्भनिरोध का भी स्पष्ट वर्णन है। स्त्री की योनि की नसनाड़ियों और धमनियों को किसी विशेष प्रकार के पत्थर अथवा पत्थर से बने उपकरण से इस प्रकार ढक दिया जाता था कि वीर्य योनि तक पहुँच न सके और गर्भाधान न हो सके। मन्त्र ३ में तो स्पष्ट कहा गया है कि 'मैं तेरी योनि के परले भग को इस ओर किये देता हूँ और इस ओर वाले भाग को परे की ओर(पर योनेर् अवरं ते कृणोमि मा त्वा प्रजाभि भून् मोत सूतुः । अस्वं त्वाप्रजसं कृणोम्यश्मानं ते अपिधानं कृणोमि। अ. ७.३६ (३५).३) । यह किसी शल्यचिकित्सा की विधि की ओर स्पष्ट संकेत है।
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