भीष्म उवाच
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥३२॥
हिन्दी शब्दार्थ -
श्रीभीष्मः उवाच - भीष्मदेव ने कहा; इति-इस प्रकार; मतिः- सोचना, अनुभव करना तथा इच्छा करना; उपकल्पिता – नियुक्त; वितृष्णा-समस्त इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त; भगवति—श्रीभगवान् में; सात्वत-पुङ्गवे— भक्तों के नायक के प्रति विभूम्नि —परम के प्रति स्व-सुखम् -आत्मसंतोष; उपगते—उनके प्रति जिन्होंने इसे प्राप्त किया क्वचित्- कभी-कभी विहर्तुम् - दिव्य आनन्द से प्रकृतिम् - भौतिक जगत् में उपेयुषि - अवश्य स्वीकार करें; यत्-भव- जिनसे सृष्टि प्रवाहः - बनी है तथा विनष्ट होती है।
हिन्दी अनुवाद -
भीष्मदेव ने कहा- अभी तक मैं जो सोचता, जो अनुभव करता तथा जो चाहता था, वह विभिन्न विषयों तथा वृत्तियों के अधीन था; किन्तु अब मुझे उसे परम शक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण में लगाने दो। वे सदैव आत्मतुष्ट रहने वाले हैं; किन्तु कभी-कभी भक्तों के नायक होने के कारण इस भौतिक जगत् में अवतरित होकर दिव्य आनन्द-लाभ करते हैं, यद्यपि यह सम्पूर्ण भौतिक जगत् उन्हीं के द्वारा सृजित है।
हिन्दी भावार्थ -
भीष्मदेव एक राजनेता, कुरुवंश के मुखिया, महान् सेनापति तथा क्षत्रियों के अग्रणी थे, अतएव उनका मन अनेक विषयों में बँटा रहता था और उनका चिन्तन, अनुभूति तथा उनकी इच्छाएँ विभिन्न बातों में लगी रहती थीं। अब शुद्ध भक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से वे परम पुरुष भगवान् श्रीकृष्ण पर ही समस्त चिन्तन, अनुभूति तथा इच्छाओं को केन्द्रित करना चाहते थे। यहाँ पर श्रीकृष्ण को भक्तों के नायक तथा सर्वशक्तिमान कहा गया है। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण आदि भगवान् हैं, लेकिन वे अपने शुद्ध भक्तों को भक्तिमय सेवा का वरदान देने के निमित्त इस धरा पर स्वयं अवतरित होते हैं। कभी वे भगवान् कृष्ण के रूप में, जो वे स्वयं हैं और कभी भगवान् श्रीचैतन्य के रूप में अवतरित होते हैं। दोनों ही शुद्ध भक्तों के नायक हैं। श्रीभगवान् के शुद्ध भक्तों में श्रीभगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं रहती। अतएव वे सात्वत कहलाते हैं और श्रीभगवान् ऐसे सात्वतों में अग्रणी हैं। इसीलिए भीष्मदेव को अन्य कोई इच्छा नहीं थी। जब तक मनुष्य सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं से शुद्ध नहीं हो लेता, तब तक श्रीभगवान् उसके अगुवा नहीं बनते। इच्छाओं को मिटाई नहीं जा सकतीं, लेकिन उन्हें केवल शुद्ध करनी होती है। श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं श्रीभगवान् ने पुष्टि की है कि वे श्रीभगवान् की सेवा में निरन्तर लीन रहने वाले शुद्ध भक्त को उसके हृदय के भीतर से उपदेश देते हैं। ऐसा उपदेश किसी भौतिक हेतु के लिए नहीं, अपितु अपने घर, श्रीभगवान् के धाम वापस जाने हेतु दिया जाता । ( श्रीमद्भगवद्गीता १०.१०) भौतिक प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जताने वाले साधारण व्यक्ति के लिए श्रीभगवान् उसके कार्यों की अनुमति प्रदान करते हैं और उसके साक्षी बनते हैं, लेकिन वे अभक्तों को भगवद्धाम जाने की शिक्षा कभी नहीं देते। विभिन्न जीवों, भक्तों तथा अभक्तों के साथ श्रीभगवान् के व्यवहार में यही अन्तर है। वे समस्त जीवों के अग्रणी हैं. जिस प्रकार राजा बन्दियों तथा स्वतन्त्र नागरिकों का समान रूप से शासक होता है। लेकिन भक्तों तथा अभक्तों के प्रति उनके व्यवहार भिन्न-भिन्न होते हैं। अभक्त लोग श्रीभगवान् से कभी कोई उपदेश ग्रहण करने की चिन्ता नहीं करते, इसलिए श्रीभगवान् उनके विषय में मौन बने रहते हैं, यद्यपि वे उनके समस्त कार्यों के साक्षी बनकर उन्हें अच्छा या बुरा फल देते हैं। भक्तगण इस भौतिक अच्छाई-बुराई से परे होते हैं। वे अध्यात्म पथ पर अग्रसर होते रहते हैं, अतएव उन्हें किसी प्रकार की भौतिक इच्छा नहीं रहती । भक्त यह भी जानता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि नारायण हैं; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने पूर्णांश से कारणोदकशायी विष्णु के रूप में प्रकट होते हैं, जो सम्पूर्ण भौतिक सृष्टि के मूल स्रोत हैं। श्रीभगवान् भी अपने शुद्ध भक्तों का संग करने के इच्छुक रहते हैं और उन्हीं के लिए वे इस धरा पर अवतरित होकर उन्हें आनन्द प्रदान करते हैं। श्रीभगवान् स्वयं की इच्छा से प्रकट होते हैं। वे प्रकृति की परिस्थितियों से बाध्य नहीं होते। अतएव उन्हें विभु या सर्वशक्तिमान कहा गया है, क्योंकि वे प्रकृति के नियमों से कभी नहीं बँधते ।
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृताननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥३३॥
हिन्दी शब्दार्थ -
त्रि-भुवन–तीनों लोक; कमनम्—अभीष्ट; तमाल-वर्णम्—तमाल वृक्ष जैसे नीले रंग वाले; रवि-कर-सूर्य की किरणों वाला; गौर-सुनहरा रंग; वराम्बरम् — चमचमाता वस्त्र, दधाने—पहने हुए; वपुः - शरीर; अलक-कुल-आवृत- चन्दन की चित्रावली से आवृत; आनन- अब्जम् - कमल के समान मुख; विजय-सखे - अर्जुन के मित्र में; रतिः अस्तु-उनमें आसक्ति हो; मे—मेरी; अनवद्या-फल की इच्छा से रहित, निष्काम।
हिन्दी अनुवाद -
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के घनिष्ठ मित्र हैं। वे इस धरा पर अपने दिव्य शरीर में प्रकट हुए हैं, जो तमाल वृक्ष सदृश नीले रंग का है। उनका शरीर तीनों लोकों (उच्च, मध्य तथा अधोलोक) में हर एक को आकृष्ट करने वाला है। उनका चमचमाता पीताम्बर तथा चन्दन की चित्रावली से सज्जित मुखकमल मेरे आकर्षण का विषय बने और मैं सकाम फलों की इच्छा न करूँ ।
हिन्दी भावार्थ -
जब श्रीकृष्ण स्वेच्छा से इस धरा पर प्रकट होते हैं, तब वे अपनी अन्तरंगी शक्ति के माध्यम से ऐसा करते हैं। उनके दिव्य शरीर के आकर्षक अंगों को देखने की इच्छा तीनों लोकों अर्थात् ग्रह-मण्डल के उच्चस्थ, मध्यस्थ तथा अधोलोकों में होती है। ब्रह्माण्ड भर में कहीं भी भगवान् श्रीकृष्ण जैसे सुन्दर शारीरिक लक्षणों वाला कोई नहीं है। अतएव उनके दिव्य शरीर को भौतिक रूप से निर्मित किसी वस्तु से कुछ सरोकार नहीं है। अर्जुन को यहाँ विजेता कहा गया है और भगवान् श्रीकृष्ण को उसके घनिष्ठ मित्र। कुरुक्षेत्र युद्ध के पश्चात् शरशय्या पर लेटे भीष्मदेव भगवान् श्रीकृष्ण की वेशभूषा का स्मरण कर रहे हैं, जिसे वे अर्जुन के सारथी रूप में धारण किये हुए थे। जब अर्जुन तथा भीष्मदेव के बीच युद्ध चल रहा था, तब भीष्मदेव का ध्यान भगवान् श्रीकृष्ण की चमचमाती वेशभूषा की ओर आकर्षित हुआ था और इस प्रकार वे अप्रत्यक्ष रूप में अपने तथाकथित शत्रु अर्जुन की प्रशंसा, भगवान् श्रीकृष्ण को अपने मित्र रूप में प्राप्त करने हेतु कर रहे थे। अर्जुन सदा ही विजेता रहा, क्योंकि श्रीभगवान् उसके सखा थे। भीष्मदेव इस अवसर का लाभ श्रीभगवान् को विजयसखे (अर्जुन के मित्र) सम्बोधित करके उठाते हैं; क्योंकि श्रीभगवान् अतीव प्रसन्न होते हैं, जब उन्हें उन भक्तों के साथ जोड़कर पुकारा जाता है, जो उनसे विभिन्न दिव्य रसों से जुड़े हुए हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी थे, तब सूर्य की किरणें श्रीभगवान् के वस्त्रों पर पड़कर चमक रही थीं और ऐसी किरणों के परावर्तन से उत्पन्न सुन्दर छटा भीष्मदेव से भुलाए भी नहीं भूल रही थी। महान् योद्धा के रूप में वे वीर रस में भगवान् श्रीकृष्ण से अपने सम्बन्ध का आस्वादन कर रहे थे। विभिन्न रसों में से किसी भी रस में श्रीभगवान् के साथ दिव्य सम्बन्ध होने पर भक्त सर्वाधिक आनन्द प्राप्त करते हैं। अल्पज्ञ संसारी मनुष्य जो श्रीभगवान् के दिव्य रूप में अपने आपको सम्बन्धित दिखाना चाहते हैं, वे सीधे ही ब्रजधाम की गोपियों का अनुकरण करते हुए माधुर्यरस का दिखावा करते हैं। श्रीभगवान के साथ ऐसा खोखला प्रेम सम्बन्ध संसारी व्यक्ति की कुत्सित भावना का प्रतीक है; क्योंकि जिसने श्रीभगवान् के साथ माधुर्यरस का आनन्द प्राप्त किया है, वह संसारी शृंगार रस में लिप्त नहीं होता, जिसकी भर्त्सना संसारी नैतिकता ने भी की है। श्रीभगवान् के साथ प्रत्येक जीव का नित्य सम्बन्ध क्रमानुसार विकसित होता है। परमेश्वर के साथ जीव का वास्तविक सम्बन्ध पाँच प्रमुख रसों में से किसी एक में हो सकता है और निष्ठावान् भक्त के लिए इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। भीष्मदेव इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। तो हमें ध्यानपूर्वक समझना चाहिए कि महान् सेनानायक श्रीभगवान् से किस प्रकार दिव्य रूप से जुड़े हुए हैं।
युधि तुरगरजोविधूम्रविष्वक्-
कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान-
त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥३४॥
हिन्दी शब्दार्थ -
युधि—युद्धभूमि में; तुरग—घोड़े; रजः- धूल; विधूम्र– धुएँ के रंग में परिणत; विष्वक्—लहराते; कच—केश; लुलित-बिखरे हुए; श्रमवारि-पसीना; अलङ्कृत-से सुशोभित; आस्ये—मुख पर; मम - मेरे; निशित- नुकीले; शरै:- बाणों से; विभिद्यमान—बिंधा हुआ; त्वचि - खाल में; विलसत्—आनन्द लेते हुए; कवचे—कवच में; अस्तु—हो; कृष्णे – श्रीकृष्ण में; आत्मा- मन ।
हिन्दी अनुवाद -
युद्धक्षेत्र में (जहाँ मित्रतावश भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ थे ) भगवान् श्रीकृष्ण के लहराते केश घोड़ों की टापों से उठी धूल से धूसरित हो गए थे तथा श्रम के कारण उनका मुख-मण्डल पसीने की बूंदों से भींग गया था। मेरे तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से इन अलंकरणों की शोभा और भी बढ़ गई थी और वे उनका आस्वादन कर रहे थे। मेरा मन उन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित हो।
हिन्दी भावार्थ -
श्रीभगवान् शाश्वतता, ज्ञान एवं आनन्द स्वरूप हैं। अतः जब श्रीभगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा पाँच प्रमुख सम्बन्धों (रसों) अर्थात् शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य में से किसी एक में सच्चे प्रेम तथा अनुराग से की जाती है, तब श्रीभगवान् उसे ग्रहण करते हैं। भीष्मदेव दास्यभाव में श्रीभगवान् के महान् भक्त हैं। अतएव उनके द्वारा श्रीभगवान् के दिव्य शरीर पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा किसी अन्य भक्त द्वारा उनपर गुलाब की कोमल पंखुड़ियों की वर्षा करने के समान है।
ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीभगवान् के साथ भीष्मदेव ने जो कुछ किया था, उसके लिए वे पश्चात्ताप कर रहे हैं। लेकिन असल में अपने दिव्य शरीर के कारण श्रीभगवान् को तनिक भी पीड़ा नहीं हुई थी। उनका शरीर पदार्थ नहीं है। साक्षात् वे तथा उनका शरीर दोनों पूर्ण रूप से आध्यात्मिक है। आत्मा को न तो छेदा जा सकता है, न जलाया या सुखाया या गीला किया जा सकता है। इसकी विशद् व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में की गई है। स्कन्द पुराण में भी ऐसा ही कथन मिलता है। उसमें कहा गया है कि आत्मा सदैव कल्मषहीन तथा अविनाशी है। न तो उसे कष्ट दिया जा सकता है, न ही उसे सुखाया जा सकता है। जब भगवान् श्रीविष्णु अवतरित होकर हमारे समक्ष प्रकट होते हैं, तब वे बद्धजीवों के समान भौतिक बन्धन से जकड़े हुए लगते हैं, लेकिन वे ऐसा असुरों या नास्तिकों को मोहित करने हेतु करते हैं, जो श्रीभगवान् को उनके प्रकट होने के समय से ही मारने की ताक में रहते हैं। कंस भगवान् श्रीकृष्ण को और रावण श्रीराम को मारना चाह रहे थे; क्योंकि मूर्खतावश वे इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि श्रीभगवान् कभी मारे नहीं जा सकते, क्योंकि आत्मा का कभी विनाश नहीं होता। अतएव भीष्मदेव द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर को बाणों से बेधना अभक्त नास्तिकों के लिए एक मोहजनक समस्या है, लेकिन जो भक्त या मुक्तात्मा हैं, वे मोहित नहीं होते। भीष्मदेव ने श्रीभगवान् के अत्यन्त करुणामय स्वभाव की प्रशंसा की; क्योंकि उन्होंने अर्जुन को अकेले नहीं छोड़ा, यद्यपि भीष्मदेव के बाणों से वे विचलित थे। न ही उन्हें भीष्मदेव की मृत्युशय्या के निकट आने में कोई संकोच हुआ, यद्यपि भीष्मदेव ने युद्धभूमि में उनके साथ दुर्व्यवहार किया था। इस दशा में भीष्मदेव का पश्चात्ताप तथा श्रीभगवान् का करुणामय स्वभाव, दोनों ही अद्वितीय हैं।
महान् आचार्य तथा श्रीभगवान् के माधुर्यरस के भक्त श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इस सम्बन्ध में बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है। वे कहते हैं कि भीष्मदेव के तीक्ष्ण बाणों से श्रीभगवान् के शरीर में बने घाव उन्हें प्रबल कामेच्छा से प्रेमिका द्वारा उनके शरीर को काटने से बने घावों की तरह आनन्ददायक लग रहे थे। प्रेमिका द्वारा इस प्रकार काटा जाना, चाहे शरीर में घाव ही क्यों न करे, कभी भी शत्रुता का प्रतीक नहीं माना जाता। अतएव श्रीभगवान् तथा उनके भक्त भीष्मदेव के बीच जो युद्ध हुआ, वह दिव्य आनन्द का आदान-प्रदान था। वह किसी भी प्रकार से भौतिक नहीं था। इसके अतिरिक्त, चूँकि श्रीभगवान् का शरीर तथा श्रीभगवान् अभिन्न हैं, अतएव परमपूर्ण शरीर में घाव होने की कोई सम्भावना नहीं थी। नुकीले बाणों से बने तथाकथित घाव सामान्य व्यक्ति की चकराने वाले हैं, लेकिन जिसको थोड़ा भी परम ज्ञान है, वह वीर-रस में किये गए इस दिव्य आदान-प्रदान को समझ सकता है। भीष्मदेव के तीक्ष्ण बाणों से बने घावों से श्रीभगवान् अत्यन्त प्रसन्न थे। विभिद्यमान शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि श्रीभगवान् की त्वचा श्रीभगवान् से भिन्न नहीं है। चूँकि हमारी त्वचा हमारे आत्मा से भिन्न है, अतएव हमारे लिए विभिद्यमान अथवा “रगड़ खाया " एवं 'कटा' शब्द अत्यन्त उपुयक्त होगा। दिव्य आनन्द कई प्रकार का होता है और इस जगत् में जितने भी कार्यकलाप हैं, वे दिव्य आनन्द के उल्टे प्रतिविम्ब मात्र हैं। चूँकि इस संसार की हर वस्तु सांसारिक है, अतएव वह दोषपूर्ण हैं, लेकिन परम जगत् में प्रत्येक वस्तु एक ही परम स्वभाव की होने के कारण वहाँ दोषरहित विभिन्न प्रकार के आनन्द हैं। श्रीभगवान् को अपने महान् भक्त भीष्मदेव द्वारा उत्पन्न घाव आनन्द प्रदान कर रहे थे और चूँकि भीष्मदेव वीर रस के भक्त हैं, अतएव वे उसी घायल दशा वाले भगवान् श्रीकृष्ण पर अपना ध्यान स्थिर करते हैं।
सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये
निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा
हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥३५॥
हिन्दी शब्दार्थ -
सपदि - युद्धभूमि में, सखि वचः -मित्र का आदेश, निशम्य-सुनकर, मध्ये- बीच में; निज- अपना; परयोः- तथा विपक्षी दल बलयोः- शक्ति, रथम् -रथ में, निवेश्य-प्रविष्ट होकर; स्थितवति - वहाँ रुककर; पर-सैनिकाः - विपक्षी दल के सैनिकों की, आयुः - आयु, उम्र, अक्ष्णा-देखने से, हृतवति-कम करना, पार्थ- पृथा (कुन्ती) पुत्र अर्जुन के सखे - मित्र में; रतिः - घनिष्ठ सम्बन्ध, प्रीति, मम- मेरा, अस्तु - हो ।
हिन्दी अनुवाद -
अपने मित्र के आदेश का पालन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन तथा दुर्योधन के सैनिकों के बीच प्रविष्ट हो गए और वहाँ स्थित होकर उन्होंने अपनी कृपादृष्टि से विरोधी पक्ष की आयु क्षीण कर दी। यह सब शत्रु पर उनके दृष्टिपात करने मात्र से ही हो गया। मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में स्थिर हो।
हिन्दी भावार्थ -
श्रीमद्भगवद्गीता (१.२१-२५) में अर्जुन ने अच्युत भगवान् श्रीकृष्ण को आज्ञा दी कि वे उसके रथ को सैनिकों के व्यूह के बीच में ले चलें। उसने उन्हें कहा कि वे वहाँ तब तक ठहरें, जब तक वह युद्ध में आये हुए उन शत्रुओं का निरीक्षण पूरा न कर ले, जिनसे उसे लड़ना था। जब श्रीभगवान् से यह कहा गया, तो उन्होंने तुरन्त वैसा ही किया, मानो वे कोई आज्ञापालक हों। श्रीभगवान् ने विपक्षी दल के सभी महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये रहे भीष्मदेव, ये रहे द्रोण इत्यादि।" परम पुरुष होने के कारण श्रीभगवान् न तो किसी के आज्ञापालक हैं, न संदेशवाहक, चाहे वह जो भी हो। लेकिन अपने शुद्ध भक्तों पर अहैतुकी कृपा तथा वत्सलता के कारण कभी-कभी वे अपने भक्त के आदेश का पालन एक तत्पर दास की तरह करते हैं। अपने भक्त के आदेश का पालन करते हुए वे उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जिस प्रकार पिता अपने नन्हें बालक के आदेश को पूरा करने से प्रसन्न होता है। यह तभी सम्भव है, जब श्रीभगवान् तथा उनके भक्तों के बीच शुद्ध दिव्य प्रेम हो और भीष्मदेव इस तथ्य से भली-भाँति अवगत थे। इसीलिए उन्होंने श्रीभगवान् को 'पार्थ-सखे' कहकर सम्बोधित किया।
श्रीभगवान् ने अपनी कृपादृष्टि से विपक्षियों की आयु क्षीण कर दी। कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में एकत्र हुए सारे योद्धाओं को मोक्षलाभ हो सका, क्योंकि मृत्यु के समय उन्होंने साक्षात् श्रीभगवान् का दर्शन किया था। अतएव अर्जुन के शत्रुओं की आय को क्षीण करने का अर्थ यह नहीं है कि भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का पक्ष ले रहे थे। वस्तुतः वे विपक्षियों पर कृपालु थे, क्योंकि यदि वे सामान्य तौर पर घर में मरे होते, तो उन्हें मोक्षलाभ न हुआ होता। यहाँ उन्हें मृत्यु के समय श्रीभगवान् के दर्शन करने का तथा भौतिक जीवन से मुक्ति पाने का अवसर मिला था। अतएव श्रीभगवान् सर्व मंगलमय हैं और वे जो कुछ करते हैं, वह सबकी भलाई के लिए होता है। ऊपर-ऊपर से यह सब उनके घनिष्ठ मित्र अर्जुन की विजय के लिए प्रतीत हो रहा था, लेकिन वास्तविक रूप में यह अर्जुन के शत्रुओं भलाई के लिए था। ऐसे हैं श्रीभगवान् के दिव्य कार्यकलाप और जो भी इन्हें समझता है, वह भी इस भौतिक शरीर का त्याग करने के उपरांत मोक्ष प्राप्त करता है। श्रीभगवान् किसी भी हालत में कोई गलती नहीं करते, क्योंकि वे परमपूर्ण हैं और सर्वदा सबके लिए मंगलमय हैं।
व्यवहितपृतनामुखं निरीक्ष्य
स्वजनवधाद्विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।
कुमतिमहरदात्मविद्यया य-
श्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥३६॥
हिन्दी शब्दार्थ -
व्यवहित- दूर खड़े; पृतना - सैनिकों के; मुखम् - मुँह को; निरीक्ष्य-देखकर; स्व-जन–सम्बन्धीगण; वधात्— मारने से; विमुखस्य - झिझकने वाले का; दोष- बुद्धया- दूषित बुद्धि से; कुमतिम् - अल्पज्ञान; अहरत् - समूल नष्ट किया; आत्म- विद्यया - दिव्य ज्ञान से; यः - जो; चरण-चरणों का; रतिः- आकर्षण; परमस्य- परम का; तस्य — उनके प्रति; मे—मेरा; अस्तु - हो ।
हिन्दी अनुवाद -
जब युद्धक्षेत्र में अर्जुन अपने समक्ष सैनिकों तथा सेनापतियों को देखकर अज्ञान से कलुषित हो रहा लग रहा था, तब श्रीभगवान् ने उसके अज्ञान को दिव्य ज्ञान प्रदान करके समूल नष्ट कर दिया। उनके चरणकमल सदैव मेरे आकर्षण के लक्ष्य बने रहें ।
हिन्दी भावार्थ -
राजाओं तथा सेनापतियों को लड़ने वाले सैनिकों के समक्ष खड़ा होना था। वास्तविक युद्ध की प्रणाली यही है। तब राजा तथा सेनापति आज के तथाकथित राष्ट्रपति या रक्षा मन्त्री जैसे नहीं होते थे। जब बेचारे सैनिक या भाड़े के सिपाही एक-दूसरे से आमने-सामने लड़ रहे होते थे, तो राजा या सेनापति घर में बैठे नहीं रह सकते थे। यह आधुनिक प्रजातंत्र का विधान हो सकता है, लेकिन जब वास्तविक राजतंत्र था, तो सम्राट ऐसे नहीं होते थे, जो योग्यता पर विचार किये बिना चुने जाने वाले कायरों जैसे हों। जैसाकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल से स्पष्ट हैं, दोनों पक्षों के नेता यथा द्रोण, भीष्मदेव, अर्जुन तथा दुर्योधन सोये हुए नहीं थे, वे सभी ऐसे युद्ध में भाग ले रहे थे, जो आबादी से कहीं दूर लड़ा जा रहा था। इसका अर्थ यह हुआ कि निर्दोष नागरिक प्रतिद्वंद्वी राजसी दलों के युद्ध के प्रभावों से बचे रहते थे। ऐसे युद्ध में जो कुछ हो रहा होता था. उसे नागरिकों द्वारा देखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। उन्हें तो अपनी आय का चौथा भाग शासक को देना होता था, चाहे वह अर्जुन हो या दुर्योधन। कुरुक्षेत्र के युद्ध में दोनों दलों के सेनानायक आमने-सामने खड़े थे। अर्जुन ने उन्हें अत्यन्त करुणा से देखा तथा पछताने लगा कि राज्यलिप्सा के कारण युद्धक्षेत्र में वह अपने स्वजनों को ही मार डालेगा। वह दुर्योधन द्वारा बनाये गए विशाल सैन्यव्यूह से रंचमात्र भी भयभीत नहीं था, लेकिन श्रीभगवान् का दयालु भक्त होने के कारण उसे सांसारिक वस्तुओं से स्वाभाविक वैराग्य था, अतएव उसने निश्चय किया कि वह सांसारिक वैभव के लिए युद्ध नहीं करेगा। लेकिन यह तो अल्प ज्ञान के कारण था; इसीलिए कहा गया है कि उसकी बुद्धि कलुषित हो गई थी। उसकी बुद्धि कभी भी कलुषित नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह श्रीभगवान् का भक्त तथा नित्यसखा था, जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय से स्पष्ट है। अर्जुन की बुद्धि कुलषित प्रतीत होती थी, अन्यथा मिथ्या देहात्मबुद्धि द्वारा भौतिक बन्धन में पड़े कलुषित बद्धजीवों के कल्याण के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देने का अवसर कैसे प्राप्त हुआ होता ? श्रीमद्भगवद्गीता संसार के बद्धजीवों के उद्धार के लिए सुनायी गई, जिससे वे शरीर को मिथ्या ही आत्मा न मान बैठें और परमेश्वर के साथ आत्मा के नित्य सम्बन्ध को पुनः स्थापित कर सकें। श्रीभगवान् द्वारा आत्मविद्या का प्रवचन, मुख्य रूप से ब्रह्माण्ड के सभी भागों के समस्त व्यक्तियों के लाभ के लिए हुआ था।
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा-
मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलद्गु-
हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥३७॥
हिन्दी शब्दार्थ -
स्व-निगमम्— अपनी सत्यनिष्ठा; अपहाय- निरस्त करने हेतु मत्-प्रतिज्ञाम्— मेरी प्रतिज्ञाः ऋतम्—वास्तविक; अधि-अधिक; कर्तुम्— करने हेतु, अवप्लुतः— नीचे उतरते हुए; रथ-स्थः - रथ से; धृत— धारण करके; रथ-रथ; चरणः-पहिया, चक्र; अभ्ययात्—तेजी से चले; चलद्गुः- धरती को रौंदते हुए; हरि:- सिंह, इव – सदृश; हन्तुम्—मारने हेतु; इभम्—हाथी को; गत—एक ओर छोड़कर; उत्तरीयः — उत्तरीय, ओढ़ने का वस्त्र ।
हिन्दी अनुवाद -
मेरी इच्छा को पूरी करते हुए तथा अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर वे रथ से नीचे उतर आए, उसका पहिया उठा लिया और तेजी से मेरी ओर दौड़े, जिस प्रकार कोई सिंह किसी हाथी को मारने हेतु दौड़ पड़ता है। इसमें उनका उत्तरीय वस्त्र भी रास्ते में गिर गया।
हिन्दी भावार्थ -
यद्यपि कुरुक्षेत्र का युद्ध सैन्य-सिद्धान्तों पर लड़ा गया था, लेकिन साथ ही साथ में खेल-भावना भी थी, मानो वह दो मित्रों के बीच होने वाला युद्ध हो। दुर्योधन ने भीष्मदेव की यह कहकर आलोचना की कि वे अर्जुन से पितृवत् स्नेह के कारण उसे मारने से झिझकते हैं। एक क्षत्रिय युद्ध के सिद्धान्त पर किया गया अपमान सह नहीं सकता। अतः भीष्मदेव ने प्रतिज्ञा की कि अगले दिन वे पाँचों पाण्डवों का वध इसी काम के लिए बनाये गए विशेष हथियारों से कर देंगे। इससे दुर्योधन संतुष्ट हो गया और उसने वे तीर अपने पास रख लिए. ताकि वह उन्हें अगले दिन युद्ध के समय दे सके। लेकिन अर्जुन ने चालाकी से दुर्योधन से वे तीर प्राप्त कर लिए और भीष्मदेव को यह समझते देर न लगी कि यह भगवान् श्रीकृष्ण की चाल है। अतः भीष्मदेव ने प्रतिज्ञा की कि अगले दिन भगवान् श्रीकृष्ण को अस्त्र उठाना ही पड़ेगा, अन्यथा उनका मित्र अर्जुन मारा जाएगा। दूसरे दिन भीष्मदेव ने इतना भयानक युद्ध किया कि अर्जुन तथा भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही संकट में पड़ गए। अर्जुन लगभग हार ही चुका था; परिस्थिति इतनी नाजुक थी कि वह भीष्मदेव द्वारा अगले ही क्षण मारा जाने वाला था। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने भक्त भीष्मदेव की प्रतिज्ञा का मान रखकर उन्हें प्रसन्न करना चाहा, क्योंकि यह उनकी अपनी प्रतिज्ञा से अधिक महत्त्वपूर्ण था। ऊपर से एसा लगता है कि उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी। उन्होंने कुरुक्षेत्र-युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व प्रतिज्ञा की थी कि मैं कोई अस्त्र धारण नहीं करूँगा और किसी भी पक्ष के लिए अपने बल का प्रयोग नहीं करूँगा। लेकिन अर्जुन की रक्षा करने हेतु वे रथ से उतरे, रथ का पहिया उठाया और क्रुद्ध होकर भीष्मदेव पर तेजी से इस प्रकार झपटे, जैसे सिंह हाथी को मारने झपटता है। इससे रास्ते में उनका अंगवस्त्र गिर गया और क्रोधवश उन्हें ध्यान भी नहीं था कि उनका उत्तरीय गिर गया है। तब भीष्मदेव ने तुरन्त हथियार डाल दिये और स्वयं अपने प्रिय प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा मारे जाने हेतु खड़े हो गए। उस दिन का युद्ध उसी क्षण समाप्त हो गया और अर्जुन की प्राण रक्षा हो सकी। नि:संदेह अर्जुन की मृत्यु की कोई सम्भावना नहीं थी, क्योंकि साक्षात् श्रीभगवान् रथारूढ़ थे, लेकिन चूँकि भीष्मदेव चाह रहे थे कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने मित्र को बचाने हेतु हथियार उठाए, अतएव श्रीभगवान् ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि अर्जुन की मृत्यु सन्निकट जान पड़ी। वे भीष्मदेव के समक्ष यह दिखाने हेतु आए कि भीष्मदेव की प्रतिज्ञा पूरी हो और उन्होंने पहिया उठा लिया।
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥३८॥
हिन्दी शब्दार्थ -
शित- पैना; विशिख-बाणों; हतः - से घायल; विशीर्ण-दंश:- छिन्न हुआ कवच, क्षतज - घावों से; परिप्लुतः- रक्त से सने; आततायिनः - महान् आक्रामक मे—मेरा; प्रसभम्—क्रुद्ध मुद्रा में; अभिससार—चलने लगे; मत्-वध-अर्थम्-मुझे मारने हेतु; सः–वे; भवतु—हो; मे—मेरे; भगवान्–श्रीभगवान्; गतिः–लक्ष्य, मुकुन्दः- मोक्षदाता।
हिन्दी अनुवाद -
भगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं, वे मेरे परम गन्तव्य हों। युद्धक्षेत्र में उन्होंने मुझपर आक्रमण किया, मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गए हो। उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर घावों के कारण खून से सन गया था।
हिन्दी भावार्थ -
कुरुक्षेत्र के युद्ध में भगवान् श्रीकृष्ण तथा भीष्मदेव के आपसी व्यवहार अत्यन्त रोचक हैं; क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण की गतिविधियाँ अर्जुन के प्रति पक्षपातपूर्ण और भीष्मदेव के प्रति शत्रुतापूर्ण लग रही थीं, लेकिन वास्तव में यह सब कुछ महान् भक्त भीष्मदेव के प्रति विशेष अनुग्रह दिखाने हेतु था। ऐसी लीलाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि भक्त शत्रु का अभिनय करते हुए भी श्रीभगवान् को प्रसन्न कर सकता है। परमपूर्ण होने के कारण श्रीभगवान् अपने भक्त को शत्रु वेश में भी सेवा ग्रहण कर सकते हैं। परमेश्वर का कोई शत्रु नहीं हो सकता, न ही कोई तथाकथित शत्रु उन्हें हानि पहुँचा सकता है; क्योंकि वे अजित हैं। तो भी उन्हें आनन्द आता है, जब उनका कोई शुद्ध भक्त उनपर शत्रु की तरह प्रहार करता है या बड़ों के जैसे उनको डाँटता है, यद्यपि उनसे श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। भक्त तथा श्रीभगवान् के बीच ये कुछ दिव्य आदान-प्रदान के व्यवहार हैं। किन्तु जिन्हें शुद्ध भक्ति की कोई जानकारी नहीं है, वे ऐसी लीलाओं के रहस्य को नहीं जान सकते। भीष्मदेव ने एक वीर योद्धा की भूमिका निभाई और उन्होंने जान-बूझकर श्रीभगवान् के शरीर को बाणों से बींध दिया, जिससे सामान्य लोगों की दृष्टि में श्रीभगवान् घायल प्रतीत तो हुए. लेकिन वास्तव में यह अभक्तों को मोहग्रस्त करने हेतु था। पूर्णत: दिव्य शरीर कभी घायल नहीं किया जा सकता और भक्त कभी भी श्रीभगवान् का शत्रु नहीं बन सकता। यदि ऐसा ही होता, तो भीष्मदेव उन्हीं श्रीभगवान् की अपने जीवन के परम गन्तव्य के रूप में इच्छा न करते। यदि भीष्मदेव भगवान् श्रीकृष्ण के शत्रु होते, तो भगवान् श्रीकृष्ण बिना हिले-डुले ही उनका विनाश कर देते। उन्हें रक्त से सने घाव लेकर भीष्मदेव के समक्ष आने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन उन्होंने ऐसा किया, क्योंकि यह योद्धा भक्त अपने द्वारा उत्पन्न घावों से सुशोभित श्रीभगवान् के दिव्य सौन्दर्य का दर्शन करना चाह रहा था। श्रीभगवान् व उनके भक्त में दिव्य रस का आदान-प्रदान ऐसा होता है। ऐसी लीलाओं से भक्त तथा भगवान् दोनों का यश बढ़ता है। श्रीभगवान् इतने क्रुद्ध थे कि जब वे भीष्मदेव की ओर लपक रहे थे, तो अर्जुन ने उन्हें रोका, लेकिन वे माने नहीं और भीष्मदेव की ओर उसी प्रकार बढ़े चले जा रहे थे, जिस प्रकार एक प्रेमी दूसरे प्रेमी के पास विघ्न-बाधाओं की चिन्ता न करते हुए बढ़ता जाता है। ऊपरी तौर से उनका संकल्प भीष्मदेव को मारने का था, लेकिन वास्तव में वे अपने महान् भक्त को प्रसन्न करना चाह रहे थे। श्रीभगवान् निःसंदेह समस्त बद्धजीव के उद्धारक हैं। निर्विशेषवादी उनसे मोक्ष की कामना करते हैं और वे उन्हें मनोवांछित फल देते हैं, लेकिन यहाँ तो भीष्मदेव श्रीभगवान् के साक्षात् स्वरूप को देखने की इच्छा व्यक्त करते हैं। सभी शुद्ध भक्त ऐसी ही कामना करते हैं।
विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे
धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो-
र्यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥३९॥
हिन्दी शब्दार्थ -
विजय- अर्जुन; रथ - रथ; कुटुम्ब-जान की बाजी लगाकर जिस वस्तु की रक्षा की जाए; आत्त-तोत्रे – दाहिने हाथ में चाबुक लिए; धृत-हय- घोड़ों की लगाम थामे; रश्मिनि – रस्सियाँ; तत्- श्रिया - सुन्दरतापूर्वक खड़े हुए; ईक्षणीये—–देखे जाने हेतुः भगवति–श्रीभगवान् में; रतिः-अस्तु—मेरा आकर्षण हो; मे—मेरा; मुमूर्षोः- मरणासन्न; यम् — जिसको; इह-इस संसार में; निरीक्ष्य - देखने से; हताः- मारे गए; गताः - प्राप्त किया; स्व-रूपम् — मूल रूप को ।
हिन्दी अनुवाद -
मृत्यु के क्षण में मेरा परम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो। मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ, जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बायें हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यन्त सावधान थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबने मृत्यु के उपरांत अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया।
हिन्दी भावार्थ -
श्रीभगवान् का शुद्ध भक्त निरन्तर अपने हृदय में श्रीभगवान् उपस्थिति का दर्शन करता है, क्योंकि प्रेममयी सेवा द्वारा श्रीभगवान् से वह दिव्य रूप से सम्बन्धित रहता है। ऐसा शुद्ध भक्त श्रीभगवान् को क्षण भर लिए भी नहीं भूल सकता। यही समाधि है। योगी अपनी इन्द्रियों को अन्य समस्त व्यापारों से हटाकर परमात्मा में एकाग्र करने का प्रयास करता है और इस प्रकार अंततोगत्वा वह समाधि प्राप्त करता है। लेकिन भक्त तो श्रीभगवान् के साकार रूप के साथ-साथ उनके नाम, यश, लीलाओं आदि का निरन्तर स्मरण करते हुए सहज ही समाधि प्राप्त कर लेता है। अतएव योगी तथा भक्त की एकाग्रता एक ही स्तर पर नहीं होती। योगी की एकाग्रता यान्त्रिक होती. है जबकि शुद्ध भक्त की एकाग्रता शुद्ध प्रेममय तथा स्वाभाविक स्नेहयुक्त सहजभाव होता है। भीष्मदेव शुद्ध भक्त थे और सेनानायक के रूप में वे निरन्तर पार्थसारथी के रूप में श्रीभगवान् के युद्धक्षेत्र वाले स्वरूप का स्मरण कर रहे। थे। अतएव पार्थसारथी के रूप में श्रीभगवान् की लीला भी शाश्वत है। कंस के कारागार में अपने प्राकट्य से लेकर अंत में मौशल-लीला तक समस्त ब्रह्माण्डों में श्रीभगवान् की लीलाएं एक-एक करके वैसे ही घटित होती हैं, जिस प्रकार घड़ी की सुइयाँ एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक चलती जाती हैं। और ऐसी लीला में पाण्डव तथा भीष्मदेव जैसे उनके पार्षद उनके नित्यसंगी रहते हैं। इस प्रकार भीष्मदेव पार्थसारथी के रूप में श्रीभगवान् के सुन्दर स्वरूप को, जिसे अर्जुन भी नहीं देख पाया, कभी नहीं भुला पाए। अर्जुन पार्थसारथी के पीछे थे, जबकि भीष्मदेव श्रीभगवान् के बिल्कुल सामने थे। जहाँ तक श्रीभगवान् के योद्धा वेश का सम्बन्ध है, भीष्मदेव ने इसका आस्वादन अर्जुन की अपेक्षा अधिक रुचि से किया।
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि के सभी सैनिकों तथा व्यक्तियों ने मृत्यु के उपरांत श्रीभगवान् जैसा अपना मूल आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त किया, क्योंकि श्रीभगवान् की अहैतुकी कृपा से वे सभी उस अवसर पर उनका साक्षात् दर्शन कर सके। जलचर से लेकर ब्रह्मा तक विकास चक्र में चक्कर लगाते हुए सभी बद्धजीव माया के रूप में हैं या उस रूप में हैं, जिसे उन्होंने अपने कर्मों से प्राप्त किया है और जो भौतिक प्रकृति ने उन्हें प्रदान किया है। बद्धजीवों के भौतिक रूप बाहरी बस्त्रों की तरह हैं और जब बद्धजीव माया के चंगुल से छूट जाता है, तब उसे अपना मूल स्वरूप प्राप्त होता है। निर्विशेषवादी श्रीभगवान् के निराकार ब्रह्मतेज को प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, लेकिन श्रीभगवान् के अंशरूप जीवित स्फुल्लिंगों के लिए यह रंचमात्र भी हितकर नहीं है। अतएव निर्विशेषवादियों का पुनः पतन होता है और वे फिर से भौतिक रूप प्राप्त करते हैं, जो आत्मा के लिए मिथ्या होते हैं। भक्तों को आत्मा की मूल प्रकृति के अनुसार वैकुण्ठ में या गोलोक में श्रीभगवान् के समान द्विभुज या चतुर्भुज आध्यात्मिक स्वरूप प्राप्त होता है। यह स्वरूप जो शत-प्रतिशत आध्यात्मिक है, जीव का स्वरूप है और कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दोनों ओर से युद्ध करने वाले योद्धाओं ने अपना- अपना स्वरूप प्राप्त किया, जिसकी पुष्टि भीष्मदेव कर रहे हैं। अतएव भगवान् श्रीकृष्ण केवल पाण्डवों पर ही नहीं, दूसरे पक्ष पर भी दयालु थे; क्योंकि उन सबको एक ही जैसा फल प्राप्त हुआ। भीष्मदेव भी वही सुविधा चाहते थे और यही श्रीभगवान् से उनकी प्रार्थना थी, यद्यपि श्रीभगवान् के पार्षद रूप में किसी भी स्थिति में उनका पद सुरक्षित है। निष्कर्ष यह है कि जो भी व्यक्ति मन में या साक्षात् श्रीभगवान् का दर्शन करते हुए देह त्यागता है, वह अपना स्वरूप प्राप्त करता है। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है।
ललितगतिविलासवल्गुहास-
प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः
प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥४०॥
हिन्दी शब्दार्थ -
ललित - आकर्षक; गति — गतिविधि; विलास-मुग्ध करने वाले कृत्य; वल्गुहास- मधुर मुस्कान; प्रणय-प्रेमपूर्ण; निरीक्षण–दृष्टिपातः कल्पित-मानसिकता; उरुमाना:- अत्यन्त महिमावान्; कृतम्-अनुकृतवत्यः - गतिविधियों की नकल की; उन्मदान्धाः- आनन्द में उन्मत्त हुए, प्रकृतिम्— लक्षण; अगन्—प्राप्त किया; किल - निश्चय ही; यस्य- जिसका, गोप- वध्वः - गोपियाँ ।
हिन्दी अनुवाद -
मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्र हो, जिनकी चाल तथा प्रेमभरी मुस्कान ने ब्रजधाम की रमणियों (गोपियों) को आकृष्ट कर लिया। (रासलीला से श्रीभगवान् के अंतर्धान हो जाने पर) गोपिकाओं ने श्रीभगवान् की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया।
हिन्दी भावार्थ -
ब्रजभूमि की गोपियों ने प्रेममय सेवा में अतीव आह्लाद से श्रीभगवान् के साथ समान रूप से नृत्य कर, प्रेमी रूप में उनका आलिंगन करके, उनके साथ हास-परिहास करके तथा प्रेमपूर्णभाव में उनकी ओर देखकर उनके साथ एकात्म्य प्राप्त किया। अर्जुन के साथ श्रीभगवान् का सम्बन्ध भीष्मदेव जैसे भक्त द्वारा प्रशंसित है, लेकिन गोपियों के साथ श्रीभगवान् का सम्बन्ध और भी अधिक शुद्ध प्रेममय सेवा के कारण अधिक प्रशंसनीय है। श्रीभगवान की कृपा से अर्जुन को सारथी के रूप में श्रीभगवान् की भ्रातृसेवा प्राप्त हुई थी, लेकिन श्रीभगवान् ने अर्जुन को अपने समान स्तर की शक्ति प्रदान नहीं की। किन्तु गोपियाँ तो श्रीभगवान् के बराबर का स्तर प्राप्त करके असल में श्रीभगवान के साथ एकात्म हो गईं। भीष्मदेव द्वारा गोपियों के स्मरण की इच्छा जीवन की अन्तिम अवस्था में गोपियों की कृपा भी प्राप्त करने की एक प्रार्थना है। श्रीभगवान् अपने शुद्ध भक्तों की प्रशंसा सुनकर अधिक प्रसन्न होते हैं, अतएव, भीष्मदेव ने केवल उस समय उनके साथ उपस्थित अर्जुन के कृत्यों का ही यशगान नहीं किया, अपितु गोपियों का भी स्मरण किया, जिन्हें श्रीभगवान् की प्रेममयी सेवा करने के कारण श्रीभगवान् की अद्वितीय कृपा प्राप्त हो सकी। श्रीभगवान् के साथ गोपियों की समता कभी भी निर्विशेषवादियों के सायुज्य मोक्ष के समान समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। यह समत्व पूर्ण आह्लाद की अवस्था है, जहाँ अन्तर की धारणा पूर्णतया मिट जाती है; क्योंकि प्रेमी-प्रेमिका के हित एक हो जाते हैं।
मुनिगणनृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः
सदसि युधिष्ठिरराजसूय एषाम् ।
अर्हणमुपपेद ईक्षणीयो
मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥४१॥
हिन्दी शब्दार्थ -
मुनि-गण- परम विद्वान् साधुजन; नृप-वर्य - महान् शासक राजा; सङ्कुले—की महान् सभा में; अन्तः- भीतर, सदसि -सभा, सम्मेलन में; युधिष्ठिर—महाराज युधिष्ठिर का राज-सूय— राजा द्वारा सम्पन्न यज्ञ; एषाम्—समस्त महापुरुषों का; अर्हणम्—सादर पूजा; उपपेद- प्राप्त किया; ईक्षणीयः- आकर्षण का विषय: मम-मेरी; दृशि- दृष्टि; गोचर:-जितना दिखे उसी के भीतर, समक्ष; एष-आविः—साक्षात् उपस्थित; आत्मा-आत्मा।
हिन्दी अनुवाद -
महाराज युधिष्ठिर द्वारा सम्पन्न राजसूय-यज्ञ में विश्व के सभी महापुरुषों, राजाओं तथा विद्वानों की एक महान् सभा हुई थी और उस सभा में सबने श्रीकृष्ण की पूजा परम पूज्य भगवान् के रूप में की थी। यह सब मेरी आँखों के सामने हुआ और मैंने इस घटना को स्मरण रखा, जिससे मेरा मन श्रीभगवान् में लगा रहे।
हिन्दी भावार्थ -
कुरुक्षेत्र-युद्ध में विजयी होने के उपरांत चक्रवर्ती सम्राट महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ सम्पन्न किया। उन दिनों सिंहासन पर बैठने के पश्चात् राजा अपनी श्रेष्ठता घोषित करने के उद्देश्य से विश्व भर में विचरण हेतु एक घोड़ा छोड़ता था और किसी भी राजकुमार या राजा को यह स्वतन्त्रता थी कि वह उस सम्राट की सत्ता को माने या न माने। जो विरोध करता था, उसे सम्राट से युद्ध करके विजय द्वारा अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी होती थी। हारने पर उसे अपने जीवन की बलि देनी होती थी, जिससे उसके स्थान पर अन्य राजा या प्रशासक बन सके। अतएव महाराज युधिष्ठिर ने भी पूरे संसार में चुनौती के रूप में ऐसे घोड़े भेजे और संसार भर के राजाओं तथा राजकुमारों ने महाराज युधिष्ठिर को चक्रवर्ती सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर के अधीन विश्व के सभी शासकों को राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने हेतु आमन्त्रित किया गया। ऐसे यज्ञ में अरबों रुपये व्यय होते थे, अतएव यह छोटे-मोटे राजाओं के बस की बात न थी। ऐसा यज्ञ अत्यधिक खर्चीला होने तथा वर्तमान परिस्थितियों में सम्पन्न कर पाने में कठिन होने से इस कलियुग में सम्भव नहीं है। न ही कोई ऐसे निपुण पुरोहित रह गए हैं, जो ऐसे यज्ञ का भार अपने ऊपर ले सकें।
इस प्रकार आमन्त्रण मिलने पर विश्व के सभी राजा तथा महान् मुनिजन महाराज युधिष्ठिर की राजधानी में एकत्र हुए। इस अवसर पर महान् दार्शनिकों, धर्मज्ञों, वैद्यों, वैज्ञानिकों तथा सारे महान् ऋषियों सहित सम्पूर्ण समाज को आमन्त्रित किया गया। कहने का तात्पर्य यह है कि समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय सर्वोच्च व्यक्ति होते थे, और वे सभी उस सभा में आमन्त्रित थे। समाज में वैश्य तथा शूद्रों का स्थान कम महत्त्वपूर्ण होता था, अतएव यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है। आधुनिक युग में सामाजिक कार्यकलापों में परिवर्तन होने से, वृत्तिपरक पदों के रूप में मनुष्यों की महत्ता भी बदल गई है।
इस प्रकार उस महान् सभा में भगवान् श्रीकृष्ण सबकी आखों के तारे बने हुए थे। प्रत्येक व्यक्ति भगवान् श्रीकृष्ण को देखना चाह रहा था और प्रत्येक व्यक्ति उनको सादर प्रणाम करना चाहता था। भीष्मदेव को यह सब कुछ स्मरण था, अतएव, उन्हें प्रसन्नता थी कि उनके आराध्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् उनकी आँखों के सामने अपने वास्तविक स्वरूप में उपस्थित थे। अतएव, परम भगवान् पर ध्यान लगाने का अर्थ है, उनके कार्यकलापों, रूप, लीलाओं, नाम, तथा महिमा का ध्यान करना। परमपूर्ण के निराकार पक्ष का ध्यान लगाने के भ्रम से यह अधिक सरल है। श्रीमद्भगवद्गीता (१२.५) में यह स्पष्ट कथन है कि श्रीभगवान् के निराकार पक्ष का ध्यान करना अत्यन्त कठिन है। यह वास्तव में कोई ध्यान नहीं, यह तो समय का अपव्यय मात्र है; क्योंकि इससे शायद ही कभी वांछित फल प्राप्त होता है। किन्तु भक्तगण श्रीभगवान् के वास्तविक स्वरूप तथा उनकी लीलाओं का ध्यान करते हैं, इसलिए श्रीभगवान् भक्तों के लिए सहज सुलभ हैं। इसका उल्लेख भी श्रीमद्भगवद्गीता (१२.९) में हुआ है। श्रीभगवान् अपनी दिव्य लीलाओं से अभिन्न हैं। इस श्लोक में इसका भी संकेत हुआ है कि जब भगवान् श्रीकृष्ण मानव-समाज के समक्ष, विशेष रूप से कुरुक्षेत्र के युद्ध में साक्षात् उपस्थित थे, तो वे उस समय के महानतम पुरुष माने गए, भले ही तब उन्हें पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् न स्वीकार किया गया हो। यह प्रचार कि कोई महापुरुष मृत्यु के पश्चात् ईश्वर की तरह पूजा जाता है, भ्रामक हैं, क्योंकि मृत्यु के पश्चात् किसी भी मनुष्य को ईश्वर नहीं बनाया जा सकता। न ही श्रीभगवान् कभी मनुष्य हो सकते हैं, भले ही वे साक्षात् विद्यमान क्यों न हों। ये दोनों ही विचार कुधारणाएँ हैं। मानववाद का विचार भगवान् श्रीकृष्ण पर लागू नहीं होता।
तमिममहमजं शरीरभाजां
हृदि हृदि धिष्ठितमात्मकल्पितानाम्।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूतभेदमोहः ॥४२॥
हिन्दी शब्दार्थ -
तम्—उस श्रीभगवान् को; इमम्—इस समय जो मेरे समक्ष है; अहम् —मैं; अजम्— अजन्मा शरीर-भाजाम् बद्धजीव के; हृदि-हृदि - प्रत्येक हृदय में; धिष्ठितम्- स्थित; आत्म-परमात्मा; कल्पितानाम् - शुष्क चिन्तकों का प्रतिदृशम् - प्रत्येक दिशा में; इव-सदृश; न-एकधा-एक नहीं; अर्कम्-सूर्य को; एकम्—केवल एक समधि-गतः-अस्मि - मैं ध्यान में समाधिस्थ, विधूत - विमुक्त होकर भेद-मोहः - भेद की भांत धारणा से।
हिन्दी अनुवाद -
अब में पूर्ण एकाग्रता से एक ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान कर सकता है, जो इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं; क्योंकि अब मैं प्रत्येक के हृदय में, यहाँ तक कि मनोधर्मियों के हृदय में भी रहने वाले उनके प्रति द्वैत की कुधारणाओं को पार कर चुका हूँ। वे सबके हृदय में रहते हैं। भले ही सूर्य को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव किया जाए, किन्तु सूर्य तो एक ही है।
हिन्दी भावार्थ -
भगवान् श्रीकृष्ण ही एक परम भगवान् हैं, लेकिन उन्होंने अपनी अचिन्त्य शक्ति द्वारा अपने आपको अनेक पूर्णांशों व विभिन्नांशों में विस्तारित कर रखा है। द्वैत की धारणा उनकी इस अचिन्त्य शक्ति के बारे में अज्ञान के कारण है। श्रीमद्भगवद्गीता (९.११) में श्रीभगवान् कहते हैं कि जो अल्पज्ञ हैं, मात्र वे ही उन्हें मनुष्य मानते हैं। ऐसे अल्पज्ञ व्यक्ति श्रीभगवान् की अचिन्त्य शक्तियों को नहीं जानते। वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से सबके हृदय में उसी प्रकार विद्यमान हैं, जिस प्रकार सूर्य संसार भर के लोगों के सामने विद्यमान है। श्रीभगवान् का परमात्मा रूप उनके पूर्ण अंश का विस्तार है। वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से प्रत्येक के हृदय में परमात्मा रूप अपना विस्तार करते हैं। वे अपने व्यक्तिगत तेज के विस्तार द्वारा ब्रह्मज्योति के जाज्वल्यमान तेज के रूप में अपना विस्तार करते हैं। ब्रह्मसंहिता में कहा गया है कि ब्रह्मज्योति उनका व्यक्तिगत तेज है। अतएव उनमें तथा उनके तेज ब्रह्मज्योति या परमात्मा रूप में उनके पूर्ण अंशों में कोई अन्तर नहीं है। अल्पज्ञानी लोग, जिन्हें इस तथ्य का पता नहीं हैं, वे ब्रह्मज्योति तथा परमात्मा को भगवान् श्रीकृष्ण से भिन्न समझते हैं। भीष्मदेव के मन से द्वैत की यह कुधारणा पूर्ण रूप से मिट चुकी है और वे अब संतुष्ट हैं कि वे भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, जो सब कुछ हैं। यह अनुभूति महात्माओं या भक्तों को ही प्राप्त होती है, जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता (७.१९) में कहा गया है कि श्रीवासुदेव ही सर्वेसर्वा हैं और श्रीवासुदेव के बिना, किसी का कोई अस्तित्व नहीं है। श्रीवासुदेव या भगवान् श्रीकृष्ण ही आदि परम पुरुष हैं, जिसकी पुष्टि अब भीष्मदेव द्वारा हो रही है। भीष्मदेव बारह महाजनों में से एक है, अतएव नवजिज्ञासुओं तथा शुद्ध भक्तों दोनों को समान रूप से उनके चरणचिह्नों का अनुसरण करने का प्रयास करना चाहिए। भक्तिमार्ग के लिए यही विधि है।
भीष्मदेव के आराध्य, पार्थसारथी रूप में भगवान् श्रीकृष्ण हैं और वहीं श्रीकृष्ण वृन्दावन में गोपियों के सर्वाधिक मनोहर श्यामसुन्दर हैं। कभी-कभी अल्पज्ञ अध्येता गलती से यह सोचते हैं कि वृन्दावन के श्रीकृष्ण तथा कुरुक्षेत्र- युद्ध वाले श्रीकृष्ण पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व हैं। लेकिन भीष्मदेव के मन से यह भ्रांति पूर्ण रूप से दूर हो चुकी है। यहाँ तक कि निर्विशेषवादियों के लक्ष्य निराकार ज्योति के रूप में भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, और योगियों के लक्ष्य परमात्मा भी भगवान् श्रीकृष्ण हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मज्योति तथा अंतर्यामी परमात्मा दोनों ही हैं, लेकिन ब्रह्मज्योति और परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण क पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करते। भगवान् श्रीकृष्ण में ब्रह्मज्योति व परमात्मा दोन हैं, लेकिन ब्रह्मज्योति या परमात्मा में न तो भगवान् श्रीकृष्ण होते हैं, न भगवान श्रीकृष्ण के मधुर सम्बन्ध। अपने साकार रूप में भगवान् श्रीकृष्ण पार्थसारथ तथा वृन्दावन के श्यामसुन्दर दोनों ही हैं, लेकिन निराकार पक्ष में वे न त ब्रह्मज्योति में हैं, न ही परमात्मा में । भीष्मदेव जैसे महात्मा भगवान् श्रीकृष् के इन विभिन्न स्वरूपों का अनुभव कर सकते हैं, अतएव वे भगवान् श्रीकृष को समस्त स्वरूपों का उद्गम जानकर एकाग्रता से उन्हीं की पूजा करते हैं
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