तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो
भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥८॥
हिन्दी शब्दार्थ —
तत्— अतः; ते – आपकी; अनुकम्पाम्-दया की; सु-समीक्षमाणः- आशा रखते हुए; भुञ्जान:- सहन करते हुए; एव – निश्चय ही; आत्म-कृतम् —अपने से किया गया; विपाकम्—कर्मफल; हृत्—हृदय; वाक् –— वाणी; वपुर्भिः- तथा शरीर से ; विदधन् —अर्पित करते हुए; नमः - नमस्कार; ते-आपको; जीवेत—जीवित रहता है; यः – जो; मुक्ति-पदे—मुक्तिपद के लिए; सः – वह; दाय - भाक् — वास्तविक उत्तराधिकारी।
हिन्दी अनुवाद—
हे प्रभु! जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है, वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है, क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है।
हिन्दी भावार्थ —
भाव यह है कि जिस प्रकार वैध पुत्र को पिता का उत्तराधिकारी बनने के लिए केवल जीवित रहना होता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति भक्तियोग के नियमों का पालन करते हुए कृष्णभावनामृत को अपना प्राणाधार बनाता है, उसे स्वतः भगवद्कृपा प्राप्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में, वह भगवद्धाम को जाता है।
"सुसमीक्षमाण" शब्द सूचित करता है कि भक्त अपने पूर्व पापकृत्यों के कष्टकारक फलों को भोगते हुए भी श्रीभगवान् की कृपा की प्रतीक्षा करता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है कि जो भक्त उनकी शरण में चला जाता है, उसे पूर्वकर्म का फल नहीं भोगना पड़ता। फिर भी चूँकि भक्त के मन में अपनी पूर्व पाप मनोवृत्ति के अवशेष रह सकते हैं, अतः श्रीभगवान् कभी-कभी अपने भक्त को दण्ड देते प्रतीत होते हैं, जो पाप के फलों जैसा लग सकता है। ईश्वर की सम्पूर्ण सृष्टि का उद्देश्य जीव की उस प्रवृत्ति को सुधारना है, जिसमें वह ईश्वर के बिना भोग करना चाहता है, अत: किसी पापकर्म के लिए विशेष दण्ड दिया जाना उस मनोवृत्ति को कम करने के लिए होता है, जिससे वह कर्म हुआ होता है। यद्यपि भक्त श्रीभगवान् की भक्ति के अधीन रहता है, किन्तु जब तक वह कृष्णभावनामृत में पूर्णरूपेण दक्ष नहीं हो लेता, तब तक उसमें इस जगत् के मिथ्या सुख को भोगने की थोड़ी-थोड़ी प्रवृत्ति रह जाती है। इसलिए श्रीभगवान् इस बची हुई भोग-प्रवृत्ति को समूल नष्ट करने के लिए विशिष्ट स्थिति उत्पन्न करते हैं। निष्ठावान् भक्त द्वारा भोगा जाने वाला यह दुःख कर्मफल नहीं होता है, प्रत्युत यह श्रीभगवान् की विशिष्ट कृपा होती है कि वे उसे भौतिक जगत् छोड़कर भगवद्धाम वापस जाने की प्रेरणा देते हैं।
निष्ठावान् भक्त भगवद्धाम जाने के लिए इच्छुक रहता है, इसलिए वह खुशी-खुशी श्रीभगवान् के दयापूर्ण दण्ड को स्वीकार करता है और वह मन, वचन तथा कर्म से श्रीभगवान् को आदर देता है तथा नमस्कार करता है। श्रीभगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए श्रीभगवान् का ऐसा प्रामाणिक दास ईश्वर का वैध पुत्र बन जाता है, जैसा कि यहाँ "दायभाक्" शब्दों से सूचित होता है। जिस प्रकार स्वयं अग्नि बने बिना कोई भी व्यक्ति सूर्य के समीप नहीं पहुँच सकता, उसी तरह कठोर शुद्धीकरण विधि का पालन किये बिना कोई परम पवित्र भगवान् श्रीकृष्ण तक नहीं पहुँच सकता - यह शुद्धीकरण भले ही कष्ट जैसा प्रतीत हो, किन्तु यह श्रीभगवान् के हाथों द्वारा किया गया उपचार होता है।
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