अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन
Atharvveda's medical science |
मनोवैज्ञानिक चिकित्सा
एक पुरानी कहावत है। 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' यदि मनुष्य मन से हार जाए, तो वह संसार मे कुछ भी नहीं कर सकता। परन्तु यदि मनुष्य के मन में जोश और उत्साह है, तो ऐसा कोई भी काम नहीं, जिसे वह कर न सके। अच्छे डाक्टर और वैद्य लोग अपने रोगी का मनोबल कभी कम नहीं होने देते। वे उसके उत्साह को हमेशा बढ़ाते ही रहते हैं। वे अपने रोगी का आधा रोग तो अपनी बातों और अपने व्यवहार से ही दूर कर देते हैं। देखिये अथर्ववेद काण्ड ५, सूक्त ३० में ज्ञानी वैद्य अपने मरणासन्न मरीज़ के भी मनोबल को बढ़ाकर किस प्रकार उसे धैर्य बँधा रहा है- हे रोगी! तू अपने पूर्व पितरों के पीछे मत जा । मैं तेरे प्राणों को दृढ़ता से तेरे शरीर में बाँधता हूँ(मा पूर्वान् अनु गाः पितॄन् असुं बध्नामि ते दृढम् । अ. ५.३०.१ )। तू रोगनिवारक औषध का सेवन कर। मैं तुझे बुढ़ापे तक जीने वाला बनाता हूँ( प्रत्यक् सेवस्व भेषजं जरदष्टिं कृणोमि त्वा । अ. ५.३०.५)। मत डर, तू मरेगा नहीं, मैं तुझे बुढ़ापे की अवस्था पर्यन्त जीने वाला बनाए देता हूँ। मैंने अपने आदेश से तेरे अङ्गों से रोग को और अङ्गवरों को निकालकर बाहर कर दिया है(मा बिभेर् न मरिष्यसि जरदष्टिं कृणोमि त्वा । निर् अवोचम् अहं यक्ष्मम् अङ्गेभ्यो अङ्गज्वरं तव।। अ. ५.३०८) । जो तेरे अंगों की टूटन, तेरे अंगों का ज्वर और तेरे हृदय का रोग है, वह मेरे आदेश से पराभूत होकर श्येन पक्षी की तरह दूर उड़ गया है(अङ्गभेदो अयश् च ते हृदयामयः। यक्ष्मः श्येनइव प्रापप्तद् वाचा साढः परस्तराम् ।। अ. ५.३०.९) । हे रोगी मैं तुझे आश्वस्त करता हूँ, तेरा प्राण नष्ट नहीं होगा, और न ही तेरा अपान लुप्त होगा। सब जगत् का पालक सूर्य तुझे अपनी रश्मियों से ऊपर उठा लेगा, तुझे मृत्यु से बचा लेगा(मा ते प्राण उप दसन् मो अपानो ऽपि धायि ते । सूर्यस् त्वाधिपतिर् मृत्योर् उदायच्छतु रश्मिभिः ।। अ. ५.३०.१५) । यह भूलोक अत्यन्त प्रिय और रहने के योग्य है। देव भी यहाँ रहने के लिये इसे प्राप्त नहीं कर पाए। हे मनुष्य । जिस मृत्यु के लिये आदिष्ट हुआ तू यहाँ इस लोक में उत्पन्न हुआ है, अर्थात् यहाँ उत्पन्न होकर जिस मृत्यु के मुँह में जाना तेरे लिये अनिवार्य है, वह मृत्यु और मैं तुझे पुकार पुकार कर कह रहे हैं, कि तू जरावस्था से पहले मृत्यु को प्राप्त मत हो। चिरकाल तक जीवित रह और इस लोक में जीवन का आनन्द प्राप्त कर(अयं लोकः प्रियतमो देवानाम् अपराजितः यस्मै त्वम् इह मृत्यये दिष्टः पुरुष जज्ञिषे । स च त्वानु ह्वयामसि मा पुरा जरसो मृथाः ।। अ. ५.३०.१७) । रोगी जनों के उत्साह, हिम्मत, हौसला और मनोबल को बढ़ाकर उन्हें रोगमुक्त करने वाले वैद्यजनों के इस प्रकार के उदात्त वचनों को ही कुछ लोगों ने जादू-टोने का नाम दे दिया है।
अथर्ववेद में काण्ड ४, सूक्त १३ में हस्तस्पर्श के द्वारा रोगनिवारण की विधि का वर्णन हुआ है। मै कहता है कि मेरा एक हाथ सौभाग्यशाली है, और दूसरा हाथ इससे भी अधिक सौभाग्यशाली है। यह मेरा एक हाथ ओषधियाँ देकर सब रोगों का निवारण करने वाला है, और यह दूसरा हाथ कल्याणकारी स्पर्श वाला है। इसके कल्याणकारी स्पर्श से तेरे सब रोग नष्ट हो जाएँगे(अयं मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः । अयं मे विश्वभेषजो ऽयं शिवाभिमर्शनः ।। अ. ४.१३.६) । रोगी के शरीर को हाथ से स्पर्श करने से उसके शरीर पर हाथ फैरने से, उसमें ऊर्जा का संचार हो जाता है, और उसका मनोबल बढ़ता है। इससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। अगले मन्त्र में वैद्य कहता है - हे रोगी। वाणी को आगे प्रसारित करने वाली जिह्वा से शब्दों को बोलकर, आरोग्य उत्पन्न करने वाले दस अंगुलियों वाले इन दोनों हाथों से मैं वैद्य तेरा स्पर्श करता हूँ। इस प्रकार स्पर्श करने से तू बिल्कुल नीरोग हो जाएगा(हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां वाचः पुरोगवी । अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ।। अ. ४.१३.७) । इस मन्त्र में जिला से ऊंचे और उत्साहवर्धक शब्द बोलकर उसके मनोबल को बढ़ाने और दोनों हाथों से स्पर्श करने से रोग को दूर करने की बात कही गई है। इस प्रक्रिया में रोगी में चिकित्सक और उसकी रोगनिवारण की योग्यता के प्रति गाढ़ श्रद्धा का होना भी अत्यावश्यक है। यदि रोगी में चिकित्सक के प्रति गाढ़ श्रद्धा नहीं होगी, तो रोग दूर नहीं होगा।
इसी सूक्त (४.१३) में प्राण और अपान नामक दो वायुओं का वर्णन भी हुआ है। प्राण बाहर के वायुमण्डल से शरीर के अन्दर आता-जाता है और बल का संचार करने वाला होता है। दूसरा अपान मलिन वायु को नीचे के मार्ग से बाहर निकालता है। यह भी स्वास्थ्य प्रदान करने वाला है। प्राण अपान रूपी ये दोनों वायुएँ रोगों का भेषज हैं और देवदूत बनकर हमें सुखी करते हैं( अ. ४.१३.२-३) ।
हाथ के स्पर्श से रोगनिवारण की शक्ति नित्य प्राणायाम, योगाभ्यास, ध्यान, हाथों और अंगुलियों की विशेष मुद्राओं का अभ्यास, तपोमय और पवित्र जीवन, आदि के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। किसी विशेष आसन में बैठकर या लेटकर गहरे लम्बे सांस अन्दर ले जाने और इसी प्रकार उन्हें बाहर निकालने का नाम प्राणायाम (प्राणों का संयम) है। इस प्रक्रिया का निरन्तर अभ्यास करने से दूसरे किसी जन को अपने विचारों वाला बनाना, उसे मोहित करना, हस्तस्पर्श के द्वारा उसके रोग दूर करना आदि सम्भव हो जाता है। इस प्रकार की योग्यता को सिद्धि या चमत्कार कहा जाता है। संसार के सभी धर्मों, संस्कृतियों और देशों के इतिहास में इस प्रकार की सिद्धियों और चमत्कारों का उल्लेख हुआ है। वर्तमान युग के मेस्मरिज्म और हिप्नोटिज़्म आदि भी इसी प्रकार की सिद्धियाँ हैं। ईसाई धर्म में जिस व्यक्ति को ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उसे सेंट (सन्त) की उपाधि दी जाती है। पिछले वर्ष ही मदर टेरेसा को सेंट की उपाधि मिली है। प्राचीन काल में भारत के ऋषि, मुनि और वैद्य भी प्राणायाम, योगाभ्यास आदि के द्वारा इस प्रकार की योग्यताएँ और सिद्धियाँ प्राप्त करते थे और स्पर्श आदि द्वारा रोगों को दूर कर देते थे। पातञ्जल योगदर्शन में भी योगी जनों को प्राप्त होने योग्य उनचास विभूतियों का वर्णन है। पाश्चात्य विद्वानों ने इन सिद्धियों को जादू-टोने की श्रेणी में रख दिया है।
There is an old saying. 'Man ke hare haar hai, man ke jeete jeet hai.' If a man loses his mind, he cannot do anything in the world. But if a person has zeal and enthusiasm in his mind, then there is no work which he cannot do. Good doctors and physicians never let the morale of their patients go down. They always keep increasing his enthusiasm. He cures half of his patient's disease just by his words and his behavior. See in Atharvaveda Kanda 5, Sukta 30, how the wise physician is giving patience to his dying patient by boosting his morale - O patient! Do not go after your ancestors. I bind your soul firmly in your body (ma purvaan anu gaah pitrna asum badhnami te dharham. A. 5.30.1). You take curative medicine. i make you live till old age
(Pratyak seva bheshanja jaradashti krinomi tva. A. 5.30.5). Don't be afraid, you will not die, I will make you live till old age. By my order, I have removed the disease and the germs from your body parts (ma bibhe na marishyasi jaradashtim krinomi tva nir avocham aham yakshmam angebhyo angjvaram tav. A. 5.308). The brokenness of your limbs, the fever of your limbs and the disease of your heart, have been defeated by my order and have flown away like a shy bird (Angbhedo ayash cha te hridyamayah. Yakshmah shyeniva prapattad vacha sadh parastraam. A. 5. 30.9). O patient, I assure you, your life will not be destroyed, nor will your apana disappear. The Sun, the guardian of the entire world, will lift you up with its rays, will save you from death (ma te prana up dasan mo apano śpi dhayi te. suryas tvadhipati mrityo udayachhatu rashmibhiḥ. A. 5.30.15). This earth is very dear and worthy of living. Even Dev could not get it to live here. Hey man. You have been born here in this world for the death for which you have been ordered, that is, the death which is inevitable for you to enter after being born here, that death and I am calling out to you and saying that you should attain death before old age. Don't be. Live long and enjoy life in this world (Ayam lokah priyatmo devanaam aparajitah yasmai tvam ih mrityaye dishtah purusha jagyishe. sa ca tvanu hvayamsi ma pura jaraso mruthaah. A. 5.30.17). Some people have termed such noble words of the physicians who cure sick patients by increasing their enthusiasm, courage, morale and morale as witchcraft.
In Atharvaveda, the method of curing diseases through hand touch has been described in Kanda 4 and Sukta 13. I say that one of my hands is lucky, and the other hand is even luckier. This one hand of mine is going to cure all the diseases by giving medicines, and this other hand is going to have a beneficial touch. All your diseases will be destroyed by its beneficial touch (Ayam me hasto bhagavan ayam me bhagavattarah. Aayam me vishwabheshjo yayam shivabhimarshanah. A. 4.13.6). Touching the patient's body with his hands, spreading his hands over his body, infuses energy into him and boosts his morale. This cures the patient's disease. In the next mantra the doctor says – O patient. By speaking the words through the tongue which spreads the voice, I touch you, the physician, with these two hands having ten fingers which generate health. By touching in this way you will become completely healthy (Hastabhyaam Dashashakhaabhyaam Vacah Purogavi. Anamayitnubhyaam Hastabhyaam Taabhyaam Tvabhi Mrishamasi. A. 4.13.7). In this mantra, it is said that by speaking loud and encouraging words to the child, it can boost his morale and by touching him with both the hands, the disease can be cured. In this process, it is also essential for the patient to have deep faith in the doctor and his ability to cure the disease. If the patient does not have deep faith in the doctor, the disease will not be cured.
In this Sukta (4.13) two winds named Prana and Apana have also been described. Prana comes and goes inside the body from the outside atmosphere and is the source of transmission of force. The second apan expels the dirty air from the lower passage. This is also health providing. These two winds in the form of Prana and Apana are the medicine for diseases and by becoming angels they make us happy (A. 4.13.2-3).
The power of healing diseases by the touch of hand can be obtained only through daily pranayama, yoga practice, meditation, practice of special postures of hands and fingers, tapasya and holy life, etc. Taking deep long breaths in while sitting or lying down in a particular posture and similarly exhaling them is called Pranayam (control of life). By continuously practicing this process, it becomes possible to make another person agree with your thoughts, to fascinate him, to cure his diseases through the touch of hands, etc. This type of ability is called Siddhi or Miracle. Such achievements and miracles have been mentioned in the history of all religions, cultures and countries of the world. Mesmerism and hypnotism of the present era are also similar achievements. In Christianity, the person who achieves such success is given the title of Saint. Only last year Mother Teresa received the title of Saint. In ancient times, the sages, sages and physicians of India also acquired such abilities and achievements through pranayama, yoga practice etc. and also cured diseases through touch etc. In Patanjala Yogadarshan also there is a description of forty nine personalities attainable by yogis. Western scholars have put these achievements in the category of magic.
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