गोपी गीत गोपी गीत हिन्दी अर्थ सहित गोपी गीत हिन्दी अनुवाद गोपी गीत सम्पूर्ण गोपी गीत शब्दार्थ गोपी गीत हिन्दी भावार्थ गोपी गीत का हिन्दी अनुवाद भागवत
गोप्य ऊचुः
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्
त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥१॥
शब्दार्थ —
गोप्यः ऊचुः – गोपियों ने कहा; जयति — जय हो; ते— आपकी; अधिकम् — अधिक, जन्मना - जन्म से; व्रजः- ब्रजभूमि; श्रयते वास करती है; इन्दिरा-लक्ष्मीदेवी; शश्वत्-निरन्तर; अत्र—यहाँ हि - नि:संदेह; दयित— हे प्रिय; दृश्यताम् —(आप) देखे जा सकें; दिक्षु-सभी दिशाओं में; तावका:- आपके (भक्त); त्वयि - आपके लिए: धृत-धारण किये हुए असव:- अपने प्राण; त्वाम्-आपको; विचिन्वते- खोज रही हैं।
भावार्थ —
गोपियों ने कहा- हे प्रियतम ! ब्रजभूमि में आपका जन्म होने से ही यह भूमि अत्यधिक महिमावान हो गई है और इसीलिए इन्दिरा (लक्ष्मी) यहाँ सदैव निवास करती हैं। केवल आपके लिए ही हम आपकी भक्त दासियाँ अपना जीवन जी रही हैं। हम आपको सर्वत्र ढूँढ़ रही हैं, अतः कृपा करके हमें अपना दर्शन दीजिये।
शरदुदाशये साधुजातसत्-
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः ॥२॥
शब्दार्थ —
शरत्—शरद ऋतु का; उद-आशये – जलाशय में; साधु-उत्तम रीति से; जात —उगा; सत्—सुन्दर; सरसि-ज–कमल के फूलों के; उदर-मध्य में; श्री-सौन्दर्य मुषा- अद्वितीय; दृशा— आपकी चितवन से; सुरत-नाथ- हे प्रेम के स्वामी; ते—आपकी; अशुल्क—मुफ्त, बिना मूल्य की; दासिकाः – दासियाँ, वर-द- हे वरों के दाता, निघ्नतः - बध करने वाले; न —नहीं; इह—इस जगत् में; किम् —क्यों; वधः - हत्या।
भावार्थ—
हे प्रेम के स्वामी! आपकी चितवन शरदकालीन जलाशय के अन्दर सुन्दरतम सुनिर्मित कमल के कोश की सुन्दरता को मात देने वाली है। हे वर-दाता! आप उन दासियों का वध कर रहे हैं, जिन्होंने बिना मोल ही स्वयं को आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया है। क्या यह वध नहीं है ?
भावार्थ यह है कि शरद ऋतु में कमलकोश की विशेष सुन्दरता होती हैं, किन्तु यह अद्वितीय सौन्दर्य भगवान् श्रीकृष्ण की चितवन के सौन्दर्य के आगे फीका पड़ गया है।
विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्
वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतो भयाद्
ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥
शब्दार्थ —
विष – विषैला; जल-जल (यमुना जल जो कालिय द्वारा दूषित था) से; अप्ययात्- विनाश से; व्याल—भयानक; राक्षसात्— (अघ) राक्षस से; वर्ष–वर्षा (इन्द्र द्वारा की गई) से; मारुतात्–तथा बवन्डर (तूफान) से (तृणावर्त द्वारा उत्पन्न); वैद्युत-अनलात्—वज्र (इन्द्र के) से; वृष-बैल (अरिष्टासुर) से; मय-आत्मजात् – मय के पुत्र (व्योमासुर) से; विश्वतः– सभी; भयात्-भय से; ऋषभ — हे पुरुषों में श्रेष्ठ; ते-आपके द्वारा; वयम् - हम; रक्षिताः — रक्षा की जाती रही हैं; मुहुः — बारम्बार ।
भावार्थ —
हे पुरुषश्रेष्ठ! आपने हम सबको बारम्बार विविध प्रकार के संकटों से बचाया है- यथा विषैले जल से, मानवभक्षी भयंकर अघासुर से, मूसलाधार वर्षा से, तृणावर्त से, इन्द्र के अग्नितुल्य वज्र से, वृषासुर से तथा मय दानव के पुत्र से इत्यादि ।
भाव यह है कि यहाँ पर गोपियाँ कहना चाहती हैं, “हे कृष्ण ! आपने हमें अनेक भयंकर संकटों से उबारा है, तो क्या अब जबकि हम आपके वियोग-दुःख से मरी जा रही हैं, आप पुनः हमें नहीं बचाएंगे ?" गोपियाँ अरिष्टासुर तथा व्योमासुर का नाम इसलिए लेती हैं, क्योंकि यह भली-भाँति ज्ञात है कि भले ही भगवान् श्रीकृष्ण ने अभी इन असुरों का वध नहीं किया, किन्तु वे आगे चलकर उन्हें मारेंगे क्योंकि श्रीभगवान् के जन्म के समय गर्ग तथा भृगु आदि मुनियों ने यह भविष्यवाणी की थी।
न खलु गोपीकानन्दनो भवान्
अखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥४॥
न— नहीं; खलु — निःसंदेह; गोपिका - गोपी, यशोदा के; नन्दनः - पुत्र; भवान् — आप अखिल — समस्त; देहिनाम् — देहधारी जीवों के; अन्तः — आत्म-अंत:करण का; दृक् — द्रष्टा; विखनसा — ब्रह्माजी द्वारा; अर्थितः - प्रार्थना किये जाने पर विश्व विश्व की; गुप्तये — रक्षा के लिए; सखे — हे मित्र !; उदेयिवान् — आपका उदय हुआ; सात्वताम् — सात्वतों के; कुले — कुल में।
भावार्थ —
हे सखा ! आप वास्तव में गोपी यशोदा के पुत्र नहीं, अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अंतस्थ साक्षी हैं। चूँकि ब्रह्माजी ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्थना की थी, इसलिए अब आप सात्वतकुल में प्रकट हुए हैं।
गोपियों के कहने का आशय यही है कि, “आप तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए अवतरित हुए हैं, तो फिर आप अपने ही भक्तों की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं?"
विरचिताभयं वृष्णिधूर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ —
विरचित—– उत्पन्न किया; अभयम् — अभय; वृष्णि — वृष्णिकुल का; धुर्य—हे श्रेष्ठ; ते—आपके; चरणम्—चरण; ईयुषाम् — निकट पहुँचने वालों के; संसृतेः— भौतिक जगत् के; भयात् — भय से कर —आपका हाथ; सर:-रुहम्— कमल के सदृश; कान्त— हे प्रेमी; काम- इच्छाएँ; दम् — पूरा करने वाला; शिरसि — सिरों पर; धेहि—कृपया रखें; नः – हमारे; श्री – लक्ष्मीदेवी के; कर—हाथ; ग्रहम्— पकड़ते हुए।
भावार्थ —
हे वृष्णिश्रेष्ठ! लक्ष्मीजी के हाथ को थामने वाला आपका कमल-सदृश हाथ उन लोगों को अभय दान देता है, जो भौतिक अस्तित्व के भय से आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं। हे प्रियतम! कामना को पूर्ण करने वाले उसी करकमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें।
व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥६॥
शब्दार्थ —
व्रज-जन — व्रज के लोगों के; आर्ति — कष्ट के; हन्―नष्ट करने वाले; वीर-हे वीर; योषिताम् — स्त्रियों के; निज-अपने; जन-लोगों का; स्मय-गर्व; ध्वंसन- विनष्ट करते हुए; स्मित-मन्द हँसी; भज-स्वीकार करें; सखे — हे मित्र; भवत् — आपकी किङ्करी: —दासियाँ; स्म — नि:संदेह; नः — हमको; जल-रुह— कमल; आननम् — मुख वाले; चारु — सुन्दर; दर्शय – कृपा करके दिखाइये।
भावार्थ —
हे ब्रज के लोगों के कष्टों को विनष्ट करने वाले ! हे समस्त स्त्रियों के वीर! आपकी हँसी आपके भक्तों के मिथ्या अभिमान को चूर-चूर करती है। हे मित्र! आप हमें अपनी दासियों के रूप में स्वीकार करें और हमें अपने सुन्दर मुखारविन्द का दर्शन दें।
प्रणतदेहिनां पापकर्षणं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥७॥
शब्दार्थ —
प्रणत—आपके शरणागत; देहिनाम्— देहधारी जीवों के; पाप—पाप; कर्षणम् —खींचने वाले या हटाने वाले; तृण—–घास; चर—चरने वाली (गाय); अनुगम्—पीछे-पीछे चलते हुए श्री—लक्ष्मीजी के; निकेतनम् — धाम; फणि— सर्प (कालिय) के; फणा-फणों पर; अर्पितम्–रखा; ते—आपके; पद-अम्बुजम् — चरणकमल; कृणु–कृपया रखें, कुचेषु—स्तनों पर; नः—हमारे; कृन्धि–काट डालिए; हृत्-शयम्—हमारे हृदय की कामवासना ।
भावार्थ—
आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले हैं। वे ही चरण गायों के पीछे-पीछे चारागाहों में चलते हैं और लक्ष्मीजी के दिव्य धाम हैं। चूँकि आपने एक बार उन चरणों को महासर्प कालिय के फनों पर रखा था, अतः अब आप उन्हें हमारे स्तनों पर रखें और हमारे हृदय की कामवासना को छिन्न-भिन्न कर दें।
भाव यह है कि याचना करती हुई गोपियाँ संकेत करती हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल सभी शरणागत बद्धजीवों के पापों को विनष्ट कर देते हैं। श्रीभगवान् इतने दयालु हैं कि वे गायों को चराने चारागाह भी जाते हैं और इस प्रकार उनके चरणकमल घास में भी उनका पीछा करते हैं। उन्होंने अपने चरणकमल लक्ष्मीजी को प्रदान किये हैं और उन्हें कालिय नाग के फनों पर भी रखा है। अतएव इन सब पर विचार करते हुए श्रीभगवान् को अपने चरणकमल गोपियों के स्तनों पर रखकर उनकी इच्छाओं को पूरा करना चाहिए। गोपियाँ यहाँ यही तर्क उपस्थित करती हैं।
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीर्
अधरसीधुनाप्याययस्व नः ॥८॥
शब्दार्थ —
मधुरया — मधुर; गिरा — अपनी वाणी से; वल्गु — मोहक वाक्यया — अपने शब्दों से; बुध — बुद्धिमान् को; मनो-ज्ञया—आकर्षक पुष्कर — कमल; ईक्षण–आँखों वाले; विधि-करी:—दासियाँ; इमा: — ये वीर - हे वीर; मुह्यती:— मोहित हो रही; अधर- आपके होंठों के; सीधुना — अमृत से; आप्याययस्व — जीवनदान दीजिये; नः — हमको ।
भावार्थ —
हे कमलनेत्र! आपकी मधुर वाणी तथा मोहक शब्द, जो कि बुद्धिमान् के मन को आकृष्ट करने वाले हैं, हम सबको अधिकाधिक मोह रहे हैं। हमारे प्रिय वीर, आप अपने होंठों के अमृत से अपनी दासियों को पुनरुज्जीवित कर दीजिये ।
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः ॥९॥
शब्दार्थ —
तव - आपके; कथा-अमृतम् — शब्दों का अमृत; तप्त-जीवनम् - भौतिक जगत् में दुखियारों का जीवन; कविभिः- बड़े-बड़े चिन्तकों द्वारा; ईडितम् — वर्णित; कल्मष-अपहम् — पापों को भगाने वाला; श्रवण-मङ्गलम् — सुनने पर आध्यात्मिक लाभ देने वाला; श्रीमत् — आध्यात्मिक शक्ति से पूर्ण; आततम् — संसार भर में विस्तीर्ण भुवि — भौतिक जगत् में; गृणन्ति — कीर्तन तथा प्रसार करते हैं; ये—जो लोग; भूरि-दा: — अत्यन्त उपकारी; जनाः—व्यक्ति ।
भावार्थ —
आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत् में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं। विद्वान् मुनियों द्वारा प्रसारित ये कथाएँ मनुष्य के पापों को समूल नष्ट करती हैं और सुनने वालों को सौभाग्य प्रदान करती हैं। ये कथाएँ जगत् भर में विस्तीर्ण हैं। और आध्यात्मिक शक्ति से ओतप्रोत हैं। निश्चय ही जो लोग श्रीभगवान् के संदेश का प्रसार करते हैं, वे सबसे बड़े दाता हैं।
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदि स्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥१०॥
शब्दार्थ —
प्रहसितम् — हँसना; प्रिय — स्नेहपूर्ण प्रेम — प्रेमपूर्ण; वीक्षणम्— चितवन; विहरणम् — घनिष्ठ लीलाएँ; च — तथा; ते — आपकी; ध्यान — ध्यान द्वारा; मङ्गलम् — शुभ; रहसि — एकान्त स्थान में; संविदः — वार्तालाप याः – जो; हृदि - हृदय में स्पृशः - स्पर्श; कुहक—हे छलिया नः - हमारे मनः- मनों को; क्षोभयन्ति —क्षुब्ध करती हैं; हि - नि:संदेह ।
भावार्थ —
आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ठ लीलाएँ तथा गुप्त वार्ताएँ - इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है और ये हमारे हृदयों को स्पर्श करती हैं। किन्तु उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मन को अतीव क्षुब्ध भी करती हैं।
चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥११॥
शब्दार्थ —
चलसि—आप जाते हो; यत्—जब; व्रजात्—गोपों के गाँव से; चारयन्— चराने के लिए; पशून्–पशुओं को; नलिन -कमल से भी बढ़कर; सुन्दरम् — सुन्दर; नाथ – हे स्वामी; ते—आपके; पदम्—चरण; शिल—अन्न के नुकीले सिरों से; तृण- घास; अङ्कुरैः — तथा अंकुरित पौधों से; सीदति —पीड़ा अनुभव करते हैं; इति — ऐसा सोचकर; नः — हमारे; कलिलताम् — बेचैनी; मनः – मन; कान्त—हे प्रियतम; गच्छति — अनुभव करते हैं।
भावार्थ —
हे स्वामी! हे प्रियतम! जब आप गाँव छोड़कर गायें चराने के लिए जाते हैं, तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते हैं कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार छिलके तथा घास- फूस एवं पौधे चुभ जाएंगे।
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्
वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्
मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥१२॥
शब्दार्थ —
दिन-दिन के; परिक्षये—अंत होने पर नील-नीले, कुन्तलैः—केश के गुच्छों से; वन-रुह— कमल; आननम् — मुख; बिभ्रत्— प्रदर्शित करता; आवृतम्— आच्छादित हुआ; घन-मोटा रजः- वलम् - धूल से सना; दर्शयन्—दिखलाते हुए; मुहुः – बारम्बार; मनसि —–मनों में; नः- हमारे; स्मरम्— कामदेव को; वीर—हे वीर; यच्छसि - रख रहे हो।
भावार्थ —
दिन ढलने पर आप हमें बारम्बार गहरे नीले केश की लटों से ढके तथा धूल से पूर्णरूपेण धूसरित अपना मुखारविन्द दिखलाते हैं। इस प्रकार, हे वीर! आप हमारे मन में कामवासना जागृत कर देते हैं।
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शन्तमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥१३॥
प्रणत– झुकने वालों की; काम—इच्छाएँ; दम्―पूरी करते हुए; पद्म-ज- ब्रह्माजी द्वारा; अर्चितम्—पूजित; धरणि— पृथ्वी के; मण्डनम् —आभूषण; ध्येयम्—ध्यान के पात्र; आपदि—विपत्ति के समय; चरण-पङ्कजम्― चरणकमल; शम्-तमम्—सर्वोच्च तुष्टि प्रदान करने वाले; च- तथा; ते—आपका; रमण—हे प्रियतमः नः- हमारे स्तनेषु- स्तनों पर; अर्पय—कृपया रखें; आधि-हन—मानसिक क्लेश का विनाश करने वाले।
भावार्थ —
ब्रह्माजी द्वारा पूजित आपके चरणकमल उन सबकी इच्छाओं को पूरा करते हैं, जो उनमें नतमस्तक होते हैं। वे पृथ्वी के आभूषण हैं, वे सर्वोच्च संतोष के प्रदाता हैं और संकट के समय चिन्तन के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं। हे प्रियतम! हे चिन्ता के विनाशक! आप कृपया उन चरणों को हमारे स्तनों पर रखें।
सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम् ॥१४॥
शब्दार्थ —
सुरत–माधुर्य सुख; वर्धनम् — बढ़ाने वाले; शोक—शोक; नाशनम् — विनष्ट करने वालेः स्वरित – ध्वनि की गई; वेणुना— आपकी वंशी द्वारा; सुष्ठु – अत्यधिकः चुम्बितम् — चुम्बन किया हुआ; इतर- अन्य; राग - आसक्ति; विस्मारणम्- विस्मरण कराने वाले; नृणाम् — मनुष्यों के; वितर - कृपया वितरण कीजिये; वीर - हे वीर; नः – हम पर; ते — आपके अधर-अधरों के; अमृतम् — अमृत को ।
भावार्थ —
हे वीर! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये, जो युगल आनन्द को बढ़ाने वाला और शोक को मिटाने वाला है। उसी अमृत का आस्वाद आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियाँ भुला देती है।
भाव यह है कि गोपियाँ कहती हैं, 'हे कृष्ण ! आप तो बिल्कुल सर्वश्रेष्ठ वैद्य धन्वन्तरि लगते हो। अतः हमें कोई औषधि दो, क्योंकि हम आपकी भोगेच्छा के रोग से पीड़ित हैं। आप हमें अपने होठों का औषधि रूप अमृत हमसे बिना किसी बड़े मूल्य लिए मुफ्त दो। आप तो बड़े दानवीर हो, इसलिए आपको चाहिए कि दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति को भी इसे बिना किसी मूल्य के दो। यह समझ लो कि हम अपना जीवन खोने वाली हैं और आप वह अमृत देकर हमें पुनः जीवनदान दे सकते हो। वैसे आपने इसे अपनी वंशी को तो दे ही रखा है, जो कि बाँस की 'खोखली छड़ी मात्र है। तब “भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, 'किन्तु इस जगत् में लोगों का भोजन तो सम्पत्ति, अनुयायी, परिवार इत्यादि से आसक्ति का है, जो बुरा है। अतः जिन्हें ऐसा बुरा भोजन मिलता हो, उन्हें वह औषधि नहीं मिलनी चाहिए, जिसे तुम लोगों ने मांगा है। "गोपियाँ कहती है "किन्तु इस औषधि से अन्य सारी आसक्तियाँ विस्मृत हो जाती हैं। यह औषधि इतनी अद्भुत है कि यह बुरे भोजन की आदत को भी ठीक कर देती है। इसलिए हे वीर ! वह अमृत हमें दे दो, क्योंकि आप बड़े दानी हो। "
अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम् ॥१५॥
शब्दार्थ —
अटति—भ्रमण करते हो; यत्-जब; भवान्–आप; अह्नि—दिन में; काननम् जंगल में; त्रुटि - लगभग १/१७०० सेकंड; युगायते—एक युग के बराबर हो जाता है; त्वाम्–आप; अपश्यताम्—न देखने वालों के लिए; कुटिल – घुँघराले; कुन्तलम्— बालों का गुच्छा; श्री-सुन्दर; मुखम् — मुखारविन्द च - तथा; ते — आपका; जडः— मूर्ख; उदीक्षताम्—उत्सुकता से देखने वालों को; पक्ष्म-पलकों का; कृत्-बनाने वाला; दृशाम् — आँखों का ।
भावार्थ —
जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तब क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखा प्रतीत होता है; क्योंकि हम आपको देख नहीं पातीं। और जब हम आपके सुन्दर मुखारविन्द को, जो घुँघराले केशों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर प्रतीत होता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारे आनन्द में बाधक बनती हैं, जिन्हें मूर्ख स्रष्टा ने बनाया है।
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवान्
अतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥१६॥
शब्दार्थ —
पति–पति; सुत—बालक; अन्वय-पूर्वजः भ्रातृ-भाई; बान्धवान्–तथा अन्य सम्बन्धियों को; अतिविलङ्घय —पूर्णतया उपेक्षा करके; ते― आपकी; अन्ति— उपस्थिति में; अच्युत—हे अच्युत; आगताः- —आई हुई; गति - हमारी चाल-ढाल का; विदः - प्रयोजन को जानने वाले; तव - आपका उद्गीत - (वंशी के) तेज गीत से; मोहिताः— मोहित; कितव — हे छलिया; योषितः — स्त्रियों को; कः —कौन त्यजेत्— त्याग करेगा; निशि — रात में।
भावार्थ —
हे अच्युत! आप भली-भाँति जानते हैं कि हम यहाँ क्यों आयी हैं। आप जैसे छलिये के अतिरिक्त भला और कौन होगा, जो अर्धरात्रि में उसकी बाँसुरी के तेज संगीत से मोहित होकर उसे मिलने के लिए आई तरुणी स्त्रियों का परित्याग करेगा? आपके दर्शन के लिए ही हमने अपने पतियों, बच्चों, बड़े-बूढ़ों, भाइयों तथा अन्य रिश्तेदारों को पूरी तरह ठुकरा दिया है।
रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥१७॥
शब्दार्थ —
रहसि — एकान्त में; संविदम् — गुप्त वार्ताएँ; हृत्-शय— हृदय में कामेच्छा का; उदयम्—उठना; प्रहसित - हँसता हुआ; आननम् — मुख; प्रेम – प्रेमपूर्ण; वीक्षणम्— चितवन; बृहत्—–चौड़ी; उर:— छाती; श्रियः - लक्ष्मीजी; वीक्ष्य - देखकर; धाम— धाम; ते — आपका; मुहुः - बारम्बार; अति — अत्यधिक; स्पृहा - लालसा; मुह्यते — मोह लेती है; मनः— मन को ।
भावार्थ —
जब हम आपके साथ एकान्त में हुईं घनिष्ठ वार्ताओं का चिन्तन करती हैं, तो अपने हृदयों में कामोदय का अनुभव करती हैं और आपकी हँसमुख आकृति, आपकी प्रेममयी चितवन तथा आपके चौड़े सीने का, जो कि लक्ष्मीजी का निवासस्थान है, स्मरण करती हैं तब हमारे मन बारम्बार मोहित हो जाते हैं। इस प्रकार हमें आपके लिए अत्यन्त तीव्र लालसा की अनुभूति होती है।
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥१८॥
शब्दार्थ —
व्रज-वन — ब्रज के जंगलों में; ओकसाम् — निवासियों के लिए; व्यक्तिः — प्राकट्य; अङ्ग — हे प्रिय; ते—आपका; वृजिन — दुःख का; हन्त्री — विनाश करने वाला; अलम् — बहुत हो गया, बस; विश्व-मङ्गलम् — विश्व के लिए मंगलकारी; त्यज—छोड़ दीजिये, मनाक् — थोड़ा; च — और ; नः — हमको; त्वत् —आपके लिए स्पृहा — लालसा; आत्मनाम् — पूरित ; स्व — अपने; जन— भक्तगण; हृत्—हृदयों में; रुजाम् — रोग का; यत् — जो; निषूदनम् — शमन करने वाला।
भावार्थ —
हे प्रियतम! आपका सर्व मंगलमय प्राकट्य ब्रज के वनों में रहने वालों के कष्ट को दूर करता है। हमारे मन आपके सान्निध्य के लिए लालायित हैं। आप हमें थोड़ी-सी वह औषधि दे दें, जो आपके भक्तों के हृदयों के रोग का शमन करती है।
आचार्यों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण से गोपियाँ अपने स्तनों पर उनके चरणकमलों को रखने की बारम्बार विनती करती हैं। गोपियाँ भौतिक काम की शिकार नहीं हैं, अपितु वे श्रीभगवान् के शुद्ध प्रेम में लीन रहने वाली हैं, अतएव वे अपने सुन्दर स्तन उन्हें अर्पित करके उनके चरणकमलों की सेवा करना चाहती हैं । संसारी यौनेच्छा के शिकार भौतिकवादी व्यक्ति कभी नहीं समझ पाएंगे कि ये प्रेम-व्यापार किस प्रकार शुद्ध आध्यात्मिक स्तर पर घटित होते हैं। यही तो भौतिकवादियों का महान् दुर्भाग्य है।
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किं स्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥१९॥
शब्दार्थ —
यत्—जो; ते—आपके; सु-जात — अतीव सुन्दर; चरण-अम्बु-रुहम् — चरणकमल को; स्तनेषु—स्तनों पर; भीताः- भयभीत होने से शनैः—धीरे धीरे; प्रिय—हे प्रिय; दधीमहि—हम रखती हैं; कर्कशेषु— कर्कश; तेन–उनसे; अटवीम्—जंगल में; अटसि-आप भ्रमण करते हैं; तत्-व्यथते — दुःखते हैं; न- नहीं; किम् स्वित्—हम आश्चर्य करती हैं; कूर्प-आदिभिः — छोटे कंकड़ों आदि से; भ्रमति—घूम जाता है; धी: — मन; भवत्-आयुषाम्—उन लोगों के लिए जिनके प्राण श्रीभगवान् हैं; नः- हमारा ।
भावार्थ —
हे प्रियतम ! आपके चरणकमल इतने कोमल हैं कि हम उन्हें धीरे से अपने स्तनों पर डरते हुए हल्के से ऐसे रखती हैं कि आपके पैरों को चोट पहुँचेगी। हमारा जीवन केवल आप पर टिका हुआ है। अतः हमारे मन इस चिन्ता से भरे हैं कि कहीं जंगल के मार्ग में भ्रमण करते समय आपके कोमल चरणों में कंकड़ों से चोट न लग जाए।
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