चतुः श्लोकी भागवत हिन्दी शब्दार्थ एवं हिन्दी अनुवाद सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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चतुःश्लोकी_भागवत
चतुः श्लोकी भागवत


अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । 

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥३३॥

हिन्दी शब्दार्थ —

अहम्—मैं, भगवान्; एव–निश्चय ही; आसम्— था; एव – केवल; अग्रे-सृष्टि के पहले; —कभी नहीं; अन्यत्— अन्य कुछ; यत् — जो; सत्— कार्य; असत् — कारण; परम् — परम; पश्चात् —अंत में; अहम् — मैं भगवान्; यत् — ये सब; एतत्-सृष्टि; - भी; यः - प्रत्येक वस्तु; अवशिष्येत- बची रहती है; सः - वह; अस्मि — हूँ; अहम्- मैं, भगवान्।

हिन्दी अनुवाद —

हे ब्रह्मा! वह मैं ही भगवान् हूँ, जो सृष्टि के पूर्व विद्यमान था, जब मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। तब इस सृष्टि की कारणस्वरूपा भौतिक प्रकृति भी नहीं थी। जिसे तुम अब देख रहे हो, वह भी मैं ही हूँ और प्रलय के पश्चात् जो शेष रहेगा, वह भी मैं भगवान् ही हूँ ।

ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । 

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥३४॥

हिन्दी शब्दार्थ —

ऋते-रहित: अर्थम्—सार; यत् — जो; प्रतीयेत - प्रतीत होता है; न- नहीं; प्रतीयेत- प्रतीत होता है; -तथा; आत्मनि—मेरे प्रसंग में; तत्—वह विद्यात्—तुम्हें जानना चाहिए; आत्मनः- मेरी मायाम्— माया; यथा- जिस तरह; आभासः - प्रतिबिम्ब; यथा- जिस प्रकार; तम:- अन्धकार ।

हिन्दी अनुवाद —

हे ब्रह्मा! जो कुछ भी सारयुक्त प्रतीत होता है, यदि वह मुझसे सम्बन्धित नहीं है, तो उसमें कोई वास्तविकता नहीं है। इसे मेरी माया जानो, इसे ऐसा प्रतिबिम्ब मानो जो अन्धकार में प्रकट होता है।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । 

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥३५॥

हिन्दी शब्दार्थ —

यथा— जिस तरह; महान्ति — सर्वव्यापी; भूतानि - तत्त्व; भूतेषु - प्राणियों में, उच्च - अवचेषु — लघु तथा विराट् में; अनु— पीछे; प्रविष्टानि - प्रवेश कर लिया; अप्रविष्टानि - प्रविष्ट नहीं; तथा—उसी तरह; तेषु—उनमें; न – नहीं; तेषु — उनमें; अहम् — मैं ।

हिन्दी अनुवाद —

हे ब्रह्मा! तुम यह जान लो कि ब्रह्माण्ड के सारे तत्त्व विश्व में प्रवेश करते हुए भी प्रवेश नहीं करते हैं। उसी प्रकार मैं उत्पन्न की गई प्रत्येक वस्तु में स्थित रहते हुए भी प्रत्येक वस्तु से पृथक् रहता हूँ।

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मनः । 

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥३६॥

हिन्दी शब्दार्थ —

एतावत् — यहाँ तक; एव – निश्चय ही; जिज्ञास्यम्-पूछा जाना चाहिए; तत्त्व- परम सत्य; जिज्ञासुना- विद्यार्थी द्वारा; आत्मनः-स्वयं का, अन्वय- प्रत्यक्ष, व्यतिरेकाभ्याम् - अप्रत्यक्ष रूप से; यत् — जो भी; स्यात् - सम्भव है; सर्वत्र- सभी जगह तथा सर्व काल में; सर्वदा – समस्त परिस्थितियों में।

हिन्दी अनुवाद —

जो व्यक्ति परम सत्य रूप श्रीभगवान् की खोज में लगा हो, उसे चाहिए कि वह समस्त परिस्थितियों में सर्वत्र और सर्वदा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही प्रकार से इसकी खोज करे।

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