यः "स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेकम्" श्लोक का हिन्दी शब्दार्थ एवं हिन्दी भावानुवाद, भागवत के श्लोकों का हिन्दी शब्दार्थ, भागवत के श्लोक का हिन्दी अनुवाद,
यः स्वानुभावमखिलश्रुतिसारमेक-
मध्यात्मदीपमतितितीर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाह पुराणगुह्यं
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ॥३॥
हिन्दी शब्दार्थ —
यः – जो; स्व-अनुभावम् — आत्मानुभवी; अखिल-समस्त; श्रुति-वेदों का; सारम्—सार, निष्कर्ष; एकम्-एकमात्र अध्यात्म- दिव्य दीपम् दीपक; अतितितीर्षताम्-पार जाने की इच्छा से; तमः-अन्धम् — गहन अन्धकारमय भौतिक अस्तित्व; संसारिणाम्—भौतिकवादी मनुष्यों का; करुणया - अहैतुकी कृपा से; आह— कहा; पुराण- पुराण, वेदों के पूरक ग्रन्थः गुह्यम् — अत्यन्त गोपनीयः तम्— उन; व्यास-सूनुम् -श्री व्यासदेवजी के पुत्र को; उपयामि – नमस्कार करता हूँ; गुरुम् — गुरु को; मुनीनाम्-मुनियों के ।
हिन्दी अर्थ —
मैं समस्त मुनियों के गुरु, श्री व्यासदेवजी के पुत्र (श्री शुकदेव जी) को सादर नमस्कार करता हूँ, जिन्होंने संसार के गहन अन्धकारमय क्षेत्रों को पार करने हेतु संघर्षशील उन निपट भौतिकवादियों के प्रति अनुकम्पा करके वैदिक ज्ञान के साररूप इस परम गुह्य पुराण को अनुभव द्वारा स्वयं आत्मसात् करने के बाद कह सुनाया।
हिन्दी भावानुवाद —
इस स्तुति में श्री सूत जी श्रीमद्भागवतम् की पूर्ण भूमिका का सार प्रस्तुत करते हैं। श्रीमद्भागवतम् वेदान्तसूत्रों की सहज पूरक टीका है। श्री व्यासदेवजी ने वैदिक ज्ञान का सार प्रस्तुत करने के उद्देश्य से वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र का संकलन किया था। श्रीमद्भागवतम् इस सार का सहज भाष्य है। श्री शुकदेव जी वेदान्तसूत्र के पूर्ण रूप से अनुभूत पण्डित थे, अतः उन्होंने इस टीका, श्रीमद्भागवतम् की भी स्वयं अनुभूति की थी। और जो अज्ञानता के सागर को पूर्ण रूप से पार करना चाहते हैं, ऐसे मोहग्रस्त भौतिकवादी व्यक्तियों पर असीम कृपा करके उन्होंने इस गुह्य ज्ञान को प्रथम बार सुनाया।
इस पर तर्क करना निरर्थक है कि भौतिकवादी व्यक्ति सुखी हो सकता है। कोई भी भौतिकवादी जीव-चाहे वह महान् ब्रह्मा हो या क्षुद्र चींटी, सुखी नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति सुख की स्थायी योजना बनाता है, किन्तु वह प्रकृति के नियमों से परास्त हो जाता है। अतः भौतिकवादी संसार ईश्वर की सृष्टि का सर्वाधिक अन्धकारमय भाग कहलाता है। तथापि दुःखी भौतिकवादी व्यक्तियों के इससे निकलने की मात्र इच्छा करने से ही वे बाहर निकल सकते हैं। दुर्भाग्यवश वे इतने मन्दबुद्धि हैं कि बाहर निकलना चाहते ही नहीं। अतः उनकी तुलना उस ऊँट से की जाती है, जिसे कँटीली टहनियाँ पसन्द हैं, क्योंकि रक्त से सनी टहनियों का स्वाद उसे अच्छा लगता है। वह ऐसा समझ नहीं पाता कि यह तो उसका अपना ही रक्त है और काँटों द्वारा उसकी जीभ कट रही है। इसी प्रकार भौतिकवादी व्यक्ति को अपना स्वयं का रक्त मधु की तरह मीठा लगता है और वह अपनी ही भौतिक कृतियों से परेशान होने पर भी उन्हें छोड़ना नहीं चाहता। ऐसे भौतिकवादी व्यक्ति कर्मी कहलाते हैं। ऐसे लाखों कर्मियों में से कुछ ही भौतिक व्यापार से ऊबकर इस भूलभुलैया से निकल भागना चाहते हैं। ऐसे बुद्धिमान् व्यक्ति ज्ञानी कहलाते हैं। वेदान्तसूत्र ऐसे ही ज्ञानियों के लिए है। किन्तु परमेश्वर का अवतार होने के कारण, श्री व्यासजी को पूर्वानुमान हो गया था कि धूर्त मनुष्य वेदान्तसूत्र का दुरुपयोग कर सकते हैं, इसीलिए उन्होंने वेदान्तसूत्र के पूरक रूप में श्रीमद्भागवत् पुराण की रचना की। यह स्पष्ट कथन है कि यह श्रीमद्भागवतम् ब्रह्मसूत्रों का मूल भाष्य है। श्री व्यासदेवजी ने अपने पुत्र श्री शुकदेव जी को भी श्रीमद्भागवतम् का उपदेश दिया, जो पूर्व से अध्यात्म अवस्था को प्राप्त एक मुक्त पुरुष थे। श्री शुकदेव स्वामी ने स्वयं इसकी अनुभूति की और तब इसका व्याख्यान किया। श्री शुकदेव जी की कृपा से श्रीमद्भागवतम् वेदान्तसूत्र उन सभी निष्ठावान् मनुष्यों के लिए सुलभ है, जो भवसागर से उबरना चाहते हैं।
श्रीमद्भागवतम् वेदान्तसूत्र का अद्वितीय भाष्य है। इस प्रारम्भिक श्लोक से जिज्ञासु को यह जानना चाहिए कि श्रीमद्भागवतम् ही एकमात्र दिव्य साहित्य है, जो परमहंसों तथा ईर्ष्या-द्वेष रूपी भौतिक रोग से मुक्त व्यक्तियों के लिए है। जो मनुष्य सचमुच इस भवसागर से पार निकलने के इच्छुक हैं, वे श्रीमद्भागवतम् का आश्रय ग्रहण कर सकते हैं; क्योंकि इसका प्रवचन मुक्त पुरुष श्री शुकदेव स्वामी ने किया है। यह वह दिव्य प्रकाशपुंज है जिसके द्वारा ब्रह्म, परमात्मा एवं श्रीभगवान् के रूप में अनुभूति किये जाने वाले दिव्य परम सत्य को भली-भाँति है देखा जा सकता है।
बहुत अच्छा..
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