नौमीड्य तेऽभ्रवपुषे, ब्रह्मा स्तुति, भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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नौमीड्यतेऽभ्रवपुषे तडिदम्बराय 

गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय । 

वन्यस्त्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु-

लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपाङ्गजाय ॥१॥ 

शब्दार्थ —

  श्री ब्रह्मा उवाच - ब्रह्माजी ने कहा; नौमि— मैं यशगान करता हूँ; ईड्य—हे सर्वाधिक पूज्य; ते — आपका; अभ्र —- काले बादल की तरह वपुषे—शरीर वाले; तडित्- बिजली की भाँति अम्बराय - जिनके वस्त्र; गुञ्जा—घुंघुची से बने अवतंस — (कान के) आभूषण; परिपिच्छ — मोर पंख लसत् — शोभायमान; मुखाय - जिनका मुख-मण्डल; वन्य- स्रजे — वनफूलों की माला पहने; कवल — ग्रास; वेत्र — दण्डः विषाण — भैंस के सींग का बना बिगुल वेणु — तथा बाँसुरी; लक्ष्म-लक्षणों से युक्त; श्रिये — जिसका सौन्दर्य; मृदु — कोमल पदे — जिसके पाँव पशु-प — ग्वाले (नन्द महाराज) के; अङ्ग-जाय — पुत्र को ।

भावार्थ —

  ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभु! आप ही एकमात्र पूज्य भगवान् हैं, आप ही पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर हैं, अतएव आपको प्रसन्न करने के लिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ और आपकी स्तुति करता हूँ । हे नन्दसूनु ! आपका दिव्य शरीर नवीन बादलों के समान घनश्याम है; आपके वस्त्र बिजली के समान देदीप्यमान हैं और आपके मुख-मण्डल का सौन्दर्य गुंजा के बने आपके कुण्डलों से तथा सिर पर लगे मोरपंख से बढ़ जाता है। अनेक वनफूलों तथा पत्तियों की माला पहने तथा चराने की छड़ी (लकुटी), शृंग और वंशी से सज्जित आप अपने हाथ में भोजन का ग्रास लिये हुए सुन्दर रीति से खड़े हुए हैं।

  भाव यह है कि पिछले अध्याय में ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी ने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के ग्वालमित्रों तथा उनके बछड़ों को चुराकर उनकी परीक्षा लेनी चाही थी। किन्तु जब भगवान् श्रीकृष्ण ने रंच भर अपनी योगशक्ति प्रदर्शित की, तो ब्रह्माजी स्वयं पूर्णतया मोहित हो गए और अब वे अत्यन्त विनय एवं भक्तिभाव से उन्हें सादर नमस्कार करके उनकी स्तुति करते हैं।

  इस लोक में कवल शब्द श्रीकृष्ण द्वारा बाएँ हाथ में चावल तथा दही के ग्रास का सूचक है। श्रील सनातन गोस्वामी के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण अपने हाथ में गाय चराने वाली छड़ी लिए थे और बाई काँख में श्रृंग दबाए थे। उनकी वंशी उनकी कमरपेटी के नीचे लगी थी। वन के रंग-बिरंगे खनिजों से अलंकृत सुन्दर बालकृष्ण वैकुण्ठ के ऐश्वर्य को लजा रहे थे। यद्यपि ब्रह्माजी ने श्रीभगवान् के असंख्य चतुर्भुज रूप देखे थे, किन्तु अब उन्होंने द्विभुज भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों में अपने आपको समर्पित कर दिया, जो नन्द महाराज के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। ब्रह्माजी ने इसी रूप की स्तुति की।


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