बाबा तुलसी के साहित्य का जातिवाद!

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

Tulsidas
Tulsidas

 

 यदि आप पूरी रामचरितमानस देखें तो वनवास की अपनी महायात्रा के मध्य 'बाबा तुलसी के राम' केवल दो लोगों का आतिथ्य स्वीकार करते हैं। वे न कभी सुग्रीव के घर खाते हैं, न अपने मित्र विभीषण के घर का अन्न ग्रहण करते हैं। वे एक बार निषादराज गुह के घर खाते हैं, और दुबारा शबरी के घर... आधुनिक व्यवस्था के अनुसार एक ओबीसी हैं, और दूसरी एसटी... यह बाबा तुलसी की लेखनी है।

    वनवास के चौदह वर्षों में राम असँख्य बुजुर्गों से मिलते हैं। इनमें से कुछ राजपुरुष भी हैं, और असँख्य ऋषि हैं। पर बाबा तुलसी के प्रभु श्रीराम ने केवल एक व्यक्ति को पिता कहा है- क्या किसी ऋषि को? किसी राजा को? नहीं। वे पिता कहते हैं गिद्ध जटायु को... उस गिद्ध को, जिसे मनुष्य जाति ने सदैव ही स्वयं से दूर रखा है। कवितावली में बाबा लिखते हैं- "देखिअ आपु सुवन-सेवासुख, मोहि पितु को सुख दीजे!" गोद में जटायु की घायल देह लेकर राम कह रहे हैं," हे तात! कुछ दिन और जीवित रहिये! अपने इस पुत्र को सेवा का सुख दीजिये और मुझे पिता की छाया दीजिये... यह बाबा तुलसी की लेखनी है।

   भारतीय पौराणिक इतिहास में दो बार किसी राजपुरुष ने अपना प्रोटोकॉल तोड़ा है। एकबार भगवान श्रीकृष्ण अपने दरिद्र मित्र सुदामा के लिए सिहांसन से उतर कर नङ्गे पाँव दौड़ते हैं, और एक बार प्रभु श्रीराम के अनुज और अयोध्या के कार्यकारी सम्राट महात्मा भरत अपने भइया के मित्र निषाद को देख कर रथ से कूद पड़ते हैं, और विह्वल हो कर बाहें पसारे उनकी ओर दौड़ जाते हैं। रामचरितमानस में बाबा लिखते हैं- "राम सखा सुनु संदनु त्यागा, चले उतरि उमगत अनुरागा..."

   बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में तो अपना परिचय नहीं दिया है, पर वे कवितावली के कुछ छंदों में अपना परिचय देते हैं। अपनी जाति बताते हुए कहते हैं, 'मेरे जाति-पाँति न चहौं किसी की जाति पाँति, मेरे कोउ काम को न हौं काहुके काम को..." न मेरी कोई जाति है, न मैं किसी की जाति जानना चाहता हूं। न कोई मेरे काम का है, न मैं किसी के काम का हूँ... इसी में आगे कहते हैं, "साह ही को गोत गोत होत है गुलाम को..." अर्थात जो मालिक का गोत्र होता है, वही दास का भी गोत्र होता है। इस हिसाब से जो राम जी की जाति है, वही मैं हूँ...

   तुलसी बाबा पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं। सज्जन लोग सदैव उन प्रश्नों का समाधान भी करते रहे हैं। पर बाबा तुलसी पर उठने वाले प्रश्नों का सर्वश्रेष्ठ समाधान वे स्वयं दे कर गए हैं। वे लिखते हैं- "कोउ कहे करत कुसाज, दगाबाज बड़ो, कोई कहे राम को गुलाम खरो खूब है! साधु जानें महासाधु, खल जाने महाखल, बानी झूठी-साँची कोटि कहत हबूब है..." कोई मुझे बुरा काम करने वाला और दगाबाज बताता है तो कोई कहता है कि प्रभु श्रीराम का यह सेवक बिल्कुल सच्चा है। वस्तुतः साधु लोग मुझे महासाधु समझते हैं और दुष्टों को मैं महादुष्ट लगता हूँ! झूठ-साँच की लहरें यूँ ही उठती रहती हैं।

      केवल बुराई देखने निकले लोग कहीं भी बुरा ढूंढ ही लेते हैं। ऐसे लोग कल भी थे, ऐसे लोग आज भी हैं, ऐसे लोग कल भी रहेंगे। पर सुनिये- दूध में नींबू पड़ जाय तो दूध को फाड़ देता है। पर उसके बाद क्या होता है? दूध का तो पनीर बन जाता है, पर नीबू कूड़े में फेंक दिया जाता है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top