जय राम रमारमनं समनम्

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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जय राम रमारमनं समनं।

भवताप भयाकुल पाहि जनं

अवधेस सुरेस रमेस बिभो।

सरनागत मागत पाहि प्रभो॥

  हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। 

दससीस बिनासन बीस भुजा

कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥

रजनीचर बृंद पतंग रहे।

सर पावक तेज प्रचंड दहे॥

 हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान्‌ रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥

महि मंडल मंडन चारुतरं।

धृत सायक चाप निषंग बरं।

मद मोह महा ममता रजनी।

तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥

  आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान्‌ मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं । 

मनजात किरात निपात किए।

मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥

हति नाथ अनाथनि पाहि हरे।

बिषया बन पावँर भूलि परे॥

  कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए। 

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए।

भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥ 

भव सिंधु अगाध परे नर ते।

पद पंकज प्रेम न जे करते॥

  लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं। 

अति दीन मलीन दुखी नितहीं।

जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥

अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें।

प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥

  जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान्‌ सदा प्रिय लगने लगते हैं॥

नहिं राग न लोभ न मान सदा।

तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥

एहि ते तव सेवक होत मुदा।

मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥

  उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं। 

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ।

पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥

सम मानि निरादर आदरही।

सब संतु सुखी बिचरंति मही॥

   वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं। 

मुनि मानस पंकज भृंग भजे।

रघुबीर महा रनधीर अजे॥

तव नाम जपामि नमामि हरी।

भव रोग महागद मान अरी॥

  हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान्‌ रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान्‌ औषध और अभिमान के शत्रु हैं। 

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