अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन
Atharvveda's medical science |
कृमियों से उत्पन्न रोगों की चिकित्सा
अथर्ववेद में क्रमियों के दो प्रकार बताए गए हैं।
१. आँखों से दिखाई न देने वाले (अदृष्ट), और
२. जिन्हें हम अपनी आँखों से देख सकते हैं (दृष्ट) (अ. २.३१.२) ।
आंतों, सिर और पांसुओं को क्रिमियों के निवास स्थान बताया गया है। ये क्रिमि पर्वतों, वनों, वनस्पतियों, पशुओं और जलों में भी रहते है और वहीं से हमारे शरीरों में प्रवेश करते हैं (अन्वान्त्र्यं शीर्षण्यम् अथो पार्ष्णेयं क्रीमीन्। अ. २.३१.४ । ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुष्वप्स्वन्तः । अ. २.३१.५)। इनके अलमण्ड छलन आदि नामों का भी उल्लेख हुआ है। किमि पर आंखों वाले, चितकबरे, श्वेत वर्ण वाले और सब प्रकार के रूपों वाले बताए गए हैं(विश्वरूपं चतुरक्षं क्रिमिं सारङ्गम् अर्जुनम् । अ. २.३२.२)। सूर्य को इन क्रिमियों का सबसे बड़ा विनाशक बताया गया है। सूर्य की महान् चक्की सब प्रकार के क्रिमियों को इस प्रकार पीस डालती है, जिस प्रकार चक्की से चनों को पीस दिया जाता है(इन्द्रस्य या मही दृषत् क्रिमेर् विश्वस्य तर्हणी । तया पिनष्मि सं क्रिमीन् दृषदा खल्वाँ इव ।। अ. २.३१.१) । सूर्य उदित होता हुआ भी और अस्त होता हुआ भी, सभी अवस्थाओं में, पृथिवी अथवा पशुओं में स्थित क्रिमियों का अपनी रश्मियों से नाश कर देता है(उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः | ये अन्तः क्रिमयो गवि ।। अ. २.३२.१ )। सर्वद्रष्टा, अदृष्ट क्रिमियों का हन्ता सूर्य पूर्व से उदित होकर आकाश में चमकता हुआ पर्वत आदि सब स्थानों के क्रिमिरूपी राक्षसों को नष्ट कर डालता है(अ. ६.५२.१ )।
सूर्य की तरह अग्नि भी क्रिमियों का विनाशक है। अर्थ. ५.२९ में अग्नि को भिषक् और भेषज का कर्ता कहा गया है (१) । उससे प्रार्थना करते हुए कहा गया है- हे अग्ने ! क्रिमिरूपी पिशाचों द्वारा इस मनुष्य का जो कुछ छीन लिया गया है, लूट लिया गया है, उसकी तू आपूर्ति कर दे, इसके मांस और प्राणों को तू वापस ला दे (५) । जिस मांसभक्षी जीवाणु ने कच्चे, भली प्रकार पके हुए, आधे पके आधे कच्चे, और अधिक पके हुए मेरे भोजन में प्रवेश करके मुझे हानि पहुँचाई है (६) जिस मांसभक्षी जीवाणु ने दूध में और उससे बनी छाछ में, अकृष्टपच्य भोजन और अनाज में प्रवेश करके (७), जलों के पान में, क्रिमियों के बिस्तरे में सोते हुए को मुझे हिंसित किया है (८), कच्चे मांस को खाने वाले, रक्त को पी लेने वाले और चित्त की हानि करने वाले उस क्रिमि का तू हनन कर दे। बलवान् इन्द्र उसे अपने वज्र से मार डाले और धर्षक सोम इसका सिर काट डाले (१०)। हे यज्ञाग्ने ! तू सज्जनों को कष्ट देने वाले रोगाणुओं का सदा संहार करता आया है। आसुरी शक्तियाँ भी तुझे संघर्षों में पराजित नहीं कर सकी हैं। अब तू रोगी के कच्चे मांस को खाने वाले इन रोगाणुओं को समूल नष्ट कर दे। तेरे दिव्य अस्त्र से कोई भी बच न पाए (११)। हे सभी उत्पन्न पदार्थों में व्याप्त अग्ने । इस रोगी का रक्त, मांस, स्वास्थ्य आदि जो इन रोगाणुओं के द्वारा रोग उत्पन्न करके छीन लिया गया है, परे कर दिया गया है, उसे तू वापस ला दे। इसके शरीर के अंग पुष्ट हो जाएँ। यह मनुष्य शरीर में इस प्रकार भर जाए, जिस प्रकार जल में डाली हुई सोम की शाखा फूल जाती है, अथवा चन्द्रमा (सोम) की किरणें (अंशवः) शुक्लपक्ष में बढ़ती ही जाती हैं (१२)।
अथर्ववेद में चार ऋषियों के नाम पर क्रिमियों के विनाश के लिये चार विधाओं का वर्णन है(अत्रिवद् वः क्रिमयो हन्मि कण्ववज् जमदग्निवत्। अगस्त्यस्य ब्रह्मणा सं पिनष्म्यहं क्रिमीन्।। अ. २.३२.३) । यहाँ अत्रि, कण्व, जमदग्नि और अगस्त्य के विज्ञान (ब्रह्म) के द्वारा क्रिमियों के हनन की बात कही गई है। किमियों के विनाश की ये विधाएँ एक-दूसरे से भिन्न रही होंगी और सर्वत्र अथवा भिन्न-भिन्न प्रदेशों में इनका प्रचलन रहा होगा।
Treatment of diseases caused by worms
Two types of Krumis have been mentioned in Atharvaveda.
1. invisible to the eyes, and
2. Which we can see with our eyes (Drishta) (A. 2.31.2).
The intestines, head and legs have been said to be the habitat of worms. These Krimi also live in the mountains, forests, vegetation, animals and waters and enter our bodies from there (Anvantryam Shirshanyam Atho Parshneyam Krimiin. A. 2.31.4. Ye Krimayah Parvateshu Vaneshvoshadheeshu Pashushvapswantah. A. 2.31. .5). Their names like Almond Chalan etc. have also been mentioned. They are described as having eyes, spotted, white and having all types of forms (Vishvarupam Chaturakshan Krimin Sarangam Arjunam. A. 2.32.2). Sun has been described as the biggest destroyer of these insects. The great mill of the Sun grinds all types of worms in the same way as gram is ground by a mill (Indrasya or Mahi Drishat Krime Vishwasya Tarhani. Taya Pinashmi Sam Krimeen Drishada Khalvaan Iva. A. 2.31.1 ). The Sun, both while rising and setting, in all its stages, destroys the Krimis present on the earth or in the animals with its rays (UdyannadityaH Krimin Hantu Nimrochan Hantu RashmibhiH | Ye Antah Krimayo Gavi. A. 2.32.1 ). The all-seeing, hunter of invisible creatures, the Sun, rising from the east and shining in the sky, destroys the insect-like demons of all places like mountains etc. (A. 6.52.1).
Like the Sun, Agni is also the destroyer of criminals. Meaning. In 5.29, Agni has been called the giver of alms and medicines (1). While praying to him, it has been said – O Fire! Whatever has been snatched and looted from this man by the devils in the form of snakes, you should supply it, you should bring back his flesh and life (5). The carnivorous bacteria which has harmed me by entering into my food - raw, well-cooked, half-cooked, half-raw and over-cooked (6) The carnivorous bacteria which has entered into milk and the buttermilk made from it, undigested food and grains. (7) You have caused me violence by drinking water, sleeping in the bed of worms. (8) You destroy that worm which eats raw flesh, drinks blood and destroys the mind. May the mighty Indra kill him with his thunderbolt and may the dashing Soma cut off his head (10). O sacrificial fire! You have always been killing the germs that cause trouble to gentlemen. Even demonic powers could not defeat you in conflicts. Now you completely destroy these germs that eat the raw flesh of the patient. No one should escape from your divine weapon (11). O fire that pervades all created things. You bring back the blood, flesh, health etc. of this patient, which have been snatched away by these germs by causing the disease. May its body parts become strong. This fills the human body in the same way as a branch of Soma (Soma) planted in water swells, or the rays (Anshavah) of the Moon (Soma) keep increasing in the Shuklapaksha (12).
In the Atharva Veda, four methods for the destruction of the Krimis are described in the names of four sages (Atrivad vah Krimayo Hanmi Kanvavaj Jamadagnivat. Agastyasya Brahmana Sam Pinashmyaham Krimin. A. 2.32.3). Here the destruction of the Krimis by the science (Brahm) of Atri, Kanva, Jamadagni and Agastya has been said. These methods of destruction of kilometers must have been different from each other and must have been prevalent everywhere or in different regions.
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