पुरुषस्वभावविहितान् यथावर्णं यथाश्रमम् । वैराग्यरागोपाधिभ्यामाम्नातोभयलक्षणान् ॥२६॥
हिन्दी शब्दार्थ —
पुरुष – मनुष्य; स्व-भाव - अपने स्वाभाविक गुणों से; विहितान्- नियत; यथा- के अनुसार; वर्णम्-जातियों का वर्गीकरण; यथा— के अनुसार; आश्रमम्-जीवन के आश्रम; वैराग्य- विरक्ति; राग - आसक्ति; उपाधिभ्याम् — ऐसी उपाधियों से; आम्नात—क्रमबद्ध रूप से; उभय-दोनों; लक्षणान्-लक्षणों को ।
हिन्दी अनुवाद —
महाराज युधिष्ठिर के पूछे जाने पर भीष्मदेव ने सर्वप्रथम व्यक्ति की योग्यताओं के अनुसार जातियों के वर्गीकरण (वर्ण) तथा जीवन के आश्रमों का पूरा वर्णन किया। फिर उन्होंने क्रमबद्ध रूप से वैराग्य द्वारा निवृत्ति तथा आसक्ति द्वारा प्रवृत्ति नामक दो उपखण्डों का वर्णन किया।
हिन्दी व्याख्या —
चार वर्णों तथा चार आश्रमों की अवधारणा, जैसी स्वयं श्रीभगवान् ने ( श्रीमद्भगवद्गीता ४.१३ में) प्रस्तुत की है, व्यक्ति में दिव्य गुणों को बढ़ाने हेतु है, जिससे वह अपने आध्यात्मिक स्वरूप को जान सके और तदनुसार भवबन्धन या बद्ध-जीवन से मुक्त होने का प्रयास कर सके। प्रायः सभी पुराणों में इस विषय का इसी भावना से वर्णन हुआ है और उसी प्रकार महाभारत के शांतिपर्व में, साठवें अध्याय से आगे भीष्मदेव द्वारा इसका विस्तृत वर्णन किया गया है।
सभ्य मनुष्यों के लिए वर्णाश्रम धर्म की संस्तुति इसलिए की जाती है, जिससे वे मानव जीवन को सफलतापूर्वक समाप्त करने की शिक्षा प्राप्त कर सकें। आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन में रत निम्न पशुओं के जीवन में और आत्म-साक्षात्कार में अन्तर है।
भीष्मदेव ने सभी मनुष्यों के लिए नौ गुण बताए हैं —
(१) क्रोध न करना
(२) झूठ न बोलना,
(३) धन-सम्पदा का समान वितरण करना,
(४) क्षमा करना,
(५) अपनी वैध पत्नी से ही संतान उत्पन्न करना,
(६) मन से शुद्ध तथा शरीर से स्वच्छ रहना,
(७) किसी के प्रति शत्रुभाव न रखना,
(८) सरल होना तथा
(९) सेवकों या आश्रितों का पालन करना ।
उपर्युक्त प्राथमिक गुणों को अर्जित किये बिना मनुष्य को सभ्य नहीं कहा जा सकता। इनके साथ-साथ बुद्धिमान् व्यक्तियों (ब्राह्मणों), प्राशासनिक व्यक्तियों (क्षत्रियों), वणिक समुदाय (वैश्यों ) तथा श्रमिक वर्ग (शूद्रों) को समस्त वैदिक शास्त्रों में वर्णित अपनी-अपनी वृत्तियों के अनुसार विशेष योग्यताएँ प्राप्त करनी होती हैं। बुद्धिमान् व्यक्तियों के लिए इन्द्रियों पर संयम रखना सर्वाधिक अनिवार्य योग्यता है। यह नैतिकता का मूलाधार है। अपनी वैध पत्नी से भी नियंत्रित रूप में मैथुन करना चाहिए, जिससे स्वतः परिवार नियोजन हो सके । बुद्धिमान् मनुष्य यदि वैदिक जीवन प्रणाली नहीं अपनाता, तो वह अपनी योग्यताओं का दुरुपयोग कर रहा होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उसे वैदिक साहित्य का और विशेष रूप से श्रीमद्भागवतम् तथा श्रीमद्भगवद्गीता का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करना चाहिए। वैदिक ज्ञान सीखने हेतु उसे ऐसे व्यक्ति के पास जाना चाहिए, जो पूर्णरूपेण भक्तिमय सेवा में लगा हो। उसे शास्त्र-वर्जित कोई भी बात नहीं करनी चाहिए। यदि कोई मद्यपान करता है या मादक द्रव्य का सेवन करता है, तो वह शिक्षक नहीं बन सकता। आधुनिक शिक्षण-प्रणाली में शिक्षक की शैक्षिक योग्यताओं पर ही ध्यान दिया जाता है, उसके नैतिक जीवन पर नहीं। अतएव इस शिक्षा के परिणाम से उच्च बुद्धि का कई प्रकार से दुरुपयोग होता है।
शासक वर्ग के सदस्यों अर्थात् क्षत्रियों को विशेष सलाह दी जाती है कि वे दान तो दें, किन्तु किसी भी परिस्थिति में दान न लें। आधुनिक प्रशासक राजनीतिक कार्यों के लिए धन-संग्रह तो करते हैं, किन्तु वे किसी भी राजकीय समारोह में नागरिकों को दान कभी नहीं देते। यह शास्त्रों के आदेशों के सर्वथा विपरीत है। प्रशासक वर्ग को शास्त्रों में निपुण होना चाहिए, लेकिन उन्हें शिक्षक का पेशा नहीं अपनाना चाहिए। प्रशासकों को कभी भी अहिंसक बनने का स्वाँग नहीं करना चाहिए, जिससे उन्हें नरक जाना पड़े। जब अर्जुन कुरुक्षेत्र कें युद्धस्थल में अहिंसक कायर बनना चाह रहा था, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसकी तीव्र प्रताड़ना की। श्रीभगवान् ने अहिंसक पथ स्वीकार करने हेतु अर्जुन को असभ्य पुरुष तक कह डाला। प्रशासक वर्ग को व्यक्तिगत तौर पर सैन्यशिक्षा में प्रशिक्षित होना चाहिए। मात्र वोटों की संख्या के आधार पर कायरों को राष्ट्रपति के पद पर नहीं बैठाना चाहिए। एकछत्र राजा अत्यन्त वीर पुरुष होते थे, अतएव यदि एकछत्र राजा को कर्तव्यों का नियमित प्रशिक्षण दिया जाए, तो राजतंत्र पद्धति को चालू रखना चाहिए। युद्ध में राजा या राष्ट्रपति को तब तक घर नहीं लौटना चाहिए जब तक वह शत्रु द्वारा घायल न जाए। आज का तथाकथित राजा कभी युद्धभूमि में तो जाता ही नहीं। वह झूठी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा की आशा में सैन्यशक्ति को कृत्रिम रूप से प्रोत्साहित करने में अत्यन्त दक्ष होता है। जैसे-जैसे प्रशासक वर्ग वणिकों तथा श्रमिकों की टोली का रूप धारण कर लेता है, तो सरकार की सम्पूर्ण प्रणाली ही दूषित हो जाती है।
व्यापारी वर्ग के सदस्यों अर्थात् वैश्यों को विशेष रूप से आदेश है कि वे गायों की रक्षा करें। गायों की रक्षा करने का अर्थ है, दूध से बनी वस्तुएँ अर्थात् दही तथा मक्खन की वृद्धि । व्यापारी वर्ग का मुख्य कर्तव्य है कि कृषि तथा खाद्य सामग्री के वितरण के साथ ही वैदिक ज्ञान की शिक्षा प्राप्त करे और दान देने में प्रशिक्षित हो। जिस प्रकार क्षत्रियों पर प्रजा की सुरक्षा का भार सौंपा जाता था, उसी प्रकार वैश्यों पर पशुओं की सुरक्षा का भार था। पशु कभी भी वध किये जाने हेतु नहीं होते हैं। पशुवध बर्बर समाज का ही एक लक्षण है। मनुष्य के लिए कृषि-उत्पाद, फल तथा दुग्ध ही पर्याप्त तथा अनुकूल खाद्यपदार्थ हैं। मानव समाज को पशु की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए। श्रमिक की उत्पादक शक्ति का दुरुपयोग तब होता है, जब उसे औद्योगिक कार्यों में लगा दिया जाता है। विभिन्न प्रकार के उद्योग कभी भी मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकताओं-यथा चावल, गेहूँ, धान्य, दूध, फल, तरकारी - का उत्पादन नहीं कर सकते। मशीनों तथा मशीनी औजारों के उत्पादन से स्वार्थी वर्ग के लोगों के कृत्रिम रहन-सहन को बढ़ावा मिलता है और हजारों लोग भूखों मरते हैं तथा अशांत बनते हैं। सभ्यता का मानक यह नहीं होना चाहिए।
शूद्र वर्ग कम बुद्धिमान् होता है और उसे कभी भी स्वतन्त्रता नहीं मिलनी चाहिए। वे समाज के तीन उच्चतर वर्णों की सेवा करने के निमित्त हैं। शूद्र वर्ग उच्चतर वर्णों की सेवा से ही जीवन की सम्पूर्ण सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है। शूद्रों के लिए यह विशेष आदेश है कि वे धन-संचय न करें। ज्यों ही शूद्र धन- संग्रह कर लेते हैं, त्यों ही वे इसका दुरुपयोग सुरा, सुन्दरी तथा जुआ खेलने में करने लगते हैं। सुरा, सुन्दरी तथा जुआ खेलना इसके सूचक हैं कि जनता शूद्रों से भी नीचे गिर चुकी है। उच्च जातियों को हमेशा शूद्रों के पालन का ध्यान रखना चाहिए और उन्हें अपने इस्तेमाल किये हुए पुराने वस्त्र देने चाहिए। शूद्र अपने स्वामी को तब भी न छोड़े, जब वह वृद्ध तथा अशक्त हो जाएँ और मालिकों को चाहिए कि वे सेवकों को सभी प्रकार से संतुष्ट रखें। किसी भी यज्ञ के पूर्व सर्वप्रथम शूद्रों को प्रचुर भोजन तथा वस्त्र द्वारा संतुष्ट किया जाना चाहिए। आज के समय में लाखों रुपये खर्च करके अनेकानेक समारोह मनाए जाते हैं, लेकिन बेचारे श्रमिकों को न तो ठीक से भोजन दिया जाता है, न दान या वस्त्र इत्यादि दिये जाते हैं। इस प्रकार श्रमिक लोग असंतुष्ट ही बने रहते हैं और इसीलिए उपद्रव मचाते हैं।
एक प्रकार से ये वर्ण विभिन्न वृत्तियों के वर्गीकरण हैं और आश्रम धर्म आत्म-साक्षात्कार के पथ पर क्रमिक प्रगति है। दोनों परस्पर सम्बन्धित हैं और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। आश्रम धर्म का मुख्य उद्देश्य ज्ञान तथा वैराग्य जागृत करना है। ब्रह्मचारी आश्रम भावी जीवन के लिए प्रशिक्षण स्थल है। इस आश्रम में यह शिक्षा दी जाती है कि यह संसार जीवों का वास्तविक घर नहीं है। बद्धजीव भवबन्धन के अंतर्गत पदार्थ के बन्दी हैं, अतएव आत्म-साक्षात्कार ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। आश्रम धर्म की समस्त प्रणाली वैराग्य का एक साधन है। जो व्यक्ति वैराग्य की इस मूल भावना को आत्मसात् नहीं कर पाता, उसे वैराग्य की उसी भावना से गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की जाती है। अतएव जो व्यक्ति वैराग्य प्राप्त कर लेता है, वह तुरन्त ही चतुर्थ आश्रम अर्थात् संन्यास ग्रहण कर सकता है। उसे मात्र भिक्षा पर ही निर्भर रहना होता है, धन-संग्रह नहीं करना होता, अपितु शरीर तथा आत्मा को सर्वोत्तम साक्षात्कार के लिए बनाए रखना होता है। गृहस्थ जीवन तो आसक्तों के लिए है। वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम उनके लिए हैं, जो भौतिक जीवन से विरक्त हो चुके हैं। ब्रह्मचारी आश्रम तो आसक्त तथा विरक्त दोनों ही के प्रशिक्षण के लिए होता है।
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