अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव, ब्रह्मा, स्तुति भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव

ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः । 

असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण 

सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥२८॥

हिन्दी शब्दार्थ —

अन्तः-भवे— शरीर के अन्दर; अनन्त — हे अनन्त प्रभु; भवन्तम्- आप; एव- निःसंदेह; हि–निश्चय ही; अतत्-आपसे पृथक् हर वस्तु त्यजन्तः- त्याग करते हुए; मृगयन्ति - खोज करते हैं; सन्तः - सन्त- भक्तगण; असन्तम्- अवास्तविक असत् अपि— भी; अन्ति—-पास ही उपस्थित; अहिम्—सर्प के भ्रम को अन्तरेण—-के बिना सन्तम्—वास्तविक; गुणम्- रस्सी को तम्—उस किम्-उ—क्या; यन्ति जानते हैं; सन्तः— आध्यात्मिक पद को प्राप्त व्यक्ति ।

हिन्दी अनुवाद—

   हे अनन्त भगवान्! सन्त-सदृश भक्तगण आपसे भिन्न हर वस्तु को नकारते हुए अपने ही शरीर के अन्दर आपको खोज निकालते हैं। निःसंदेह, विभेद करने वाले व्यक्ति भला किस तरह अपने समक्ष पड़ी हुई रस्सी की वास्तविक प्रकृति को जान सकते हैं, जब तक वे इस भ्रम का निराकरण नहीं कर लेते कि यह सर्प है ?

हिन्दी भावार्थ—

  कोई यह तर्क कर सकता है कि मनुष्य को चाहिए कि आत्म- साक्षात्कार का अनुशीलन करे और साथ ही साथ वह भौतिक शरीर के लिए इन्द्रियतृप्ति में लगा रहे। इस प्रस्ताव का निराकरण यहाँ पर रस्सी को सर्प समझने के दृष्टांत द्वारा किया गया है। भ्रमवश रस्सी को सर्प समझने वाला व्यक्ति भयभीत हो उठता है और तथाकथित सर्प के विषय में सोचता है।

  किन्तु यह पता चल जाने पर कि तथाकथित सर्प वास्तव में रस्सी है, उसे भिन्न भाव — शांति—का अनुभव होता है और तब वह रस्सी के प्रति उदासीन हो सकता है। इसी प्रकार चूँकि हम भौतिक शरीर को भ्रमवश 'स्व' मान लेते हैं, अतएव हमें शरीर को लेकर अनेक भावों की अनुभूति होती है।

  किन्तु यह पता चलने पर कि यह शरीर भौतिक रसायनों की पोटली मात्र हैं, हम ध्यानपूर्वक सोचते हैं कि यह भ्रम किस तरह उत्पन्न हुआ और तब शरीर के प्रति हमारी रुचि नहीं रह जाती। यह जान लेने पर कि हम शरीर के अन्दर रहने वाले शाश्वत आत्मा हैं, यह स्वाभाविक है कि हम अपना ध्यान वास्तविक आत्मा पर एकाग्र करते हैं।

  जो लोग सन्त स्वभाव के तथा बुद्धिमान् हैं, वे सदैव आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात् कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करते हैं, क्योंकि वे शरीर को 'स्व' मानने की मूर्खतापूर्ण भ्रामक पहचान को त्याग चुके होते हैं। ऐसे कृष्णभावनाभावित व्यक्ति शरीर के अन्दर परमात्मा रूप में वास करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अनुभूति करने की ओर अग्रसर होते हैं, जो प्रत्येक जीव के साक्षी एवं मार्गदर्शक हैं। परमात्मा तथा आत्मा की अनुभूति इतनी सुखद तथा संतोषप्रद होती है कि सिद्ध व्यक्ति उन सारी बातों को स्वयमेव छोड़ देता है, जो उसकी आध्यात्मिक प्रगति से सम्बन्ध नहीं रखती ।

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