अस्यापि देव वपुषो.. ब्रह्मा स्तुति, भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य 

स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि । 

नेशे महि त्ववसितुं मनसान्तरेण 

साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥२॥

हिन्दी शब्दार्थ —

अस्य — इसका; अपि—भी; देव — हे प्रभुः वपुषः— शरीर; मत्- अनुग्रहस्य— जिसने मेरे ऊपर कृपा दिखलायी है; स्व-इच्छा-मयस्य— जो अपने शुद्ध भक्तों की इच्छा से प्रेरित होकर प्रकट होते हैं; — नहीं; तु—दूसरी ओर, भूत-मयस्य—पदार्थ की उपज; कः - ब्रह्माजी; अपि – भी; न ईशे— मैं समर्थ नहीं हूँ; महि— शक्ति; तु — निःसंदेह; अवसितुम्— अनुमान लगाने में; मनसा-मन से; अन्तरेण-जो नियंत्रित होती तथा विरत होती है; साक्षात्—प्रत्यक्ष; तव-आपकी; एव – निःसंदेह; किम्-उत— क्या कहा जाए; आत्म – आप में सुख-सुख के; अनुभूतेः- आपके अनुभव का।

हिन्दी अनुवाद —

   हे प्रभु! न तो मैं, न ही कोई अन्य आपके इस दिव्य शरीर के सामर्थ्य का अनुमान लगा सकता है, जिसने मुझपर इतनी कृपा दिखाई है। आपका शरीर आपके शुद्ध भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए प्रकट होता है। यद्यपि मेरा मन भौतिक कार्यकलापों से पूर्णरूपेण विरत है, तो भी मैं आपके साकार रूप को नहीं समझ पाता। तो भला मैं आपके ही अन्तर में आपके द्वारा अनुभव किये जाने वाले सुख को कैसे समझ सकता हूँ ?

हिन्दी भावार्थ —

  इस श्लोक में ब्रह्माजी ने निम्नलिखित स्तुतिपूर्ण भाव व्यक्त किया, “ग्वालबाल के रूप में आपका आविर्भाव भक्तों के लाभ के लिए हुआ है। यद्यपि मैंने आपकी गायें, बालक तथा बछड़े चुराकर आपके चरणकमलों में अपराध किया है, किन्तु मैं समझ सकता हूँ कि अब आप मुझपर कृपा दिखा रहे हैं। यह तो आपका दिव्य गुण है कि आप अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं। फिर भी अपने प्रति आपके वात्सल्य के बावजूद मैं आपके शारीरिक कार्यों के सामर्थ्य का अनुमान नहीं लगा सकता। जब इस ब्रह्माण्ड का सर्वोपरि पुरुष मैं बह्मा, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के बाल रूप शरीर का अनुमान नहीं लगा सकता, तो अन्य प्रणियों के विषय में क्या कहा जाए? और यदि मैं आपके बाल रूप शरीर की आध्यात्मिक शक्ति का अनुमान नहीं लगा सकता, तो भला आपकी दिव्य लीलाओं को कैसे समझ सकता हूँ? अतएव, जैसाकि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है, जो कोई श्रीभगवान् की दिव्य लीलाओं, उनके प्राकट्य तथा तिरोधान को रंचमात्र भी समझता है, वह इस भौतिक शरीर को त्यागने के उपरान्त तत्काल भगवद्धाम में प्रवेश करने का पात्र बन जाता है। वेदों में इसकी पुष्टि इन शब्दों में सहज रूप में हुई है : पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जान लेने पर मनुष्य जन्म-मृत्यु के बन्धन से पार पा सकता है। इसलिए मैं तो यही कहूँगा कि लोग आपको मानसिक ज्ञान द्वारा समझने का प्रयास न करें। "

  जब ब्रह्माजी ने सर्वोपरि श्रीभगवान् के पद का अनादर किया, तो भगवान् श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम उन्हें अपनी दिव्य शक्ति प्रदर्शित करके मोहित किया। जब ब्रह्माजी उनके विनीत भक्त बन गए, तो उन्होंने अपना साक्षात् दर्शन दिया।

  भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य शरीर अपने पूर्ण विस्तारों द्वारा अपने कार्य सम्पन्न कर सकता है, जिन्हें विष्णु-तत्व कहते हैं। जैसाकि स्वयं ब्रह्माजी ने ब्रह्मसंहिता (५.३२) में कहा है-अङ्गानि यस्य सकलेन्द्रिय वृत्तिमन्ति। यह श्लोक न केवल इतना ही सूचित करता है कि श्रीभगवान् अपने शरीर का कोई भी कार्य अपने किसी भी अंग द्वारा सम्पन्न कर सकते हैं, अपितु वे अपने श्रीविष्णु अंश के या किसी भी जीव के नेत्रों द्वारा देख भी सकते हैं। इसी प्रकार श्रीविष्णु या जीव- अंश के कानों से सुन सकते हैं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इंगित करते हैं कि यद्यपि श्रीभगवान् अपनी किसी भी इन्द्रिय से कोई भी कार्य कर सकते हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण रूप में अपनी लीलाओं में वे सामान्यतया अपनी ही आँखों से देखते हैं, अपने ही हाथों से छूते हैं और अपने ही कानों से सुनते हैं। इस तरह वे अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर ग्वालबाल की तरह आचरण करते हैं।

   वैदिक ज्ञान का विस्तार ब्रह्माजी से होता है, जिन्हें श्रीमद्भागवतम् के प्रथम श्लोक में आदि कवि कहा गया है। तो भी ब्रह्माजी भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य शरीर को समझ नहीं पाए, क्योंकि वह सामान्य वैदिक ज्ञान की पहुँच से बाहर है। श्रीभगवान् के समस्त दिव्य रूपों में गोविन्द का द्विभुज रूप- - श्रीकृष्ण-ही आदि एवं परम रूप है। अतः भगवान् गोविन्द द्वारा मक्खन चुराने, गोपियों का स्तनपान करने, बछड़े चराने, वंशी बजाने तथा बालक्रीड़ाएँ करने की लीलाएँ भगवान् श्रीविष्णु के विस्तारों के कार्यकलापों की तुलना में अद्वितीय हैं।

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