मणिचिकित्सा (Gem healing or gem therapy)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
By -

 

अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन

Medical science in the Atharva Veda: A Study
(सूरज कृष्ण शास्त्री)

Medical science in atharvveda
Atharvveda's medical science

मणिचिकित्सा

(Gem healing or gem therapy)

     पीछे कहा जा चुका है कि कौशिकसूत्र, सायण और पाश्चात्य विद्वानों ने मणि का अर्थ ताबीज़ (amulet) किया है। परन्तु इसका मूल अर्थ 'jewel, gem' है। इसे शोभा और उत्साहवर्धन के लिये अलंकार या गहने के रूप में धारण किया जाता था। अलङ्कार शब्द का अर्थ भी 'समर्थ बनाने वाला' (अलं समर्थं करोतीति अलङ्कारः) है। आभरण शब्द का अर्थ भी 'बाहर से कुछ लाकर भरने वाला, रिक्तता को पूरने वाला' (आनीय भरतीति आभरणम्) है। एक मन्त्र में कहा गया है जो मनुष्य मणि को धारण करता है, वह बघेरा हो जाता है, वह सिंह हो जाता है, वह सांड हो जाता है और वह अपने शत्रुओं को नष्ट करने वाला हो जाता है(अ. ८.५.१२) । एक अन्य मन्त्र में कहा है- मणि सहस्रों शक्तियों वाला है, देवों अथवा वैद्यों ने इसे अपना वर्म बनाया है( मणिं सहस्रवीयं वर्म देवा अकृण्वत । अ. ८.५.१४) । इससे सिद्ध होता है, कि मणि दोहरा कार्य करता है, एक तो धारण करने वाले की शोभा को बढ़ाता है, और दूसरे उसके उत्साह, धैर्य और मनोबल को बढ़ाकर उसे शत्रुओं और रोगों पर विजय प्राप्त करने वाला बना देता है। इस लिये मणियों के प्रयोग को मनोवैज्ञानिक चिकित्सा और औषधीय चिकित्सा दोनों ही श्रेणियों के अन्तर्गत रखा जा सकता है।

     सर्वप्रथम लोगों ने शोभा के लिये मणि को धारण करना शुरू किया होगा, तत्पश्चात् सोना, चाँदी, ताम्र आदि ने उसका स्थान लिया होगा और फिर शनैः-शनैः औषिधि और वृक्षों की लकड़ी आदि की बारी आई होगी। यहाँ यह बात भी स्मरणीय है कि ये मणियाँ चाहे सुवर्ण आदि धातुओं से बनी हों और चाहे ओषधि या वृक्षों की लकड़ी आदि से, इनमें शोभा और मनोबल आदि को बढ़ाने के अतिरिक्त मनुष्य के शरीर में अनेक विशेष प्रभावों को उत्पन्न करके रोगों को नष्ट करने का गुण भी है। रोगनिवारक जो गुण धातु और ओषधि या वनस्पति में होता है, वही गुण उनसे बनी मणियों में भी आ जाता है। 

    हिरण्य अथवा सुवर्ण सब धातुओं में सर्वाधिक आकर्षक, मूल्यवान् और गुणकारी धातु मना जाता है। प्राचीन काल से स्त्रियाँ और पुरुष इसे धारण करते आ रहे हैं। यह उनकी शोभा को बढ़ाने के अतिरिक्त उनके अनेक रोगों को भी दूर करता है। अथर्ववेद के एक से अधिक सूक्तों में इसे धारण करने के लाभों का वर्णन हुआ है। एक मन्त्र में कहा है जिस कमनीय सुवर्ण को प्रसन्नमना, बलशाली जन अमित तेज की प्राप्ति के लिये सदा से बाँधते आए हैं, हे बल की कामना वाले मनुष्य। उसे मैं आयु, तेज, बल और सौ शरत्कालों वाले दीर्घ जीवन के लिये तुझे बाँधता हूँ(अ. १.३५.१) । आगे कहा है- यह सुवर्ण देवों का सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ तेज है। राक्षस और पिशाच अर्थात् विविध रोग और उनको उत्पन्न करने वाले क्रिम एवं रोगाणु देवों के इस तेज को अभिभूत नहीं कर सकते। जो मनुष्य इस बलशाली हिरण्य को धारण कर लेता है, वह जीवधारियों में अपनी आयु को बढ़ा लेता ह(अ. १.३५.२) । एक सूक्त में गर्भ धारण करने और पुत्र की प्राप्ति के लिये स्त्री की कलाई या पोंहचे में परिहस्त (सुवर्ण आदि धातु से बनी पोंहची अथवा कंगन) धारण कराने की बात कही गई है। अदिति ने पुत्र की कामना से परिहस्त को धारण किया था। त्वष्टा ने इसे उसके हाथ पर बाँधा था, ताकि वह पुत्र को जन्म दे(अ. ६.८१) । 

   अथर्ववेद में एक दर्जन से अधिक मणियों का वर्णन हुआ है। यहाँ कुछ बहुत प्रसिद्ध मणियों का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है  -

१. जंगिड मणि- 

   अथर्ववेद के एक मन्त्र में कहा है कि प्राचीन ज्ञानी वैद्य इसे अङ्गिरा नाम से जानते थे(अ. १९.३४.६) । जंगिड मणि जंगिड नाम के वृक्ष की लकड़ी से बनती थी। इस मणि को धारण करने से शरीर को पूरी और बुरी तरह से तोड़ देने वाले रोग, बलगम, पसलियों का रोग और शरत्काल में आने वाला ज्वर शक्तिहीन होकर नष्ट हो जाता है(आशरीकं विशरीकं बलासं पृष्ट्यामयम् । तक्मानं विश्वशारदम् अरसां जङ्गिडस् करत् ।। अ. १९.३४.१०) । इसे दीर्घ आयुष्य, महान् सुख, उत्तम बल देने वाला और दन्तपीड़ा, शारीरिक कृशता, मानसिक रोग को दूर करने वाला एवं सर्वरोगभेषज बताया गया है(अ. २.४) । एक मन्त्र में कहा है कि जंगल से लाया जाने वाला जंगिड और खेत में उगने वाला सन (शण) ये दोनों मिलकर विष्कन्ध रोग से रक्षा करते हैं(अ. २.४.५ ) ।

२. पर्णमणि -

    पर्णमणि का वर्णन अथर्ववेद के काण्ड ३, सूक्त ५ में मिलता है। पर्ण ढाक को कहते हैं। पर्णमणि ढाक के वृक्ष की लकड़ी से बनती थी। पर्ण को सोम का विजेता उग्र बल कहा गया है(अ. ३.५.४)। यह पर्णमणि बल, तेज और वर्चस् को देने वाली है। जो मनुष्य इसे धारण करता है वह बलवान् और धनवान् हो जाता है। वह राज्य के अभिजात वर्ग में श्रेष्ठ हो जाता है। यह धारक को शत्रुनियन्ता, बलवान् और ज्ञानी से भी बढ़ा हुआ बना देती है। एक मन्त्र में प्रार्थना की गई है कि हे पर्णमणि तू मुझे बुद्धिमान् रथकारों, कार्यकुशल लोहार आदि कर्मियों को मेरे चारों ओर बैठने वाला बना दे(अ. ३.५.६) । अगले मन्त्र में कहा गया है जो राजा लोग हैं, जो राजाओं का चयन करने वाले हैं, जो सारथि हैं और जो ग्रामप्रधान अथवा सेनापति हैं, उन सब को भी मेरे चारों ओर बैठने वाले बना दे(ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश् च ये । उपस्तीन् पर्ण मह्यं त्वं सर्वान् कृण्वभितो जनान् ॥ अ. ३५.७) । इस समस्त वर्णन से पता चलता है कि पर्णमणि को प्रायः राजाओं के द्वारा धारण किय जाता होगा।

३. दर्भमणि - 

   दर्भमणि का वर्णन अथर्ववेद के काण्ड १९ के सूक्त २८-३०,३२,३३ में उपलब्ध है। दर्भ (दाभ) कुशा का नाम है। अतः कुशा से बनने वाली मणि का नाम दर्भमणि है। दर्भ को सपत्नदम्भन (वैरियों का दमन करने वाला) कहकर इसके निर्वचन की ओर संकेत किया गया है(अ. १९.२८.१) । इसे दीर्घ आयु, तेज, शत्रुदमन और वैरियों के हृदयों को तपाने के लिये बाँधा जाता है।. एक मन्त्र में दर्भमणि से वैरियों, आक्रमणकारियों, दुर्भावना रखने वालों और द्वेष करने वालों को बीँध डालने की प्रार्थना की गई है(अ. १९.२८.१०) । सूक्त २९ में इन वैरियों आदि को चीर डालने, फाड़ डालने, रोक देने, मार डालने, कुचल डालने, मथ डालने, पीस डालने, तपा देने, जला डालने और नष्ट कर डालने की गुहार लगाई है। सूक्त ३० के अन्तिम मन्त्र में कहा है कि जलों का भण्डार पर्जन्य जब विद्युत् के साथ गर्जा, तो उससे एक सुवर्णिम बूँद टपक पड़ी। उससे दर्भ का जन्म हुआ(यत् समुद्रो अभ्यक्रन्दत् पर्जन्यो विद्युता सह । ततो हिरण्ययो बिन्दुस् ततो दर्भो अजायत ।। अ. १९.३०.५) । दर्भ सैंकड़ों काण्डों वाली, नीचे न गिरने वाली, हज़ारों पत्तों वाली, ऊपर को बढ़ने वाली और उग्र ओषधि है। इसे दीर्घ आयु के लिये बाँधा जाता है(अ. १९.३२.१) । इस दर्भ ओषधि को धारण करने से मनुष्य ब्राह्मणों क्षत्रियों, शूद्रों, आर्यों और सब देखने वालों के लिये प्रिय हो जाता है(अ. १९.३२.८) । दर्भ अपने ओज से भूमि का अतिक्रमण करती है। वह सुन्दर बनकर यज्ञ के अन्दर वेदि पर आसीन होती है। इसे पवित्र जानकर ऋषियों ने अपने शरीर पर धारण किया। यह पापों को हमसे दूर करके हमें पवित्र बना देती है(अ. १९.३३.३) ।

 ४. औदुम्बरमणि - 

    उदुम्बर वृक्ष की लकड़ी अथवा पत्तों से बनने वाली मणि को औदुम्बरमणि कहा जाता था। औदुम्बरमणि के गुणों का वर्णन केवल काण्ड १९ के सूक्त ३१ में हुआ है। इस मणि को वीरता के गुण से सम्पन्न बताया गया है, और कहा है कि इसे वीर पुरुष को ही बांधा क्षुधा जाता है। औदुम्बरमणि को सब मणियों का स्वामी बताया गया है। पुष्टपति ने इसमें पौष्टिकता भरी है। यह सब प्रकार के धन और बल देने वाली है। यह धारक से कंजूसी, बुद्धिहीनता और को दूर भगा देती है। यह मणिसमूह की नेता है। यह अभिषिक्त होकर तेज से सींचती है। यह तेज, धन और पुष्टि है और धारक को भी तेज धन और पुष्टि प्रदान करती है। पुष्टि की कामना वाले के गोष्ठ में सविता देव सब प्रकार के पशुओं की वृद्धि कर देते हैं। इसको धारण करने वाले के घर को बृहस्पति और सविता पशु आदि चोपायों, पुत्रपौत्र आदि दोपायों, धान्य, गौओं के दूध और औषधियों के रस से भर देते हैं। वह वीर सन्तानों वाला हो जाता है(अ. १९.३१) ।

५. वरणमणि - 

वरण वृक्ष से बनने वाली मणि का नाम वरणमणि है। वरण वृक्ष को है। विषनिवारक बताया गया है। एक मन्त्र में कहा है कि जो नदी वरण वृक्षों के वन में से गुजरती है, उसका जल वृक्ष की जड़ों, तनों, पत्तों आदि के सम्पर्क में आने से विष को हरने वाला हो जाता है(अ. ४.७.१) । वरणमणि का वर्णन अथर्ववेद के मण्डल १०, काण्ड ३ में हुआ सूक्त में २५ मन्त्र हैं। सूक्त में बार-बार यह संकेत दिया गया है, कि वारणकर्म में समर्थ होने के कारण इसे वरण कहा गया है (वरणो वारयिता, वरणो वारयिष्यते। वरण विश्वभेषज (सब रोगों को दूर करने वाला) है। यह (रोगादि) शत्रुओं को धराशायी कर देता है और द्वेषकर्ताओं का दमन कर डालता है(अ. १०.३.३) । इसमें जो रोगांश प्रविष्ट था उसे देवों ने दूर कर दिया है, इसलिये यह दिव्य गुणों वाला वृक्ष वरण रोगों का निवारण करने वाला हो गया है(अ. १०.३.५) । जो पाप या दोष मनुष्य स्वयं करता है, जिसे उसके माता, पिता और भाई करते हैं, धारण को हुई यह दिव्य वरणमणि उसे दूर कर देती है(अ. १०.३.८)  । यह वरणमणि मनुष्य को अक्षुण्ण, अहिंसित गौओं वाला और सब पुरुषों वाला बना देती है, एवं दश दिशाओं में उसकी रक्षा करती है(अ. १०.३.१०) । यह राज्य, बल, पशुओं और ओज को देने वाली है। प्रार्थना की गई है कि जिस प्रकार सूर्य प्रखरता से चमकता है और जिस प्रकार इसमें तेज स्थित है, उसी प्रकार यह वरणमणि मुझे कीर्ति और यश प्रदान करे, तेज से सींचे और यश से युक्त करे(अ. १०.३.१७) । जिस प्रकार चन्द्रमा और नरद्रष्टय आदित्य में यश है, जिस प्रकार पृथिवी और अग्नि में यश है, जिस प्रकार कन्या और उसके वाहक रथ में यश है, जिस प्रकार सोमपान और मधुपर्क में यश है, जिस प्रकार अग्निहोत्र और वषट्कार में यश है, जिस प्रकार यजमान और उसके यज्ञ में यश है, जिस प्रकार बजापति और परमेष्ठी में यश है, उसी प्रकार वरणमणि मुझे कीर्ति और ऐश्वर्य प्रदान करे, तेज सींचे और यश से युक्त करे(अ. १०.३.१८-२४) ।

६. अस्तृतमणि - 

   अस्तृत का अर्थ है 'अपराजित, अनश्वर'। इससे इस मणि की शक्तिमत्ता का बोध होता है। यह मणि किस वृक्ष, ओषधि अथवा धातु से बनती थी, इसका यहाँ कोई संकेत नहीं है। परन्तु इसे घृत से लीपा हुआ और मधु तथा दूध से युक्त किया हुआ बताया गया है। यहीं इसे सहस्र प्राणों वाला, सौ योनियों वाला, आयु को देने वाला, शान्ति और सुख को उत्पन्न करने बाला, ऊर्जा, दुग्ध आदि को प्राप्त कराने वाला और अपराजित बताया गया है(अ. १९.४६.६) । इसे दीर्घायु, ओज, तेज और बल के लिये बाँधा जाता है। यह रक्षा करता हुआ सावधानी के साथ खड़ा रहता है। पणि और यातुधान इसे दबा नहीं सकते। यह आक्रमणकारियों को इस प्रकार झझकोर देता है, जिस प्रकार इन्द्र दस्युओं को। यह रोग आदि सब शत्रुओं को पराजित कर देता है(अ. १९.४६.२) । इस मणि में एक सौ एक बल हैं और इस अपराजेय मणि में एक हज़ार प्राण हैं। हे मणे! तू रोग आदि सब शत्रुओं के सामने बघेरे की तरह डट जा। जो तुझपर आक्रमण करे वह धराशायी हो जाए(अ. १९.४६.५) ।

७. शङ्खमणि -

   शङ्ख का भी मणि के रूप में प्रयोग होता था। शङ्ख रोचमान वस्तुओं में मुख्य है और समुद्र से उत्पन्न होता है परन्तु दृष्टिलों को लाने वाले वायु, अन्तरिक्ष, विद्युत् आदि को भी इसका जन्मस्थान बताया गया है। इसके द्वारा रोगरूपी राक्षसों और शरीर को खा जाने वाले रोगाणुओं को नष्ट करके हम दुःखों पर विजय प्राप्त करते हैं(अ. ४.१०.१-२) । शङ्खमणि को धारण करने से रोगों और अज्ञान पर विजय प्राप्त की जा सकती है। यह सब रोगों का औषध (विश्वभेषज) है। इससे अत्यधिक क्रन्दन कराने वाले रोगों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। दिव्य गुणों वाला होने के कारण इस शङ्ख को ह्युलोक से उत्पन्न होने वाला कहा जाता है। वस्तुतः इस का जन्म समुद्र में होता है। लोग इसे समुद्र के अन्दर से ढूंढकर धरती पर लाते हैं। बहुत ही कमनीय होने के कारण हिरण्य से उत्पन्न कहा जाने वाला यह शङ्ख हम मनुष्यों के लिये हमारे रोगों को नष्ट करके आयु को बढ़ाने वाला मणि है(अ. ४.१०.४) । यह शङ्खरूपी मोती इतना चमकीला और आकर्षक है, कि यह देवों की हड्डी जैसा दिखाई देता है। यह अपने जीवधारी कीट के साथ अन्य जीवधारियों की तरह जलों के अन्दर विचरण करता है। हे रोगी! मैं वैद्य आयु, तेज और बल प्रदान करने के लिये और सौ शरद् ऋतुओं वाले दीर्घ जीवन की प्राप्ति के लिये इसे तुझे बाँधता हूँ। यह मुक्ताविकार तेरी सब ओर से रक्षा करे(अ. ४.१०.७) ।

८. प्रतिसरमणि - 

अथर्ववेद में इसे स्राक्त्यमणि अर्थात् स्रक्त्य वृक्ष की लकड़ी से बनने वाली मणि बताया गया है। इसके नाम से पता चलता है, कि यह रोगों और शत्रुओं पर आक्रमण करने वाली एक अत्यन्त प्रभावशाली मणि है। इसका वर्णन केवल काण्ड ८, सूक्त ५ में ही हुआ है। यह वीर मणि है, इसलिये वीर पुरुष को ही बाँधी जाती है। इन्द्र ने इस मणि से वृत्र को मारा, असुरों को पराभूत किया, की पृथिवी और चारों दिशाओं को जीता। पुरुष इसे कवच के रूप में धारण करते हैं। यह सब प्रकार की कृत्याओं का विनाश करने वाली है। यह गतिमानों में बैल की तरह और वन्य पशुओं में बाघ की तरह, ओषधियों में श्रेष्ठ है। जो इस मणि को धारण करता है, वह बाघ, सिंह, सांड और शत्रुओं का हन्ता हो जाता है( अ. ८.५.१२) । अप्सराएँ, गन्धर्व और मनुष्य उसको हिंसित नहीं कर सकते। वह सब दिशाओं का स्वामी हो जाता है(अ.४.१०.१३) ।

९. शतवार मणि- 

     अथर्ववेद में इस बात का कोई संकेत नहीं है, कि यह मणि किस वृक्ष अथवा वस्तु से बनती थी। परन्तु इसके नाम से पता चलता है, कि यह या तो सैंकड़ों बालों (वार) वाली है, अथवा यह सैंकड़ों रोगों का निवारण करने वाली है - -वृञ् आवरणे(द्रः शतवारः शतं वारा मूलानि शूका वा यस्य स शतवारः । यद्वा शतसंख्याकान् रोगान् निवारयतीति शतवार: (शतवारेण वारये १९.३६.१) । सा.) । हिन्दी भाषा में इसे शतावर के नाम से जाना जाता है। अर्श आदि गुप्त रोगों को भगाने वाली यह मणि अपनी तेजस्विता को धारण करके रोगरूपी राक्षसों (यक्ष्मान् रक्षांसि ) को नष्ट कर देती है(शतवारो अनीनशद् यक्ष्मान् रक्षांसि तेजसा । आरोहन् वर्चसा सह मणिर् दुर्णामचातनः।। अ. १९.३६.१) । यह सींग जैसे अपने अग्र भागों से राक्षस अर्थात् बड़े रोग को, जहाँ से छोटे रोगों (यातुधान्य) को और तने से यक्ष्मा को दूर कर देती है, तथा रोगों के कारणभूत पाप को नष्ट कर देती है(अ. १९.३६.२) । जो छोटे रोग हैं और जो क्रन्दन कराने वाले बड़े रोग हैं, गुप्तरोगविनाशक यह शतवारमणि सबको नष्ट कर देती है।

१०. अभीवर्तमणि - 

   इस मणि का वर्णन अथर्ववेद काण्ड १, सूक्त २९ में हुआ है। अभीवर्तमणि एक ऐसी मणि है जिसे चक्रवर्ती राज्य की प्राप्ति के लिये राजा को पुरोहित के द्वारा बाँधा जाता था। सूक्त में ६ मन्त्र हैं। मन्त्र १,४-६ में राजा का वचन है और मन्त्र २-३ में पुरोहित का वचन है। राजा कहता है हे वेदज्ञान के पालक पुरोहित (ब्रह्मणस्पते) ! यह अभिवर्त नामक मणि जो राजचिह्न के रूप में मान्यताप्राप्त है, जिसे सर्वप्रथम इन्द्र ने बाँधकर विजय प्राप्त की थी, और जिससे वह अभिवृद्धि को प्राप्त हुआ था, तू इसको मुझे भी बाँध दे, और इस प्रकार मुझसे राष्ट्र की अभिवृद्धि करा पुरोहित कहता है हे राजन् मैं तुझे अभिवर्त मणि बांधता हूँ, जिससे तू हमारे परम्परागत राज्य को बैटवाने वालों को, हमें हमारी अधिकृत सम्पति न देने वालों को, हमपर बाहर से आक्रमण करने वालों को और हमारा बुरा चाहने वालों को सब ओर से घेरकर उनपर काबू पा लेगा(अ. १.२९.२) । हे राजन्! सर्वोत्पादक और आनन्दस्वरूप परमेश्वर तेरी सब ओर से अभिवृद्धि करे। सब प्रजाएँ तेरी सब ओर से अभिवृद्धि करें। इस प्रकार तू अपने रथ पर चढ़कर पृथिवी पर सब ओर गति करने वाला चक्रवर्ती सम्राट् हो जाएगा(अ. १.२९.३) । राजा कहता है- हे पुरोहितवर! तेरी ऐसी दृष्टि हो जाए कि मैं इस मणि के बाँधने से विरोधियों का विनाश करने वाला, प्रजाओं पर सुख की वर्षा करने वाला, राज्य का भली प्रकार पालन करने वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला, वीर सैनिकों और प्रजा जनों के मध्य विशेषेण चमकने वाला, यशस्वी हो जाऊँ(अ. १.२९.६) 

११. फालमणि - 

    यह मणि खदिर पेड़ से बने फाले से बनती थी। यह मणि कवच का काम करती है और धारण करने वाले को तेज प्रदान करती है। जिस फालमणि को बृहस्पति ने उग्र ओज के लिये धारण किया था, उसे अग्नि ने अन्य के लिये, इन्द्र ने ओज और वीर्य के लिये, सोम ने अधिक श्रवणशक्ति और दर्शनशक्ति के लिये,सूर्य ने दिशाओं को जीतने के लिये, चन्द्रमा ने असुरों और दानवों के विजय के लिये, वैद्य का कर्म करने वाले दोनों अश्वियों ने कृषि की रक्षा के लिये, सविता ने सूनृता वाणी के लिये, जलों ने अमृतत्व की प्राप्ति के लिये, राजा वरुण ने सत्य के दोहन के लिये, और देवों ने सब लोकों को जीतने के लिये, धारण किया(अ.१०.६.६-१७) । ऋतुओं ने, तुमसे पनपने और संवत्सर ने भूतों की रक्षा के लिये इसे दिशाओं और प्रदिशाओं ने इसे बाँधा और इसने वैरियों को धारक के अधीन किया। अथर्वाओं ने, आथर्वणों ने इसे बाँधा और अङ्गिरसों ने इससे दस्युओं के पुरों का भेदन किया। धाता ने इसको पहना और भूतों की रचना की। धारक इससे अपने शत्रुओं का विनाश करता है(अ.१०.६.१८-२१) । असुरों की विनाशक जिस मणि को बृहस्पति ने धारण किया था, वह मणि बल और वर्चस् के साथ धारक के पास आ जाती है। वह गौओं बकरियों भेड़ो अन्न और सन्तति के साथ, व्रीहि और यवों के साथ, महान् ऐश्वर्य के साथ, मधु, घृत और दूध की धारा के साथ, ऊर्जा पेय धन और श्री के साथ, तेज बल यश और कीर्ति के साथ, सब भूतियों के साथ, धारक को प्राप्त हो जाती है(अ.१०.६.२२-२८) । यह मणि पुष्टि देने वाली, बलवर्धक और वैरियों का दमन करने वाली, ब्रह्मतेज और श्रेष्ठता को देने वाली, एवं अजातशत्रु और शत्रुहन्ता है। जिस प्रकार फाल से उर्वरा धरती को जोतने से उसमें बीज उगता है, उसी प्रकार इस फालमणि को धारण करने से सन्तति, पशुओं और प्रत्येक प्रकार के अन्न की प्राप्ति होती है(अ.१०.६.२९-३३) ।

१२. वैयाघ्रमणि - 

   अथर्ववेद के काण्ड ८, सूक्त ७ में विविध ओषधियों के वर्णन में वैयाघ्रमणि का भी उल्लेख हुआ है और कहा गया है कि यह मणि ओषधियों से बनती है। यह त्राण करने वाली और विनाश से बचाने वाली है। सब प्रकार के रोगों और रोगक्रिमियों को मारकर दूर भगा देती है(अ.८.७.१४) । व्याघ्र जैसी शक्ति रखने को कारण इसे वैयाघ्रमणि कहा जाता है। 

१३. त्रिवृत् मणि - 

  काण्ड ५, सूक्त २८ में सोने, चाँदी और लोहे के तीन-तीन तारों से बनी ३ लड़ियों वाली त्रिवृत् मणि से सुखी और दीर्घ जीवन की प्राप्ति का विशद वर्णन है।

  इस प्रकार हम देखते हैं कि अथर्ववेद चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन करने वाला अतिप्राचीन ग्रन्थ है न कि पाश्चात्यों के द्वारा बताया गया कोई जादू-टोने का ग्रन्थ है । 


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