परीक्षित जन्म, भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Parikshit janam
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 भक्तों ! आज हम सब जानेंगे परीक्षित जन्म कैसे हुआ था ? शौनक जी प्रश्न करते हैं कि — 

अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा।

उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः॥

  अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान्‌ ने उसे पुन: जीवित कर दिया, उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्‌ के, जिन्हें शुकदेवजी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई-- 

तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे।

ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः।।

  वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें, हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं।

सूतजी ने कहते हैं —

अपीपलद्धर्मराजः पितृवद् रञ्जयन् प्रजाः ।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादानुसेवया ॥

  धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे,भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से नि:स्पृह हो गये थे,उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था, उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी।

किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजाः ।

अधिजह्रुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे ॥

 उनके पास भोगकी ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं, परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान्‌ के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी।

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।

ददर्श पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥

शौनकजी ! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित्‌ जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है।

अङ्गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।

अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥

 वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है,अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल हैं,आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है। 

अङ्‌गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।

अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥

जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेज को शान्त करता जा रहा था, उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है-

    "मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः"

 इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये।

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।

जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंशधर परीक्षित्‌ का जन्म हुआ,जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो। पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए,उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणों से मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये । 

हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।

प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥

  महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे, उन्होंने प्रजातीर्थ नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी- घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया।

नालच्छेदन से पहले सूतक नहीं होता, जैसा कहा है—

'यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। 

छिन्ने नाले तत: पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥’' 

इसी समय को ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है।

 स्मृति कहती है—

पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’

 अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपात के समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

  ब्राह्मणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा—

तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।

एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ।।

  ‘पुरुवंश-शिरोमणे ! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान्‌ विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी।

तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।

भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥

 इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा,निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान्‌ का परम भक्त और महापुरुष होगा।

  महाराज परीक्षित की रक्षा अपनी माता के गर्भ में प्रकट होते ही, भगवान् द्वारा शुरू हो गई थी। चूँकि उनकी भगवान् द्वारा विशेष रूप से सुरक्षा की गई थी, अतएव इससे संकेत मिलता था कि यह बालक समस्त उत्तम गुणों से समन्वित महाभागवत निकलेगा।

 भक्तों की तीन कोटियाँ हैं—

महाभागवत, मध्यम अधिकारी तथा कनिष्ठ अधिकारी।

 ऐसे भक्त जो भगवान् के मन्दिर जाते हैं और आध्यात्मिक विज्ञान में पर्याप्त ज्ञान न होते हुए भी और इस तरह भगवान् के भक्तों के लिए किसी प्रकार का आदर न दिखाकर, अर्चाविग्रह की पूजा करके नमस्कार करते हैं, वे भौतिकतावादी भक्त या कनिष्ठ अधिकारी अर्थात् तृतीय कोटि के भक्त कहलाते हैं। 

  दूसरे भक्त वे हैं, जिन्होंने भगवान् की शुद्ध सेवा की चितवृत्ति विकसित कर ली है और इस तरह वे अपने जैसे भक्तों के साथ मैत्री स्थापित करते हैं, नवदीक्षितों का पक्ष ग्रहण करते हैं और नास्तिकों से बचते हैं, वे द्वितीय कोटि के भक्त कहलाते हैं। 

  किन्तु जो लोग भगवान् में सारी वस्तुएँ देखते हैं या प्रत्येक वस्तु को भगवान् की समझते हैं और प्रत्येक वस्तु में भगवान् का नित्य सम्बन्ध देखते हैं, जिससे उन्हें भगवान् के अतिरक्ति कुछ भी नहीं दिखता, वे महाभागवत या प्रथम कोटि के भगवद्भक्त कहलाते हैं। भगवान् के ऐसे प्रथम कोटि के भक्तगण सभी प्रकार से पूर्ण होते हैं। इन कोटियों के अन्तर्गत कोई भी भक्त स्वत: सर्व गुणों से सम्पन्न रहता है और इस तरह महाराज परीक्षित जैसा महाभागवत सभी प्रकार से पूर्ण होता है।

  चूँकि महाराज परीक्षित का जन्म महाराज युधिष्ठिर के कुल में हुआ था, इसीलिए उन्हें महाभागवत कहकर सम्बोधित किया गया है। जिस परिवार में महाभागवत जन्म लेता है, वह भाग्यशाली होता है, क्योंकि ऐसे प्रथम कोटि के भक्त के जन्म से, भगवत्कृपा से, परिवार की भूत, वर्तमान तथा भविष्य की सौ पीढिय़ों के लोग मुक्त हो जाते हैं। अतएव भगवान् का अनन्य भक्त बनने मात्र से परिवार को सबसे बड़ा लाभ पहुँचाया जाता है।

युधिष्ठिर ने कहा—

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।

अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥

  महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वंश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा ?

ब्राह्मणों ने कहा—

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।

ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥

  धर्मराज ! यह मनु पुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथ नन्दन भगवान्‌ श्रीराम के समान ब्राह्मण भक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा। यह उशीनर- नरेश शिबि के समान दाता और शरणागत वत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा। धनुर्धरों में यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा, यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा।

  यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता- पिता के समान सहनशील होगा।

पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।

आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥

 इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी, भगवान्‌ शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णु के समान होगा।

 यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा।

धैर्य में बलि के समान और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा, यह बहुत-से अश्वमेध- यज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा।

राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।

निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥

 इसके पुत्र राजर्षि होंगे मर्यादा का उल्लङ्घन करने वालों को यह दण्ड देगा, यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा।

तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।

प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्‌गः पदं हरेः ॥

  ब्राह्मण-कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्‌ के चरणोंकी शरण लेगा।

जिज्ञासितात्म याथार्थ्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।

हित्वेदं नृप गङ्‌गायां यास्यत्यद्धा अकुतोभयम् ॥

  राजन् ! व्यासनन्दन शुकदेवजी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा।

  ज्योतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्मलग्न का फल बताकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये।

स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।

पूर्वं दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ 

 वही यह बालक संसार में परीक्षित्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ,  क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है।

 जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार(परीक्षित्) भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमश: अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया।

यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।

राजा लब्धधनो दध्यौ अन्यत्र करदण्डयोः ॥ 

 इसी समय स्वजनों के वध का प्रायश्चित्त करने के लिये राजा युधिष्ठिर ने अश्वमेध-यज्ञ के द्वारा भगवान्‌ की आराधना करने का विचार किया, परन्तु प्रजा से वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकम के अतिरिक्त और धन न होने के कारण वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये।

तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः।

धनं प्रहीणमाजह्रुः उदीच्यां दिशि भूरिशः।।

 उनका अभिप्राय समझकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उनके भाई उत्तर दिशा में राजा मरुत्त और ब्राह्मणों द्वारा छोड़ा हुआ बहुत-सा धन ले आये,उससे यज्ञ की सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिर ने तीन अश्वमेध-यज्ञों के द्वारा भगवान्‌ की पूजा की।

"पूर्वकाल में महाराज मरुत्त ने ऐसा यज्ञ किया था, जिसमें सभी पात्र सुवर्ण के थे, यज्ञ समाप्त हो जाने पर उन्होंने वे पात्र उत्तर दिशा में फिंकवा दिये थे,उन्होंने ब्राह्मणों को भी इतना धन दिया कि वे उसे ले जा न सके; वे भी उसे उत्तर दिशा में ही छोडक़र चले आये, परित्यक्त धन पर राजा का अधिकार होता है, इसलिये उस धन को मँगवाकर भगवान्‌ ने युधिष्ठिर का यज्ञ कराया।"

 युधिष्ठिर के निमन्त्रण से पधारे हुए भगवान्‌ ब्राह्मणों द्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवों की प्रसन्नता के लिये कई महीनों तक वहीं रहे।

ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।

ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ 

 शौनकजी ! इसके बाद भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदी से अनुमति लेकर अर्जुन के साथ यदुवंशियों से घिरे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने द्वारका के लिये प्रस्थान किया।

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