हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा हिरण्याक्ष की दिग्विजय
मित्रों! आज हम सब हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के जन्म की कथा का श्रवण करेंगे । मैत्रेय जी कहते हैं —
Born of Hiranyaksh and Hiranyakashipu |
निशम्यात्मभुवा गीतं कारणं शङ्कयोज्झिताः।
ततः सर्वे न्यवर्तन्त त्रिदिवाय दिवौकसः।।
विदुरजी ! ब्रह्माजी के कहने से अन्धकार का कारण जानकर देवताओं की शंका निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्ग लोक को लौट आये।
इधर दिति को अपने पतिदेव के कथनानुसार पुत्रों की ओर से उपद्रवादि की आशंका बनी रहती थी इसलिये --
"पूर्णे वर्षशते साध्वी पुत्रौ प्रसुषुवे यमौ"
जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वी ने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये, उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में अनेकों उत्पात होने लगे—जिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये।
असमय में किये गए कामोपभोग के कारण दिति-कश्यप के यहाँ राक्षसों का जन्म हुआ।
महाप्रभुजी ने इस चरित्र के अंत में कश्यप के सर पर तीन दोष आरोपित किए है- कर्म त्याग,मौन त्याग,और स्थान त्याग।
सहाचला भुवश्चेलुः दिशः सर्वाः प्रजज्वलुः ।
स उल्काश्च अशनयः पेतुः, केतवश्चार्तिहेतवः ॥
जहाँ-तहाँ पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे, सब दिशाओं में दाह होने लगा, जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिरने लगीं और आकाश में अनिष्ट सूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी देने लगे, बार-बार सायँ-सायँ करती और बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ती हुई बड़ी विकट और असह्य वायु चलने लगी, ---
"उन्मूलयन् नगपतीन् वात्यानीको रजोध्वजः"
उसकी सेना और उड़ती हुई धूल ध्वजा के समान जान पड़ती थी, बिजली जोर-जोरसे चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओं ने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के लुप्त हो जाने से आकाश में गहरा अँधेरा छा गया, उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था।
समुद्र दुखी मनुष्य की भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची-ऊँची तरंगें उठने लगीं और उसके भीतर रहने वाले जीवों में बड़ी हलचल मच गयी, नदियों तथा अन्य जलाशयों में भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये।
"मुहुः परिधयोऽभूवन् सराह्वोः शशिसूर्ययोः"
सूर्य और चन्द्रमा बार-बार ग्रसे जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमङ्गल सूचक मण्डल बैठने लगे, बिना बादलों के ही गरजने का शब्द होने लगा तथा गुफाओं में से रथ की घरघराहट का-सा शब्द निकलने लगा।
अन्तर्ग्रामेषु मुखतो वमन्त्यो वह्निमुल्बणम्।
सृगाल उलूक टङ्कारैः प्रणेदुः अशिवं शिवाः।।
गाँवों में गीदड़ और उल्लुओं के भयानक शब्द के साथ ही सियारियाँ मुख से दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमङ्गल शब्द करने लगीं जहाँ-तहाँ --
"व्यमुञ्चन् विविधा वाचो ग्रामसिंहाः ततस्ततः"
कुत्ते अपनी गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने और कभी रोने के समान भाँति-भाँति के शब्द करने लगे।
खराश्च कर्कशैः क्षत्तः खुरैर्घ्नन्तो धरातलम्।
खार्कार रभसा मत्ताः पर्यधावन् वरूथशः।।
विदुरजी ! झुंड-के-झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी खोदते और रेंकने का शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौडऩे लगे, पक्षी गधों के शब्द से डरकर रोते-चिल्लाते अपने घोंसलों से उडऩे लगे। अपनी खिरकों में बँधे हुए और वन में चरते हुए गाय-बैल आदि पशु डर के मारे मल-मूत्र त्यागने लगे।
गावः अत्रसन् असृग्दोहाः तोयदाः पूयवर्षिणः।
व्यरुदन् देवलिङ्गानि द्रुमाः पेतुर्विनानिलम्।
गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहने पर उनके थनों से खून निकलने लगा, बादल पीब की वर्षा करने लगे, देवमूर्तियों की आँखों से आँसू बहने लगे और आँधी के बिना ही वृक्ष उखड़-उखडक़र गिरने लगे।
शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रों को लाँघकर वक्रगति से चलने लगे तथा आपस में युद्ध करने लगे।
दृष्ट्वा अन्यांश्च महोत्पातान् अतत्-तत्त्वविदः प्रजाः।
ब्रह्मपुत्रान् ऋते भीता मेनिरे विश्वसंप्लवम्।।
ऐसे ही और भी अनेकों भयंकर उत्पात देखकर सनकादि के सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातों का मर्म न जानने के कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसार का प्रलय होने वाला है।
तावादिदैत्यौ सहसा व्यज्यमानात्मपौरुषौ ।
ववृधातेऽश्मसारेण कायेनाद्रिपती इव ॥
वे दोनों आदि दैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढक़र महान् पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया।
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभिः
निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्गदाभुजौ।
गां कंपयन्तौ चरणैः पदे पदे
कट्या सुकाञ्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः।।
वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं, उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमचमा रहे थे, पृथ्वी पर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनी से सुशोभित कमर अपने प्रकाश से सूर्य को भी मात करती थी।
वे दोनों यमज थे, प्रजापति कश्यपजी ने उनका नामकरण किया। उनमें से जो उनके वीर्य से दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था--
"तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा यं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः"
उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दिति के उदर से पहले निकला, वह हिरण्याक्ष के नाम से विख्यात हुआ।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु रोज चार-चार हाथ भर बढ़ते थे।
यदि सचमुच ही ऐसा होने लगे तो माता-पिता की मुसीबत की -हम कल्पना कर सकते है, और मुसीबत को यदि नज़र -अंदाज़ कर भी दें,तो भी रोज-रोज कपडे छोटे पड़ने लगें।
किन्तु यह तो भागवत की समाधि भाषा है, भागवत में समाधि भाषा ही मुख्य है तथा लौकिक भाषा गौण है।
इससे लोभ का स्वरुप बताया गया है। चार-चार हाथ भर रोज बढ़ते थे अर्थात लोभ रोज-रोज बढ़ता ही जाता है। बिना प्रभु कृपा से लोभ का अंत नहीं होता। वृध्दावस्था में शरीर जीर्ण हो जाने के कारण काम तो मर जाता है किन्तु लोभ का नाश नहीं हो पाता।
लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है, पाप के बढ़ने से धरती रसातल में जाती है, धरती और मानव-समाज दुःख रूपी रसातल में डूब जाता है।
हिरण्याक्ष का अर्थ है --- संग्रह-वृत्ति और हिरण्यकशिपु का अर्थ है -- भोग-वृति।
हिरण्याक्ष ने बहुत कुछ एकत्रित किया और हिरण्यकशिपु ने बहुत कुछ उपभोग किया, भोग बढ़ता है तो भोग के बढ़ने से पाप बढ़ता है।
हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी के वर से मृत्यु भय से मुक्त हो जाने के कारण बड़ा उद्धत हो गया था, उसने अपनी भुजाओं के बल से लोकपालों के सहित तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया।
हिरण्याक्षो अनुजस्तस्य प्रियः प्रीतिकृदन्वहम्।
गदापाणिर्दिवं यातो युयुत्सुः मृगयन् रणम्।।
वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्ष को बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाई का प्रिय कार्य करता रहता था,एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथ में गदा लिये युद्ध का अवसर ढूँढ़ता हुआ स्वर्गलोक में जा पहुँचा, उसका वेग बड़ा असह्य था,उसके पैरों में सोने के नूपुरों की झनकार हो रही थी, गले में विजयसूचक माला धारण की हुई थी और कंधे पर विशाल गदा रखी हुई थी।
उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजी के वर ने उसे मतवाला कर रखा था; इसलिये वह सर्वथा निरंकुश और निर्भय हो रहा था,उसे देखकर देवता लोग--
"भीता निलिल्यिरे देवाः तार्क्ष्य त्रस्तः इवाहयः"
डर के मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुड़ क़े डर से साँप छिप जाते हैं, जब दैत्यराज हिरण्याक्ष ने देखा कि मेरे तेज के सामने बड़े-बड़े गर्वीले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयंकर गर्जना करने लगा।
ततो निवृत्तः क्रीडिष्यन् गम्भीरं भीमनिस्वनम्।
विजगाहे महासत्त्वो वार्धिं मत्त इव द्विपः।।
फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे लौटकर जल क्रीडा करने के लिये मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्र में घुस गया, जिसमें लहरों की बड़ी भयंकर गर्जना हो रही थी ,ज्यों ही उसने समुद्र में पैर रखा कि डरके मारे वरुण के सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकार की छेड़छाड़ न करने पर भी वे उसकी धाक से ही घबराकर बहुत दूर भाग गये।
महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षों तक समुद्र में ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षी को न पाकर बार- बार वायुवेग से उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गों पर ही ---
" मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरीं
आसेदिवान् तास्तात पुरीं प्रचेतस:"
अपनी लोहमयी गदा को आजमाता रहा, इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुण की राजधानी विभावरी पुरी में जा पहुँचा, वहाँ पाताल लोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुण जी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्ग से कहा—
"जगाद मे देह्यधिराज संयुगम्"
‘महाराज ! मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये, प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपने को बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्य मद को भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसार के समस्त दैत्य-दानवों को जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था।
उस मदोन्मत्त शत्रु के इस प्रकार बहुत उपहास करने से भगवान् वरुण को क्रोध तो बहुत आया, किन्तु अपने बुद्धिबल से वे उसे पी गये और बदले में उससे कहने लगे—
"व्यवोचदङ्गोपशमं गता वयम्"
‘भाई ! हमें तो अब युद्धादि का कोई चाव नहीं रह गया है।
पश्यामि नान्यं पुरुषात् पुरातनाद्
यः संयुगे त्वां रणमार्गकोविदम्।
आराधयिष्यति असुरर्षभेहि तं
मनस्विनो यं गृणते भवादृशाः।।
भगवान् पुराणपुरुष के सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम-जैसे रणकुशल वीर को युद्ध में सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हीं के पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे, तुम-जैसे वीर उन्हीं का गुणगान किया करते हैं।
तं वीरमारादभिपद्य विस्मयः
शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृतः।
यस्त्वद्विधानां असतां प्रशान्तये
रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया।
वे बड़े वीर हैं,उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तों से घिरकर वीरशय्या पर शयन करोगे, वे तुम-जैसे दुष्टों को मारने और सत्पुरुषों पर कृपा करने के लिये अनेक प्रकार के रूप धारण किया करते हैं।
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