शुकदेव भगवान का प्राकट्य,भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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तत्राभवद्भगवान् व्यासपुत्रो

यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः। 

अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो 

वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥२५॥

हिन्दी शब्दार्थ -

तत्र — वहाँ; अभवत् — प्रकट हुए; भगवान्–शक्तिशाली; व्यास-पुत्रः -श्री व्यासदेव के पुत्र; यदृच्छया- अपनी इच्छानुसार; गाम्– पृथ्वी में; अटमानः- निरन्तर विचरण करते; अनपेक्ष:- उदासीन; अलक्ष्य-अव्यक्त; लिङ्गः-लक्षण; निज-लाभ- स्वरूपसिद्ध; तुष्टः- संतुष्ट; वृतः - घिरे हुए;- तथा; बालैः- बालकों से; अवधूत—अन्य व्यक्तियों द्वारा उपेक्षित; वेषः - वेशभूषा में।

हिन्दी अनुवाद -

  उसी समय श्री व्यासदेव के शक्तिसम्पन्न पुत्र वहाँ प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण पृथ्वी पर उदासीन तथा आत्मतुष्ट होकर विचरण करते रहते थे। उनमें किसी सामाजिक व्यवस्था या जीवन स्तर (वर्णाश्रम धर्म ) का कोई लक्षण प्रकट नहीं होता था। वे स्त्रियों तथा बच्चों से घिरे थे और इस प्रकार का वेश धारण किये थे, मानों दूसरों ने उन्हें उपेक्षित किया हो।

हिन्दी भावार्थ -

  भगवान् शब्द कभी-कभी श्री शुकदेव स्वामी जैसे परमेश्वर के महान् भक्तों के लिए प्रयुक्त होता है। ऐसे मुक्त जीव इस भौतिक जगत् के कार्य-व्यापार में उदासीन रहते हैं, क्योंकि वे भक्तिमय सेवा की महान् उपलब्धियों से ही आत्मतुष्ट रहते हैं। जैसाकि पूर्व में बताया जा चुका है, श्री शुकदेव स्वामी ने न तो कोई औपचारिक गुरु को स्वीकार किया, न ही कोई औपचारिक संस्कार सम्पन्न किये। उनके पिता श्री व्यासदेव उनके नैसर्गिक गुरु थे, क्योंकि श्री शुकदेव स्वामी ने श्रीमद्भागवत इन्हीं से सुना। इसके पश्चात् वे पूर्ण रूप से आत्मतुष्ट बन गए। इस प्रकार वे किसी औपचारिक विधि पर निर्भर नहीं थे। औपचारिक विधियाँ तो उनके लिए आवश्यक हैं, जो पूर्ण मोक्ष अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन श्री शुकदेव स्वामी तो अपने पिता की कृपा से पूर्व से उस अवस्था में ही थे। तरुण बालक होने के नाते उनसे समुचित वेश में रहने की आशा की जाती थी, लेकिन वे नग्न रहते और किसी सामाजिक परिपाटी में रुचि न दिखाते। सामान्य जन उनकी उपेक्षा करते थे; किन्तु वे जिज्ञासु बालकों तथा स्त्रियों से ऐसे घिरे रहते, जैसेकि वे कोई पागल हों। इस प्रकार वे यहाँ पर तब प्रकट हुए, जब वे स्वेच्छा से पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। महाराज परीक्षित की जिज्ञासा से ऐसा प्रतीत होता है। कि महर्षिगण एकमत नहीं हो पा रहे थे कि क्या किया जाए। आध्यात्मिक मोक्ष हेतु विभिन्न व्यक्ति विभिन्न प्रकार की युक्तियाँ बताते हैं। किन्तु जीवन का परम लक्ष्य भक्ति की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था प्राप्त करना है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न डॉक्टर भिन्न-भिन्न औषध विधि बताते हैं, उसी प्रकार मुनियों में भी मत-भिन्नता होती है। जब ये सभी बातें चल रही थीं, तभी श्री व्यासदेव के शक्तिसम्पन्न (तेजस्वी) पुत्र वहाँ पर प्रकट हुए।

तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद- 

करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् ।

चार्वायताक्षोन्नतुल्यकर्ण- 

सुभ्रवाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥२६॥

हिन्दी शब्दार्थ -

तम्—उसको; द्वि-अष्ट-सोलह वर्षम्-वर्ष; सु-कुमार- कोमल; पाद-पाँव कर- हाथ ऊरु- जाँघें; बाहु― भुजाएँ; अंस-कंधे कपोल – गाल; गात्रम् - शरीर; चारु – सुन्दर; आयत-चौड़ा; अक्ष- आँखें; उन्नस-ऊँची नाक; तुल्य-एक-से; कर्ण-कान; सुभ्रु -अच्छी भौंहें; आननम्-चेहरा, मुख-मण्डल, कम्बु-शंख सुजात-सुगठित; कण्ठम्-कण्ठ, गर्दन।

हिन्दी अनुवाद -

  श्री व्यासदेव के इस पुत्र की आयु मात्र सोलह वर्ष थी। उनके पाँव, हाथ, जाँघें, भुजाएँ, कंधे, ललाट तथा शरीर के अन्य भाग अत्यन्त सुकोमल तथा सुगठित बने थे। उनकी आँखें सुन्दर, बड़ी-बड़ी तथा नाक और कान उठे हुए थे। उनका मुख-मण्डल अत्यन्त आकर्षक था और उनकी गर्दन सुगठित एवं शंख जैसी सुन्दर थी।

हिन्दी भावार्थ -

  सम्मानित व्यक्ति का वर्णन पाँवों से शुरू किया जाता है और यह सम्मान -प्रणाली श्री शुकदेव स्वामी के प्रति भी प्रदर्शित की गई हैं। वे मात्र सोलह वर्ष के थे। व्यक्ति का सम्मान उसकी उपलब्धियों के लिए किया जाता है, न कि उसकी बड़ी आयु के लिए। व्यक्ति अनुभव के आधार पर अधिक सयाना हो सकता है, आयु से नहीं। श्री शुकदेव स्वामी, जिन्हें यहाँ पर श्री व्यासदेव के पुत्र के रूप में बताया गया है, अपने ज्ञान के आधार पर वहाँ उपस्थित समस्त मुनियों से अधिक अनुभवी थे, यद्यपि अभी वे मात्र सोलह वर्ष के थे।

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