स्वप्न दर्शन के शुभ और अशुभ परिणाम

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Dream's Logic
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 भारतीय चिन्तन प्राणियों की चार अवस्थायें मानता है-जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय मनुष्य की चार अन्तः इन्द्रियां भी हैं जिसे अन्तःकरण चतुष्टय के नाम से भी जाना जाता है। वे हैं-मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार अवस्थायें भी शारीरिक दृष्टि से चार ही हैं- बाल, युवा, प्रौढ़ एवं वृद्ध । बाल्यावस्था में चित्त, युवावस्था में मन, प्रौढ़ावस्था में बुद्धि तथा वृद्धावस्था में अहंकार प्रधान रहता है। चित्त का काम विषय को पृथक् करना है, मन उसका (मनन) विचार करता है, बुद्धि उसका निश्चय करती है। विषयों की प्राप्ति इन्द्रियों द्वारा होती है। इन्द्रियों के उपरत हो जाने पर निरा मन जो विषय सेवन करता है उसी का नाम स्वप्न दर्शन है। स्वप्न चित्त का परिणाम है अथवा मन का यह विचारणीय प्रश्न है, चेत करना, चेताना चित्त का काम है, किसी भाव को चित्त में जमा देना ही चित्त है, मन का काम मनन करना है, स्मरण करना नहीं । चित्त का स्मृति, मन का संकल्प, बुद्धि का निश्चय और अहं का अभिमान से सम्बन्ध है। स्वप्न तो स्मृति ही है चाहे शुद्ध हो अथवा अशुद्ध ।

 स्वप्न कैसे आते हैं इस विषय में आयुर्वेद का मत है कि प्रत्येक मानव में हिता नाम की ७२ हजार नाड़ियाँ हैं, जो हृदय से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर स्थित हैं। जैसे पुष्प में सर्वत्र पराग व्याप्त है वैसे शरीर सर्वतः नाड़ियों से व्याप्त रहता है । कोई भी शरीर का भाग ऐसा नहीं है जिसमें नाड़ियां न हों। हृदय से निकलकर नाड़ियां शरीर के प्रत्येक अवयवों में व्याप्त होती हैं, वे सब अन्नरस से पूर्ण हैं। रुधिर संचार इन्हीं के द्वारा सब शरीर में होता है, जहां बाधा पहुंचती है उसी जगह शरीर में विकार हो जाता है। नाड़ियां हित फल देती हैं इसी से इनका नाम हिता पड़ा है। नाड़ी शब्द का दूसरा रूप नाली है। 'डलवोरभेदः' से ड का ल भी हो जाता है। अमरकोश में "नाही तु धमनी शिरा" अर्थात् नाडी ही धमनी अथवा शिरा है। नाड़ी के दो भेद हैं। एक स्वप्न नाडी दूसरा प्रबोध नाड़ी । जीव के साथ इन्द्रियां भी उसी अवस्था में जाती हैं, अतः घबड़ाहट में जागरण होने पर इन्द्रियों का प्रवेश अन्य नाड़ियों में चला जाता है जिससे अन्धत्व, बधिरत्व, विक्षिप्तता अथवा अन्य रोग हो जाते हैं। मन हृदय से निकलकर हिता नाडी (स्वप्न नाडी) में प्रवेश कर स्वप्न देखता है और जब नाड़ियों द्वारा बुद्धि बाहर जाकर वाह्य विषयों को ग्रहण करती है तभी जीव जागृत अवस्था को प्राप्त होता है। हिता नाडी का सम्बन्ध आयुर्वेद की दृष्टि में घमनी ही है। महर्षि चरक को दृष्टि में दारुण स्वप्न का सम्बन्ध मनोवहा नाडी से है।

मनोवहानां पूर्णत्वाद् दोषैरतिबलैस्त्रिभिः । 

स्त्रोतसां दारुणान् स्वप्नान् काले पश्यति दारुणे ।।

(चरकसंहिता इन्द्रिय संस्थान ५१३०)

  मन का स्थान हृदय ही है-वह मन हृदय से निकलने वाली धमनियों में से होकर इन्द्रियों में प्राप्त होता है इसीलिये यह धमनियां मनोवह भी कहलाती हैं। शरीर में मुख्य तीन नाड़ियों का स्थान है-पहिला हृदय स्थान से रक्त ले जाने वाली नाडी धमनी, दूसरा रक्त वापस ले आने वाली नाड़ी शिरा तथा तीसरा शिरा और धमनी को जोड़ने वाली नाही केशिका कही जाती है। प्रकृति के तीन गुण है-सत्व, रज एवं तम तीनों का सम्मिश्रण प्रत्येक मानव के शरीर में व्याप्त है। जीव सुषुप्ति में सत् प्रधान, स्वप्न में तम प्रधान तथा जाग्रत में रजोगुण की प्रधानता रहती है छान्योग्योपनिषद् में कथा आती है कि उद्दालक नाम से प्रसिद्ध अरुण के पुत्र ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा हे सौम्य ! तू मेरे द्वारा स्वप्नान्त को विशेष रूप से समझ ले। जिस अवस्था में यह पुरुष सोता है उस समय यह सत् से सम्पन्न हो जाता है। यह अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है इसी से इसे स्वपिति ऐसा कहते हैं, क्योंकि उस समय यह स्व अपने को ही अपीत प्राप्त हो जाता है । स्वप्नावस्था में सत्वगुण गौणतर रूप से दबा रहता है, तम रज को इतना दबा लेता है कि वह चित्त को इन्द्रियों द्वारा वाह्य विषयों में उपरक्त नहीं कर सकता है, किन्तु रज की क्रिया सूक्ष्म रूप से होती रहती है जिससे वह चित्त को मन द्वारा स्मृति के संस्कारों में उपरक्त करने में समर्थ रहता है। मनइन्द्रियों के अन्तर्मुख होने से सूक्ष्म शरीर में स्वप्न का कार्य करता है। जागृत अवस्था में कार्यों में आसक्त चित्त वाले मनुष्यों का जैसा संकल्प होता है वैसा ही स्वप्नकाल में मनोगत मनोरथ का भोग हुआ करता है । मन प्रसन्न इन्द्रियों के सहित जिन-जिन विषयों का संकल्प करता है स्वप्न समय उपस्थित होने पर मनोदृष्टि होकर उन्हीं विषयों को देखा करता है। शरीर ही नगर है, मन मन्त्री है, बुद्धि स्वामिनी है तथा इन्द्रियां प्रजा हैं। मन अपने संकल्प के कारण बुद्धि से अलग होकर इन्द्रियों पर प्रभाव जमाता है पुनः वासना के अनुसार स्वतन्त्र रूप से राज्य करता है।

  चित्त ही में वासना अथवा संस्कारों का वास होता है अतः चित्त ही स्वप्न का सूत्रधार है। योगवाशिष्ठ के अनुसार नेत्रादि इन्द्रियों के छिद्रों के आक्रमण किये विना अन्तःकरण में क्षुब्ध होकर जो पदार्थों को संवित् अनुभव करती है उसी को स्वप्न कहते हैं ।

अनाक्रान्तेन्द्रियाच्छिद्रो यतः क्षुब्धोऽन्तरेव सः ।

संविदानुभवत्याशु स स्वप्न इति कथ्यते ।। 

(योगवाशिष्ठ स्थिति प्रकरण १९३३)

  वेदान्त की दृष्टि में जाग्रत भी एक प्रकार का स्वप्न ही है। स्वप्न और जाग्रत का भेद ऐसा नहीं है कि एक को असत्य तथा दूसरे को सत्य माने । स्वप्न जैसे स्वप्नावस्था में सत्य भासता है वैसे जाग्रत भी ज्ञान से पूर्व सत्य, किन्तु परमार्थतः दोनों ही प्रतिभास के फल हैं। जीव की तीनों अवस्था जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति भोगार्थ ही हैं। भोग का मूल अदृष्ट है। जाग्रत अवस्था में सुख आदि का भोग जैसे धर्मादि के अधीन है वैसे ही स्वप्न सुख भी अदृष्ट मूलक है । माण्डव्य ऋषि को जब एक राजा द्वारा शूली पर चढ़ाया गया तथापि उनकी मृत्यु नहीं हुई राजा डर कर ऋषि के चरणों पर गिर पड़ा 1 ऋषि ने राजा को तो क्षमा कर दिया पर यमराज के पास जाकर इस अपराध के लिए यमराज को शाप देने के लिये उद्यत हुए। यमराज ने ऋषि से उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का परिणाम बताते हुए कहा कि पूर्व जन्म में आपने बचपन में एक तितली को कांटे से छेदा था अतः इस कर्म का फल आपको मिला। प्रत्युत्तर में माण्डव्य ने कहा था किन्तु अनजान या अज्ञान में किये गये पापों का फल तो स्वप्नावस्था में दिया जाता है आपने जागृत में यह फल देकर अपराध किया है। अतः आपको मनुष्य योनि में शूद्र के यहाँ जन्म लेना पड़ेगा। वही यमराज ऋषिशाप वश विदुररूप में मनुष्य अवतार लिया था अस्तु! जीव अपनी इच्छा से शुभ अथवा अशुभ स्वप्न नहीं देखता है अतः यह स्पष्ट है कि परमात्मा ही स्वप्न दृष्ट स्थादि का निर्माता है। अपने अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य जैसा जैसा सुस्वप्न अथवा दुःस्वप्न देखता है वह सुस्वप्न अथवा दुःस्वप्न मनुष्य को वैसा सुख या दुःख देता है।

  वैसे तो स्वप्न के अनेक प्रकार कहे गये हैं किन्तु मुख्यतः स्वप्न चार प्रकार के होते हैं - १. दैविक, २. शुभ स्वप्न, ३. अशुभ स्वप्न, ४. मिश्रित (शुभाशुभ) स्वप्न । रात्रि के प्रथम प्रहर अर्थात् सायंकाल ६ से ९ बजे के मध्य देखा हुआ स्वप्न ६ महीने में फल देता है तथा चौथे प्रहर का स्वप्न सद्यः फल देता है। संसार में स्वप्न देने वाले नौ प्रकार के भाव हैं। सुना हुआ, अनुभव किया हुआ देखा हुआ, देखे हुए के समान, चिन्ता से, प्रकृति विकृति से देवता से तथा पाप अथवा पुण्य से स्वप्न होते हैं। इनमें प्रथम ६ से शुभ या अशुभ फल विलम्ब से प्राप्त होता है बाकी बाद के तीन शीघ्र ही फल देने वाले होते हैं। रति में, हास से, शोक से भय से, मलमूत्र के वेग से तथा नष्ट वस्तु की चिन्ता से देखा हुआ स्वप्न व्यर्थ हो जाता है। यथा- रहांसाश्च शोकाच्च भवान्मूत्रपुरीषयोः ।

प्रणष्ट वस्तु चिन्तातो जातः स्वप्नो वृथा भवेत् ।।

  शरीर में कफ का वेग होने से बहुत से जलाशय तथा नदियां अथवा वर्षों से पूर्ण पृथ्वी दिखायी पड़ती है, मणियों के महल, सफेद घने स्थान, गुफाएँ तारासमूह चन्द्रमा और मेघमण्डल दिखायी देते हैं। मधुर दिव्य रस, अनेक प्रकार के दिव्यफल, घृत, यज्ञ की सामग्री, यज्ञमण्डप, सुन्दरी स्त्री, श्वेत वस्त्र तथा श्वेत माला पहिने स्त्रियां दिखायी देती हैं।

  शरीर में पित्त का वेग होने से जलती हुई अग्नि चमकती बिजली, तीक्ष्ण शस्त्र, जलती हुई अग्नि से युक्त दिशाएँ, लाल फूलों से युक्त वृक्ष, क्रोध का होना, आघात, गिरना, लड़ना, झगड़ना अथवा बहुत जल पीता हुआ स्वप्न दिखायी पड़ता है। शरीर में वात का वेग होने से ऊँचे पर अपने का चढ़ा हुआ, वायु से कंपाये हुए अनेक प्रकार के ऊंचे वृक्ष, तेज चलने वाले घोड़े, पक्षी तथा स्वयं अपने को ऊपर चढ़ता हुआ देखता है। शुभ स्वप्न को देखकर जो मनुष्य फिर सो जाता है वह निश्य ही स्वप्न से उत्पन्न शुभफल को नहीं प्राप्त करता है। इसलिये शुभ स्वप्न को देखने के पश्चात् शेष रात्रि जगकर देव स्तुति अथवा जप में बिता देना चाहिए। रात्रि में स्वप्न देखकर यदि उसे दूसरों से बता दे तो स्वप्न का फल नहीं मिलता । देवता, गुरु अथवा परमात्मा का स्मरण दुःस्वप्न नाशक कहा गया है । जो व्यक्ति स्वप्न में सिंह, घोड़े, हाथी, बैल अथवा रथ पर चढ़ता है वह राजा होता है। जिसके दाहिने हांथ में सफेद सर्प काटे उसे पांच दिन में सहस्रों रुपये का लाभ होता है। स्वप्न में जिस मनुष्य का शिर कटे या जो काटे वे दोनों राज्य प्राप्त करते हैं। लिंग छेदन होने से पुरुष स्त्री तथा योनि छेदन होने से स्त्री पुरुष रूपी धन को प्राप्त होती है। जिस पुरुष की स्वप्न में जिहा छेदन हो वह यदि क्षत्रिय हो तो सार्वभौम राजा होता है यदि अन्य कोई हो तो मण्डलेश्वर होता है। जो पुरुष श्वेत हाथी पर चढ़कर नदी के किनारे दही भात खाता है वह सम्पूर्ण पृथ्वी का भोग करता है।

  जो पुरुष स्वप्न में सूर्य चन्द्रमा के मण्डल को खाता है वह पृथ्वीपति होता है। जो स्वप्न में अपना या दूसरे मनुष्य का मांस खाता है वह साम्राज्य प्राप्त करता है । जो महल पर चढ़कर अच्छे पक्वान्न खाकर अगाध जल में तैरता है वह राजा होता है। जो पुरुष स्वप्न में वमन या विष्ठा खाय तथा उसका अपमान न करे वह अवश्य राजा होता है जो स्वप्न में मूत्र वीर्य रुधिर पान करता है और शरीर में तेल मलता है वह धनवान होता है । जो कमलदल की शय्या पर बैठकर खीर खाता है वह मनुष्य राज्य को प्राप्त करता है। जो मनुष्य स्वप्न में फल, फूलों को खाता या देखता है उसके आंगन में निश्चित ही लक्ष्मी लोटती हैं। जो स्वप्न में धनुष पर बाण चढ़ाता है वह शत्रुदल को जीतकर निष्कटंक राज्य करता है। जो स्वप्न में दूसरे का वध अथवा बन्धन करता है। अथवा निन्दा करता है वह पुरुष लोक में धनवान होता है। जो मनुष्य चांदी अथवा सोने के पात्र में खीर खाता है अथवा वृक्ष अथवा पर्वत पर चढ़ता है वह राज्य पद को प्राप्त होता है । स्वप्न में जो पुरुष विष खाकर मर जाय, वह रोग और क्लेशों से छूट कर बड़े भोगों को भोगता है जो पुरुष रोली से शरीर रंगकर स्वप्न में अपना विवाह देखता है वह संसार में धनधान्य युक्त होता है। जो रुधिर की नदी में स्नानकर रक्त पीता है वह धनी होता है। जिसके जिहा पर कोई लिखे उस पर सरस्वती प्रसन्न होती हैं। जिस पुरुष के अंग में स्वप्न में मूत्र मल लग जाय अथवा मलमूत्र का भक्षण करे वह धनाढ्य होता है। जो पुरुष चरण से मस्तक पर्यन्त बेड़ियों से बांधा जाय वह निःसन्देह पुत्ररूपी धन को प्राप्त होगा। गहरी पृथ्वी में जो गिरकर फिर उठे उसकी बुद्धि निर्मल होती है। स्वप्न में जिसको मक्खी, मच्छर, खटमल काटते हैं या ऊपर गिरते हैं वह उत्तम स्त्री को प्राप्त होता है। जो स्वप्न में शोक से पीड़ित होकर नदी, उद्यान या पर्वत देखे वह शोक से छूटता है। जिसे स्वप्न में शोक हो, रोवे अथवा अपने को मरता हुआ देखे उसे सम्पूर्ण सुख प्राप्त होता है। स्वप्न में जो बहुत वर्षा को देखे अथवा जलती अग्नि देखे लक्ष्मी उसके वश में होती है। पशु, पक्षी को हांथ से छूकर जो जागे उस पुरुष को अच्छी कन्या वरण करती है। जो शीतल जल में स्नान करे उसका सौभाग्य बढ़ता है। जो वृक्ष पर चढ़कर जागे उसके धनधान्य की वृद्धि होती है। स्वप्न में जिसके मुख में गो का दोहन हो उसके शत्रु का नाश होता है। स्वप्न में राजा, ब्राह्मण, गौएँ, देव, पितर जो कुछ कहें निश्चय ही वह उस पुरुष को मिलता है। तलवार, अस्त्र, शस्त्र, चाकू, चक्र अथवा गदा जो स्वप्न में देखता है उसे भूमि लाभ होता है।

  अशुभ स्वप्न इस प्रकार हैं- शस्त्रों, आभूषण, मणि अथवा द्रव्य का स्वप्न में चुराना अशुभ है। हंसता नाचता हुआ, लम्बा, चौड़ा, बाल रहित पुरुष को जो स्वप्न में देखता है उसकी आयु थोड़ी ही शेष रहती है। कान, नाक, हांथ का कटना, कीचड़ में फँसना, दांत या बाल का गिरना जो स्वप्न में देखता है उसे बहुत रोग होता है तथा शीघ्र मरण हो जाता है । हाथी, घोड़ा, कपड़ा का चुराना, स्वप्न में जूता चोरी होने पर रोगवृद्धि हो । स्वप्न में दांत गिरने से इन्द्रियों का नाश हो, नाक, कान कटना देखने पर द्रव्य नाश होता है। स्वप्न में चक्रवात देखना, पवन का स्पर्श करना अथवा चोटी का उखड़ना देखने पर शीघ्र मृत्यु होती है। स्वप्न में सूर्य चन्द्र का ग्रहण देखना शीघ्र मृत्यु देता है । हरिण, बकरी, हाथी का बच्चा, गदहा इनका दर्शन स्वप्न में हानिकारक होता है। सांप, नेवला, गीदड़, शूकर, चीता, हिरण, गैंडा, चिड़िया, कौआ, उल्लू को देखना धनहानि कारक है । रसोई में, प्रसूति घर में, फूल के बगीचे में, कुँए में, गड्ढे में, गुफा में प्रवेश करना, विपत्ति सूचक । पके मांस को खाना या देखना द्रव्यनाश करता है । स्वप्न में तालाब में कमलों को देखना रोगकारक है। पिशाचों के साथ मदिरापान करना असाध्य रोग देता है । चाण्डाल के साथ तेल पीना प्रमेह रोग देता है। खिचड़ी खाना क्षय रोग, गोबरयुक्त जल पीना अतिसार रोग, स्वप्न में काले घोड़े पर चढ़ना, काला वस्त्र पहिनना मृत्यु सूचक है। सिंह, हाथी, सांप, पुरुष, घड़ियाल जिसको स्वप्न में खींचता है वह बन्धन को प्राप्त होता है। जो स्वप्न में पर्वत शिखर पर अथवा श्मशान में बैठकर मदिरा पिये वह मृत्यु को प्राप्त होता है। स्वप्न में जिसके घर में शहद की मक्खियां छत्ता लगाती हैं उसका अकल्याण होता है। केशरहित काली तथा गन्ध युक्त शरीरवाली स्त्री जिस पुरुष का स्वप्न में आलिङ्गन करती है उस पुरुष की है मृत्यु होती । कज्जल या तेल से युक्त जो पुरुष गधे के ऊपर चढ़कर दक्षिण दिशा को जाय उसकी मृत्यु अवश्य होती है । यथा-

कज्जलेन च तैलेन लिप्ताङ्गो रामभोपरि ।

समारूढो यमदिशं यो यायात्स म्रियते वै ।।

 गधा या ऊँट की सवारी में चढ़कर जो स्वप्न के बीच में जागे उसकी मृत्यु होती है। जो कीचड़युक्त जल में स्वप्न में डूबता है निकलता है, ऊपर उठता है, वह बड़े दुःख से मरता है। शय्या, आसन, वृक्ष, किला, देवता स्थान, घोड़ा, वाहन इनसे गिरना है मृत्युदायक है । स्वप्न में सुअर, बन्दर, बिलाव, व्याघ्र, गीदड़, कुत्ते जिसे खींचते हैं उसकी शीघ्र मृत्यु होती है। स्वप्न में जिस पुरुष को अपने वंश में उत्पन्न हुआ मरा हुआ पुरुष बुलावे उसकी मृत्यु होती है। स्वप्न में नंगे, शिर मुंडाया हुआ दक्षिण दिशा को जाय उसकी मृत्यु होती है। सूर्य रहित दिन को चन्द्रमा रहित रात्रि को नक्षत्रों के बिना आकाश को देखना मृत्युदायक है ।

  स्वप्न में आकाश, शुक्र तारा, अग्नि, ध्रुव तथा सूर्य देखना १ वर्ष में मृत्यु करता है। जो स्वप्न में स्वर्ण या चांदी का मल मूत्र करे वह दस महीने जीता है। जिसके मस्तक पर कबूतर, गीध अथवा कौवा देखे वह ६ महीने जीता है। जो पुरुष स्वप्न में घृत अथवा तेल, दर्पण अथवा जल में मस्तक रहित अपने शरीर को देखे वह १ महीने जीता है। जिसके शरीर में बकरी की गन्ध स्वप्न में दिखायी दे वह एकपक्ष जीता है । स्वप्न में स्नान करते ही जिसका हृदय एवं शरीर सूख जाय वह दश दिन जीता है। स्वप्न में हंसते हुए संन्यासी को हँस कर बात करता देखे उसकी शीघ्र मृत्यु होती है। स्वप्न में मस्तक पर्यन्त कीचड़ में डूबा हुआ देखे उसकी भी शीघ्र मृत्यु होती है।

  जब दुःस्वप्न देखा गया हो तो प्रातःकाल स्नानादिक कृत्य करके दुर्गासप्तशती का पाठ, रुद्राभिषेक, भगवान शिव के स्तोत्रों का पाठ, पञ्चाक्षर अथवा अष्टाक्षर मन्त्र का जप तथा ग्रह शान्ति विधान एवं अग्निहोत्र आदि करने से सभी प्रकार के दुःस्वप्नों का प्रभाव मिट जाता है।

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