उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः, ब्रह्मा स्तुति, भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः

किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे।

किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं

तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥१२॥

हिन्दी शब्दार्थ —

उत्क्षेपणम्-लात मारना; गर्भ-गतस्य- गर्भस्थ शिशु; पादयोः- दोनों पाँवों का; किम् – क्या; कल्पते-मूल्य है; मातुः— माता के लिए; अधोक्षज— हे दिव्य प्रभु; आगसे— अपराध के रूप में; किम्-क्या; अस्ति-है; न अस्ति— नहीं है; व्यपदेश— उपाधि से; भूषितम्- अलंकृत; तव-आपका; अस्ति-है; कुक्षेः- उदर के कियत् — कितना; अपि— भी; अनन्तः - बाह्य । 

हिन्दी भावार्थ —

  हे प्रभु अधोक्षज ! क्या कोई माता अपने गर्भ के भीतर स्थित शिशु द्वारा लात मारे जाने को अपराध समझती है ? क्या आपके उदर के बाहर वास्तव में ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, जिसे दार्शनिक जन 'वास्तविक' या 'अवास्तविक' की उपाधि प्रदान कर सकें?

   ब्रह्माजी ने अपनी बराबरी किसी माता के गर्भ में स्थित एक शिशु से की। यदि शिशु गर्भ के भीतर हाथ- पैर चलाता है और वे माता के शरीर से छू जाते हैं, तो क्या माता इस शिशु से रुष्ट होती है ? निःसंदेह नहीं। इसी तरह ब्रह्माजी भले ही महान् पुरुष हों, किन्तु न केवल ब्रह्माजी, अपितु हर वस्तु पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के उदर में स्थित है। श्रीभगवान् की शक्ति सर्वव्यापक है। सृष्टि में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ यह शक्ति क्रियाशील न हो। सारी वस्तुएँ श्रीभगवान् की शक्ति के ही अंतर्गत विद्यमान हैं, अतः इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्माजी अथवा अन्य करोड़ों ब्रह्माण्डों के ब्रह्माजी भी श्रीभगवान् की शक्ति के अंतर्गत स्थित हैं। इसीलिए श्रीभगवान् को माता माना जाता है और माता के गर्भ के भीतर स्थित प्रत्येक वस्तु शिशु मानी जाती है। अच्छी माता कभी भी शिशु का अपराध नहीं मानती, भले ही वह अपने पाँवों से माता के शरीर पर पादप्रहार क्यों न करे।"

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