Sooraj Krishna shastri |
भागवत कराने वाले किसी भी व्यक्ति के हृदय में कुछ प्रश्न रहता है जैसे कि -
- भागवत में कितना खर्चा आएगा ?
- कितने पंडित लगेंगे ?
- कितने दिन में कथा होगी ?
- किस तरह से कथा होगी ?
- भागवत संगीत में हो या बिना संगीत के हो ?
- सप्ताह यज्ञ की विधि में क्या खाया जाए और क्या ना खाया जाए ?
- कितने जापक कितने पाठक हों ?
- व्यास किस प्रकार का होना चाहिए ?
- भागवत कथा के समय किस का स्मरण किसका ध्यान करना चाहिए ?
- भागवत की कथा किस समय करानी चाहिए ?
- क्या भागवत कथा के लिए शुभ मुहूर्त देखने की आवश्यकता है ?
- कथा श्रवण हेतु किसको किसको बुलाना चाहिए किसको नहीं बुलाना चाहिए ?
श्रीमद् भागवत महात्म्य के छठे अध्याय के प्रारंभ में सनकादि मुनीश्वर कहते हैं -
कुमारा ऊचुः(कुमारों ने कहा)
अथ ते संप्रवक्ष्यामः सप्ताहश्रवणे विधिम् ।
सहायैर्वसुभिश्चैव प्रायः साध्यो विधिः स्मृतः ॥
नारदजी ! अब हम आपको सप्ताह श्रवण की विधि बताते हैं, यह विधि प्राय: लोगों की सहायता और धन से साध्य कही गयी है।
"दैवज्ञं तु समाहूय मुहूर्तं पृच्छ्य यत्नतः"
पहले तो यत्नपूर्वक ज्योतिषी को बुलाकर मुहूर्त पूछना चाहिये तथा विवाह के लिये जिस प्रकार धन का प्रबन्ध किया जाता है उस प्रकार ही धन की व्यवस्था इसके लिये करनी चाहिये।
नभस्य आश्विनोर्जौ च मार्गशीर्षः शुचिर्नभाः ।
एते मासाः कथारम्भे श्रोतॄणां मोक्षसूचकाः।।
कथा आरम्भ करने में भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, आषाढ़ और श्रावण—ये छ: महीने श्रोताओं के लिये मोक्ष की प्राप्ति के कारण हैं, इन महीनों में भी भद्रा-व्यतीपात आदि कुयोगों को सर्वथा त्याग देना चाहिये,तथा दूसरे लोग जो उत्साही हों, उन्हें अपना सहायक बना लेना चाहिये।
"देशे देशे तथा सेयं वार्ता प्रेष्या प्रयत्नतः"
फिर प्रयत्न करके देश-देशान्तरों में यह संवाद भेजना चाहिये कि यहाँ कथा होगी, सब लोगों को सपरिवार पधारना चाहिये, स्त्री और शूद्रादि भगवत्कथा एवं संकीर्तन से दूर पड़ गये हैं, उनको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये।
देश-देश में जो विरक्त वैष्णव और हरिकीर्तन के प्रेमी हों, उनके पास निमन्त्रण पत्र अवश्य भेजे,उसे लिखने की विधि इस प्रकार बतायी गयी है-
सतां समाजो भविता सप्तरात्रं सुदुर्लभः ।
अपूर्वरसरूपैव कथा चात्र भविष्यति ॥
श्रीमद्भागवत पीयुष पानाय रसलम्पटाः ।
भवन्तश्च तथा शीघ्रं आयात प्रेमतत्पराः ॥
‘महानुभावो ! यहाँ सात दिनतक सत्पुरुषोंका बड़ा दुर्लभ समागम रहेगा और अपूर्व रसमयी श्रीमद्भागवत की कथा होगी, आपलोग भगवत रस के रसिक हैं, अत: श्रीभागवतामृत का पान करने के लिये प्रेम पूर्वक शीघ्र ही पधारने की कृपा करें, यदि आपको विशेष अवकाश न हो, तो भी एक दिन के लिये तो अवश्य ही कृपा करनी चाहिये; क्योंकि यहाँ का तो-
"सर्वथाऽऽगमनं कार्यं क्षणोऽत्रैव सुदुर्लभः"
एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है, इस प्रकार विनय पूर्वक उन्हें निमंत्रित करे और जो लोग आयें, उनके लिये यथोचित निवास स्थान का प्रबन्ध करे।
"तीर्थे वापि वने वापि गृहे वा श्रवणं मतम्"
कथा का श्रवण किसी तीर्थ में, वन में अथवा अपने घरपर भी अच्छा माना गया है। जहाँ लंबा- चौड़ा मैदान हो, वहीं कथास्थल रखना चाहिय,भूमिका शोधन, मार्जन और लेपन करके रंग-बिरंगी धातुओं से चौक पूरे घर की सारी सामग्री उठाकर एक कोने में रख दे,पाँच दिन पहले से ही यत्न पूर्वक बहुत-से बिछाने के वस्त्र एकत्र कर ले तथा केले के खंभों से सुशोभित एक ऊँचा मण्डप तैयार कराये, उसे सब ओर फल, पुष्प, पत्र और चँदोवे से अलंकृत करे तथा चारों ओर झंडियाँ लगाकर तरह-तरह के सामानों से सजा दे, उस मण्डप में कुछ ऊँचाई पर सात विशाल लोकों की कल्पना करे और उनमें--
"तेषु विप्रा विरक्ताश्च स्थापनीयाः प्रबोध्य च"
विरक्त ब्राह्मणों को बुला-बुलाकर बैठाये, आगे की ओर उनके लिये वहाँ यथोचित आसन तैयार रखे,इनके पीछे वक्ता के लिये भी एक दिव्य सिंहासन का प्रबन्ध करे।
उदङ्मुखो भवेद्वक्ता श्रोता वै प्राङ्मुखस्तदा ।
प्राङ्मुखश्चेत् भवेद्वक्ता श्रोता च उदङ्मुखस्तदा॥
अथवा पूर्वदिग्ज्ञेया पूज्यपूजकमध्यतः ।
श्रोतॄणां आगमे प्रोक्ता देशकालादिकोविदैः ॥
यदि वक्ता का मुख उत्तर की ओर रहे, तो श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ता पूर्वाभिमुख रहे तो श्रोता को उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिये, अथवा वक्ता और श्रोता को पूर्वमुख होकर बैठना चाहिये, देश-काल आदि को जानने वाले महानुभावों ने श्रोता के लिये ऐसा ही नियम बताया है।
विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृह ॥
जो वेद-शास्त्र की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो, तरह-तरह के दृष्टान्त दे सकता हो तथा विवेकी और अत्यन्त नि:स्पृह हो, ऐसे विरक्त और विष्णु भक्त ब्राह्मण को वक्ता बनाना चाहिये।
अनेकधर्मनिभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि पण्डिताः।।
श्रीमद्भागवत के प्रवचन में ऐसे लोगों को नियुक्त नहीं करना चाहिये जो पण्डित होने पर भी अनेक धर्मों के चक्कर में पड़े हुए, स्त्री- लम्पट एवं पाखण्ड के प्रचारक हों, वक्ता के पास ही उसकी सहायता के लिये एक वैसा ही विद्वान् और स्थापित करना चाहिये ---
"पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः"
वह भी सब प्रकार के संशयों की निवृत्ति करने में समर्थ और लोगों को समझाने में कुशल हो, कथा-प्रारम्भ के दिन से एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण करने के लिये वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिये, तथा अरुणोदय के समय शौच से निवृत्त होकर अच्छी तरह स्नान करै, और संध्यादि अपने नित्यकर्मों को संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्नों की निवृत्ति के लिये गणेशजी का पूजन करे,तदनन्तर ---
"पितॄन् संतर्प्य शुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं समाचरेत्"
पितृगण का तर्पण कर पूर्व पापों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरि को स्थापित करे, फिर भगवान् श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके मन्त्रोच्चारण पूर्वक क्रमश: षोडशोपचार विधि से पूजन करे और उसके पश्चात् प्रदक्षिणा तथा नमस्कारादि कर इस प्रकार स्तुति करे-
संसारसागरे मग्नं दीनं मां करुणानिधे ।
कर्ममोहगृहीताङ्गं मामुद्धर भवार्णवात् ॥
‘करुणानिधान ! मैं संसार-सागर में डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ। कर्मों के मोहरूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है। आप इस संसार -सागर से मेरा उद्धार कीजिये’,इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियों से श्रीमद्भागवत की भी बड़े उत्साह और प्रीति पूर्वक विधि-विधान से पूजा करे,फिर पुस्तक के आगे नारियल रखकर नमस्कार करे और प्रसन्न चित्त से इस प्रकार स्तुति करे -
श्रीमद्भागवताख्योऽयं प्रत्यक्षः कृष्ण एव हि ।
स्वीकृतोऽसि मया नाथ मुक्त्यर्थं भवसागरे ॥
मनोरथो मदीयोऽयं सफलः सर्वथा त्वया ।
निर्विघ्नेनैव कर्तव्य दासोऽहं तव केशव ॥
‘श्रीमद्भागवत के रूप.में आप साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान हैं, नाथ ! मैंने भवसागर से छुटकारा पाने के लिये आपकी शरण ली है, मेरा यह मनोरथ आप बिना किसी विघ्न-बाधा के साङ्गोपाङ्ग पूरा करें,केशव ! मैं आपका दास हूँ’, इस प्रकार दीन वचन कहकर फिर वक्ता का पूजन करे, उसे सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित करे और फिर पूजा के पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे—
शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ॥
‘शुकस्वरूप भगवन् ! आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में पारंगत हैं; कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें। फिर अपने कल्याण के लिये प्रसन्नता पूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करे और सात दिनों तक यथाशक्ति उसका पालन करे कथा में विघ्न न हो इसके लिये-
वरणं पंचविप्राणां कथाभङ्गनिवृत्तये ।
कर्तव्यं तैः हरेर्जाप्यं द्वादशाक्षरविद्यया ॥
पाँच ब्राह्मणों को और वरण करे; वे द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा भगवान् के नामों का जप करें, फिर ब्राह्मण, अन्य विष्णुभक्त एवं कीर्तन करने वालों को नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसन पर बैठ जाय, जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्रादिकी चिन्ता छोडक़र शुद्धचित्त से केवल कथा में ही ध्यान रखता है, उसे इसके श्रवण का उत्तम फल मिलता है, बुद्धिमान् वक्ता को चाहिये -
आसूर्योदयमारभ्य सार्धत्रिप्रहरान्तकम् ।
वाचनीया कथा सम्यक् धीरकण्ठं सुधीमता ॥
कथाविरामः कर्तव्यो मध्याह्ने घटिकाद्वयं ।
तत्कथामनु कार्यं वै कीर्तनं वैष्णवैस्तदा ॥
सूर्योदय से कथा आरम्भ करके साढ़े तीन पहर तक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा बाँचे,दोपहर के समय दो घड़ी तक कथा बंद रखे, उस समय कथा के प्रसङ्ग के अनुसार वैष्णवों को भगवान् के गुणों का कीर्तन करना चाहिये—व्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिये।
कथा के समय मल-मूत्र के वेग को काबू में रखने के लिये अल्पाहार सुखकारी होता है; इसलिये श्रोता केवल एक ही समय हविष्यान्न भोजन करे, यदि शक्ति हो तो सातों दिन निराहार रहकर कथा सुने अथवा-
"घृतपानं पयःपानं कृत्वा वै श्रृणुयात् सुखम्"
केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक श्रवण करे, अथवा फलाहार या एक समय ही भोजन करे, जिससे जैसा नियम सुभीते से सध सके, उसी को कथा श्रवण के लिये ग्रहण करे, मैं तो उपवास की अपेक्षा भोजन करना अच्छा समझता हूँ, यदि वह कथाश्रवण में सहायक हो, यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुँचती हो तो वह किसी काम का नहीं,नियम से सप्ताह सुनने वाले पुरुषों के नियम सुनिये,विष्णु भक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथा श्रवण का अधिकारी नहीं है, जो पुरुष नियम से कथा सुने उसे-
ब्रह्मचर्यमधः सुप्तिः पत्रावल्यां च भोजनम् ।
कथासमाप्तौ भुक्तिं च कुर्यात् नित्यं कथाव्रती ॥
द्विदलं मधु तैलं च गरिष्ठान्नं तथैव च ।
भावदुष्टं पर्युषितं जह्यात् नित्यं कथाव्रती ॥
कामं क्रोधं मदं मानं मत्सरं लोभमेव च ।
दम्भ मोहं तथा द्वेषं दूरयेच्च कथाव्रती ॥
वेदवैष्णवविप्राणां गुरुगोव्रतिनां तथा ।
स्त्रीराजमहतां निन्दां वर्जयेत् यः कथाव्रती ॥
रजस्वला अन्त्यज म्लेच्छ पतित व्रात्यकैस्तथा ।
द्विजद्विड् वेदबाह्यैश्च न वदेत् यः कथाव्रती ॥
ब्रह्मचर्य से रहना, भूमि पर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिये,दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्न—इनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिये, काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह और द्वेष को तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये, वह वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक तथा स्त्री, राजा और महापुरुषों की निन्दा से भी बचे, नियम से कथा सुनने वाले पुरुष को रजस्वला स्त्री, अन्त्यज, म्लेच्छ, पतित, गायत्री हीन द्विज, ब्राह्मणों से द्वेष करने वाले तथा वेद को न मानने वाले पुरुषों से बात नहीं करनी चाहिये।
सत्यं शौचं दयां मौनं आर्जवं विनयं तथा ।
उदारमानसं तद्वत् एवं कुर्यात् कथाव्रती ॥
सर्वदा सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारता का बर्ताव करना चाहिये, धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहीन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे।
अपुष्पा काकवन्ध्या च वन्ध्या या च मृतार्भका ।
स्रवत् गर्भा च या नारी तया श्राव्या प्रयत्नतः ॥
जिस स्त्री का रजोदर्शन रुक गया हो, जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह यत्नपूर्वक इस कथा को सुने,ये सब यदि विधिवत् कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है, यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देनेवाली है,इस प्रकार इस व्रत की विधियों का पालन करके फिर उद्यापन करे, जिन्हें इसके विशेष फल की इच्छा हो, वे जन्माष्टमी -व्रत के समान ही इस कथा व्रत का उद्यापन करें किन्तु-
अकिंचनेषु भक्तेषु प्रायो नोद्यापनाग्रहः ।
श्रवणेनैव पूतास्ते निष्कामा वैष्णवा यतः ॥
जो भगवान् के अकिञ्चन भक्त हैं, उनके लिये उद्यापन का कोई आग्रह नहीं है,वे श्रवण से ही पवित्र हैं; क्योंकि वे तो निष्काम भगवद्भक्त हैं, इस प्रकार जब सप्ताह यज्ञ समाप्त हो जाय, तब श्रोताओं को अत्यन्त भक्ति पूर्वक पुस्तक और वक्ता की पूजा करनी चाहिये, फिर वक्ता श्रोताओं को प्रसाद, तुलसी और प्रसादी मालाएँ दे तथा सब लोग मृदङ्ग और झाँझ की मनोहर ध्वनि से सुन्दर कीर्तन करें, जय-जयकार, नमस्कार और शंख ध्वनि का घोष कराये तथा ब्राह्मण और याचकों को धन और अन्न दे।
विरक्तश्चेत् भवेत् श्रोता गीता वाद्या परेऽहनि ।
गृहस्थश्चेत् तदा होमः कर्तव्यः कर्मशान्तये ॥
श्रोता विरक्त हो तो कर्म की शान्ति के लिये दूसरे दिन गीता पाठ करे ; गृहस्थ हो तो हवन करे, उस हवन में दशम स्कन्ध का एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घृत, तिल और अन्नादि सामग्रियों से आहुति दे, अथवा एकाग्र चित्त से गायत्री-मन्त्र द्वारा हवन करे,क्योंकि तत्त्वत: यह महापुराण गायत्री- स्वरूप ही है ।
होम करने की शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करने के लिये ब्राह्मणों को हवन सामग्री दान करे तथा नाना प्रकार की त्रुटियों को दूर करने के लिये और विधि में फिर जो न्यूनाधिकता रह गयी हो, उसके दोषों की शान्ति के लिये-
"दोषयोः प्रशमार्थं च पठेत् नामसहस्रकम्"
विष्णुसहस्रनाम का पाठ करे, उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि कोई भी कर्म इससे बढक़र नहीं है।
"द्वादश ब्राह्मणान् पश्चात् भोजयेत् मधुपायसैः"
फिर बारह ब्राह्मणों को खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रत की पूर्ति के लिये गौ और सुवर्ण का दान करे,
शक्तौ पलत्रयमितं स्वर्णसिंहं विधाय च ।
तत्रास्य पुस्तकं स्थाप्यं लिखितं ललिताक्षरम् ॥
सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये, उस पर सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई श्रीमद्भागवत की पोथी रखकर उसकी आवाहनादि विविध उपचारों से पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्य को—उसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादि से पूजन कर—दक्षिणा के सहित समर्पण कर दे, यों करने से वह बुद्धिमान् दाता जन्म- मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। यह सप्ताह पारायण की विधि सब पापों की निवृत्ति करने वाली है। इसका इस प्रकार ठीक-ठीक पालन करने से-
फलदं स्यात् पुराणं तु श्रीमद्भागवतं शुभम् ।
धर्मकामार्थमोक्षाणां साधनं स्यात् न संशयः ॥
यह मङ्गलमय भागवत पुराण अभीष्ट फल प्रदान करता है तथा अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—चारों की प्राप्ति का साधन हो जाता है—इसमें सन्देह नहीं।
सनकादि कहते हैं-
इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
श्रीमद्भागवतेनैव भुक्तिमुक्ति करे स्थिते ॥
नारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह श्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो ? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं।
सूतजी कहते हैं -
इत्युक्त्वा ते महात्मानः प्रोचुर्भागवतीं कथाम् ।
सर्वपापहरां पुण्यां भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्।।
यों कहकर महामुनि सनकादि ने एक सप्ताह तक विधि पूर्वक इस सर्वपाप नाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली भागवत.कथा का प्रवचन किया,सब प्राणियों ने नियम पूर्वक इसे श्रवण किया, इसके पश्चात् उन्होंने विधि पूर्वक भगवान् पुरुषोत्तम की स्तुति की,कथा के अन्त में-
तदन्ते ज्ञानवैराग्य-भक्तीनां पुष्टता परा ।
तारुण्यं परमं चाभूत् सर्वभूतमनोहरम् ॥
नारदश्च कृतार्थोऽभूत् सिद्धे स्वीये मनोरथे ।
पुलकीकृतसर्वाङ्ग परमानन्दसम्भृतः ॥
ज्ञान-वैराग्य और भक्ति को बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवों का चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे अपना मनोरथ पूरा होने से नारदजी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके सारे शरीर में रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्द से पूर्ण हो गये, इस प्रकार कथा श्रवण कर भगवान् के प्यारे नारदजी हाथ जोडक़र प्रेमगद्गद वाणी से सनकादि से कहने लगे-
धन्योस्मि अनुगृहितोऽस्मि भवद्भिः करुणापरैः ।
अद्य मे भगवान् लब्धः सर्वपापहरो हरिः ॥
श्रवणं सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधनाः ।
वैकुण्ठस्थो यतः कृष्णः श्रवणाद् यस्य लभ्यते ॥
मैं धन्य हूँ, आप लोगों ने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्व पापहारी भगवान् श्रीहरि की ही प्राप्ति हो गयी,तपोधनो ! मैं श्रीमद्भागवत- श्रवण को ही सब धर्मों से श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवण से वैकुण्ठ ( गोलोक)- विहारी श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है।
सूतजी कहते हैं—
एवं ब्रुवति वै तत्र नारदे वैष्णवोत्तमे ।
परिभ्रमन् समायातः शुको योगेश्वरास्तदा ॥
शौनकजी ! वैष्णवश्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेव जी आ गये, कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेव जी वहाँ पधारे, सोलह वर्ष की-सी आयु, आत्मलाभ से पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागर का संवर्धन करने के लिये चन्द्रमा के समान वे प्रेम से धीरे-धीरे श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे,परम तेजस्वी शुकदेवजी को देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसन पर बैठाया, फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेम पूर्वक पूजन किया, उन्होंने सुख पूर्वक बैठकर कहा‘आप लोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं
शुकमुखात् अमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरको रसिका भुवि भावुकाः ॥
रसिक एवं भावुक जन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्प वृक्ष का परिपक्व फल है। श्रीशुकदेव रूप शुक के मुख का संयोग होने से अमृतरस से परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस है— इसमें न छिलका है न गुठली, यह इसी लोक में सुलभ है,जब तक शरीर में चेतना रहे, तब तक आप लोग बार-बार इसका पान करें।
धर्मप्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्।।
महामुनि व्यासदेव ने श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की है। इसमें निष्कपट—निष्काम परमधर्म का निरूपण है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तु का वर्णन है, जिससे तीनों तापों की शान्ति होती है। इसका आश्रय लेने पर दूसरे शास्त्र अथवा साधन की आवश्यकता नहीं रहती, जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदय में अवरुद्ध हो जाता है।
श्रीमद्भागवतं पुराणतिलकं यद्वैष्णवानां धनं
यस्मिन् पारमहंस्यमेवममलं ज्ञानं परं गीयते ।
यत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं
तत् श्रुण्वन् प्रपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नरः।।
यह भागवत पुराणों का तिलक और वैष्णवों का धन है। इसमें परमहंसों के प्राप्य विशुद्ध ज्ञान का ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के सहित निवृत्तिमार्ग को प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्ति पूर्वक इसके श्रवण, पठन और मनन में तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है।
स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः ।
अतः पिबन्तु सद्भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ॥
यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ में भी नहीं है। इसलिये भाग्यवान् श्रोताओ ! तुम इसका खूब पान करो; इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो।
सूतजी कहते हैं—
एवं ब्रुवाणे सति बादरायणौ
मध्ये सभायां हरिराविरासीत् ।
प्रह्रादबल्युद्धवफाल्गुनादिभिः
वृत्तं सुरर्षिस्तमपूजयच्च तान् ॥
श्रीशुकदेव जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभा के बीचो-बीच प्रह्लाद, बलि, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदों के सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये, तब देवर्षि नारद ने भगवान् और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की।
दृष्ट्वा प्रसन्नं महदासने हरिं
ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा ।
भवो भवान्या कमलासनस्तु
तत्रागमत् कीर्तनदर्शनाय ॥
भगवान् को प्रसन्न देखकर देवर्षि ने उन्हें एक विशाल सिंहासन पर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे, उस कीर्तन को देखने के लिये श्रीपार्वतीजी के सहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी आये।
प्रह्लादस्तालधारी तरलगतितया चोद्धवः कांस्यधारी
वीणाधारी सुरर्षि स्वरकुशलतया रागकर्तार्जुनोऽभूत् ।
इन्द्रोऽवादीन्मृदङ्गं जय जय सुकराः कीर्तने ते कुमारा
यत्राग्रे भववक्ता सरसरचनया व्यासपुत्रो बभूव ॥
कीर्तन आरम्भ हुआ,प्रह्लादजी तो चञ्चलगति (फुर्तीले) होनेके कारण करताल बजाने लगे, उद्धवजी ने झाँझें उठा लीं, देवर्षि नारद वीणा की ध्वनि करने लगे, स्वर-विज्ञान (गान-विद्या) में कुशल होने के कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्र ने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया, सनकादि बीच-बीच में जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेव जी तरह-तरह की सरस अङ्गभङ्गी करके भाव बताने लगे इन सबके बीच में परम तेजस्वी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नटों के समान नाचने लगे, ऐसा अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहने लगे—
मत्तो वरं भाववृताद्वृणुध्वं
प्रीतः कथाकीर्तनतोऽस्मि साम्प्रतम् ।
श्रुत्वेति तद्वाक्यमतिप्रसन्नाः
प्रेमार्द्रचित्ता हरिमूचिरे ते।।
‘मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तन से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे भक्तिभाव ने इस समय मुझे अपने वश में कर लिया है। अत: तुम लोग मुझसे वर माँगो’। भगवान् के ये वचन सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और प्रेमाद्र चित्त से भगवान् से कहने लगे-
नगाहगाथासु च सर्वभक्तैः
एभिस्त्वया भाव्यमिति प्रयत्नात् ।
मनोरथोऽयं परिपूरनीयः
तथेति चोक्त्वान्तरधीयताच्युतः ॥
‘भगवन् ! हमारी यह अभिलाषा है कि भविष्य में भी जहाँ-कहीं सप्ताह-कथा हो, वहाँ आप इन पार्षदों के सहित अवश्य पधारें। हमारा यह मनोरथ पूर्ण कर दीजिये’, भगवान् ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये।
इसके पश्चात् नारदजी ने भगवान् तथा उनके पार्षदों के चरणों को लक्ष्य करके प्रणाम किया और फिर शुकदेव जी आदि तपस्वियों को भी नमस्कार किया, कथामृत का पान करने से सब लोगों- को बड़ा ही आनन्द हुआ, उनका सारा मोह नष्ट हो गया, फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानों को चले गये।
भक्तिः सुताभ्यां सह रक्षिता सा
शास्त्रे स्वकीयेऽपि तदा शुकेन ।
अतो हरिर्भागवतस्य सेवनात्
चित्तं समायाति हि वैष्णवानाम् ॥
उस समय शुकदेवजी ने भक्ति को उसके पुत्रों सहित अपने शास्त्र में स्थापित कर दिया,इसी से भागवत का सेवन करने से श्रीहरि वैष्णवों के हृदय में आ विराजते हैं।
दारिद्र्यदुःखज्वरदाहितानां
मायापिशाचीपरिमर्दितानाम्।
संसारसिन्धौ परिपातितानां
क्षेमाय वै भागवतं प्रगर्जति ॥
जो लोग दरिद्रता के दु:ख ज्वर की ज्वाला से दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया-पिशाची ने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्र में डूब रहे हैं, उनका कल्याण करने के लिये श्रीमद्भागवत सिंहनाद कर रहा है।
शौनकजी ने पूछा—
सूतजी ! शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को, गोकर्ण ने धुन्धुकारी को और सनकादि ने नारदजी को किस-किस समय यह ग्रन्थ सुनाया था—मेरा यह संशय दूर कीजिये।
सूतजी ने कहा—
आकृष्णनिर्गमात् त्रिंशत् वर्षाधिकगते कलौ ।
नवमीतो नभस्ये च कथारंभं शुकोऽकरोत् ॥
परीक्षित् श्रवणान्ते च कलौ वर्षशतद्वये ।
शुद्धे शुचौ नवम्यां च धेनुजोऽकथयत्कथाम् ॥
तस्मादपि कलौ प्राप्ते त्रिंशत् वर्षगते सति ।
ऊचुरूर्जे सिते पक्षे नवम्यां ब्रह्मणः सुताः ॥
इत्येत्तते समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
कलौ भागवती वार्ता भवरोगविनाशिनी ॥
भगवान् श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के बाद कलियुग के तीस वर्ष से कुछ अधिक बीत जाने पर भाद्रपद मास की शुक्ला नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरम्भ की थी, राजा परीक्षित् के कथा सुनने के बाद कलियुग के दो सौ वर्ष बीत जाने पर आषाढ़ मास की शुक्ला नवमी को गोकर्णजी ने यह कथा सुनाई थी,इसके पीछे कलियुग के तीस वर्ष और निकल जाने पर कार्तिक शुक्ला नवमी से सनकादि ने कथा आरम्भ की थी, निष्पाप शौनकजी ! आपने जो कुछ पूछा था, उसका उत्तर मैंने आपको दे दिया, इस कलियुग में भागवत की कथा भवरोग की रामबाण औषध है ।
सूत जी कहते हैं -
कृष्णप्रियं सकलकल्मषनाशनं च
मुक्त्येकहेतुमिह भक्तिविलासकारि।
सन्तः कथानकमिदं पिबतादरेण
लोके हि तीर्थपरिशीलनसेवया किम् ॥
संतजन ! आप लोग आदर पूर्वक इस कथामृत का पान कीजिये, यह श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय, सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाला, मुक्ति का एकमात्र कारण और भक्ति को बढ़ाने वाला है। लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनों का विचार करने और तीर्थों का सेवन करने से क्या होगा।
अपने दूत को हाथ में पाश लिये देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं-
परिहर भगवत्कथासु मत्तान्
प्रभुरहमन्युनृणां न वैष्णवानाम् ॥
‘देखो, जो भगवान् की कथा- वार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को ही दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवों को नहीं।
असारे संसारे विषयविषसङ्गाकुलधियः
क्षणार्धं क्षेमार्थं पिबत शुकगाथातुलसुधाम् ।
किमर्थं व्यर्थं भो व्रजथ कुपथे कुत्सितकथे
परीक्षित्साक्षी यत् श्रवणगतमुक्त्युक्तिकथने ॥
इस असार संसार में विषय रूप विष की आसक्ति के कारण व्याकुल बुद्धि वाले पुरुषो ! अपने कल्याण के उद्देश्य से आधे क्षण के लिये भी इस शुककथा रूप अनुपम सुधा का पान करो, प्यारे भाइयो ! निन्दित कथाओं से युक्त कुपथ में व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? इस कथा के कान में प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बात के साक्षी राजा परीक्षित् हैं।
रसप्रवाहसंस्थेन श्रीशुकेनेरिता कथा ।
कण्ठे संबध्यते येन स वैकुण्ठप्रभुर्भवेत् ॥
श्रीशुकदेवजी ने प्रेमरस के प्रवाह में स्थित होकर इस कथा को कहा था, इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह वैकुण्ठ का स्वामी बन जाता है।
शौनकजी ! मैंने अनेक शास्त्रों को देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी-अभी सुनाया है,सब शास्त्रों के सिद्धान्तों का यही निचोड़ है-
जगति शुककथातो निर्मलं नास्ति किञ्चित्
पिब परसुखहेतोर्द्वादशस्कन्धसारम् ॥
संसार में इस शुकशास्त्र से अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अत: आपलोग परमानन्द की प्राप्ति के लिये इस द्वादशस्कन्ध रूप रस का पान करें, जो पुरुष नियम पूर्वक इस कथा का भक्ति-भाव से श्रवण करता है, और जो शुद्धान्त:करण भगवद्भक्तों के सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधि का पूरा-पूरा पालन करने के कारण इसका यथार्थ फल पाते हैं—उनके लिये त्रिलोकी में कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता -
एतां यो नियततया श्रृणोति भक्त्या
यश्चैनां कथयति शुद्धवैष्णवाग्रे ।
तौ सम्यक् विधिकरणात्फलं लभेते
याथार्थ्यान्न हि भुवने किमप्यसाध्यम् ॥
इस प्रकार श्रीमद् भागवत सप्ताह ज्ञान यज्ञ की जो विधि थी वह संपूर्ण रूप से हमने बता दी अगर आपके मन में कोई भी प्रश्न हो जिज्ञासा हो तो आप हमें कमेंट करके बता सकते हैं या फिर हमें फोन करके या ईमेल के द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं धन्यवाद
thanks for a lovly feedback