नारायण कवच, भागवत (६.८.४-३७), हिन्दी अनुवाद सहित।

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sri narayan kavach bhagwat 6.8.4-37
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एक बार त्रिलोकी का राज्य पाकर इन्द्र को अभिमान हो गया। एक दिन वे देव-सभा में अत्युच्च आसन पर विराजमान थे और सभी देव उन की सेवा में व्यस्त थे। उसी समय देवगुरु बृहस्पति जी वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर भी इन्द्र अपने आसन से नहीं उठे और न ही उनका यथोचित सत्कार किया। बृहस्पति जी समझ गए कि यह ऐश्वर्य-मद का प्रभाव है। अतः वे तुरन्त वहाँ से लौट गए। शीघ्र ही इन्द्र को होश आया और प्रायश्चित्त करते हुए देव-गुरु को ढूँढने निकले, किन्तु वे कहीं नहीं मिले। दैत्यों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य के परामर्श से देवलोक पर आक्रमण कर दिया। दैत्यों द्वारा क्षत विक्षत होकर देव-गण ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा के समझाने पर उन्होंने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को अपना गुरु बना लिया। विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से दैत्यों द्वारा छीनी हुई देव-सम्पत्ति और साम्राज्य उन्हें वापस दिला दिए। उसी वैष्णवी विद्या या नारायण कवच का उपदेश विश्वरूप ने देवताओं को दिया।

                   विश्वरूप उवाच

धौताङ्घ्रि-पाणिर् आचम्य सपवित्र उदङ्-मुखः। 

कृत-स्वाङ्ग-कर-न्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ।।४।। 

नारायण-मयं वर्म सन्नह्येद् भय आगते । 

पादयोर् जानुनोर् ऊर्वोर् उदरे हृद्य् अथोरसि । । ५ । । 

मुखे शिरस्य् आनुपूर्व्याद् ओङ्कारादीनि विन्यसेत्। 

ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययम् अथापि वा । । ६।।

विश्वरूप ने कहा—किसी प्रकार के भय का अवसर उपस्थित होने पर मनुष्य को चाहिए कि पहले अपने हाथ-पाँव धोये और तब यह मंत्र — ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा / यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः / श्रीविष्णु श्रीविष्णु श्रीविष्णु — जप कर आचमन करे। तब उसे चाहिए कि कुश को छूकर शान्त भाव से उत्तर की ओर मुख करके बैठ जाये। पूर्णतया शुद्ध होने पर उसे चाहिए कि आठ शब्दों अपने शरीर के दाहिनी ओर के आठ भागों में छुवाये और बारह रा मंत्र को हाथों में छुवाये। फिर नारायण-कवच से स्वयं को इस क बाँधे- पहले आठ शब्दों वाले मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) का हुए, प्रथम शब्द ॐ या प्रणव से प्रारम्भ करके अपने हाथों से अपने के आठों अंगों का स्पर्श करे—पहले दोनों पाँव छुए फिर क्रमश: कुरे जाँघ, पेट, हृदय, छाती, मुँह तथा सिर को छुये। इसके बाद उल्टे क्रम से मंत्र का जप करे अर्थात् अन्तिम शब्द 'य' से प्रारम्भ करे और अपने के अंगों को भी उलटे क्रम से छुए। ये दोनों विधियाँ क्रमशः उत्पत्ति-स्याम तथा संहार-न्यास कहलाती हैं।

कर-न्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षर - विद्यया । 

प्रणवादि-य-कारान्तम् अङ्गुल्य्-अङ्गुष्ठ-पर्वसु ।।७।।

तब उसे चाहिए कि बारह अक्षरों वाले मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का जप करे। इस मंत्र के बारह अक्षरों को दाहिने हाथ की तर्जनी से प्रारम्भ करके बाँये हाथ की तर्जनी तक प्रत्येक अँगुली के छोर पर प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते हुए रखे। शेष चार अक्षरों को अँगूठों के पोरों पर रखे।

न्यसेद् धृदय ओङ्कारं वि-कारम् अनु मूर्धनि । 

ष-कारं तु भ्रुवोर् मध्ये ण-कारं शिखया दिशेत् ।।८।। 

वे-कारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान् न- कारं सर्व- सन्धिषु । 

म-कारम् अस्त्रम् उद्दिश्य मन्त्र-मूर्तिर् भवेद् बुधः। 

सविसर्गम् फडन्तं तत् सर्व-दिक्षु विनिर्दिशेत् ।। ९ ।।

ॐ विष्णवे नम इति । ।१० । ।

फिर उसे छ: अक्षरों वाला मंत्र (ॐ विष्णवे नमः) जपना चाहिए। उसे ॐ को अपने हृदय पर, 'वि को शिरो भाग पर, 'ष' को भौहों के मध्य, 'ण' को चोटी पर तथा 'वे' को नेत्रों के मध्य रखना चाहिए। तब मंत्र जपकर्ता 'न' अक्षर को अपने शरीर के समस्त जोड़ों पर रखे और 'म' अक्षर को अस्त्र के रूप में ध्यान धरे। इस प्रकार वह साक्षात् मंत्र हो जायेगा। तत्पश्चात् उसे चाहिए कि अन्तिम शब्द 'म' में विसर्ग लगाकर 'मः अस्त्राय फट्' इस मंत्र का जप पूर्व दिशा से प्रारम्भ करके सभी दिशाओं में करे। इस तरह सभी दिशाएँ इस मंत्र के सुरक्षा कवच से बँध जायेंगी। 

आत्मानं परमं ध्यायेद् ध्येयं षट् - शक्तिभिर् युतम् ।

विद्या- तेजस्-तपो- मूर्तिम् इमं मन्त्रम् उदाहरेत् ।। ११ । ।

इस प्रकार जप कर लेने के पश्चात् मनुष्य को चाहिए कि वह छः ऐश्वर्यों से युक्त तथा ध्यातव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के साथ अपने आपको गुण की दृष्टि से तदाकार समझे। तब उसे चाहिए कि वह निम्नलिखित नारायण-कवच अर्थात् भगवान् नारायण की सुरक्षा स्तुति का जप करे ।।

ॐ हरिर् विदध्यान् मम सर्व रक्षां

न्यस्ताङ्घ्रि-पद्मः पतगेन्द्र- पृष्ठे ।

दरारि - चर्मासि - गदेषु चाप- -

पाशान् दधानोऽष्ट-गुणोऽष्ट- बाहुः ।। १२ ।।

परमेश्वर पक्षिराज गरुड़ की पीठ पर आसीन हैं और अपने चरण- कमल से उसका स्पर्श कर रहे हैं। वे अपने हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, तीर, धनुष तथा पाश धारण किये हैं। ऐसे आठ भुजाओं वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सभी समय मेरी रक्षा करें। वे सर्वशक्तिमान् हैं क्योंकि वे आठ योग-शक्तियों (अणिमा, लघिमा इत्यादि) से समन्वित हैं।

जलेषु मां रक्षतु मत्स्य- मूर्तिर्

यादो- गणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।

स्थलेषु माया- वटुवामनोऽ ऽ व्यात् 

त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।। १३ ।।

जल के भीतर वरुण देवता के पार्षद हिंस्र पशुओं से मत्स्यरूप धारण करने वाले भगवान् मेरी रक्षा करें। उन्होंने अपनी माया का विस्तार करके वामन का रूप धारण किया। वामन देव स्थल पर मेरी रक्षा करें। उनका विराट् स्वरूप, विश्वरूप, तीनों लोकों को जीतने वाला है, आकाश में मेरी रक्षा करे।

दुर्गेष्व् अटव्य् आजि- मुखादिषु प्रभुः

पायान् नृसिंहोऽसुर-यूथपारिः । 

विमुञ्चतो यस्य महाट्ट -हासं

दिशो विनेदुर् न्यपतंश् च गर्भाः । । १४ । । 

हिरण्यकशिपु के शत्रु रूप में प्रकट होने वाले भगवान् नृसिंह देव समस्त दिशाओं में मेरी रक्षा करें। उनके घोर अट्टहास से समस्त दिशाएँ गूँज उठी थीं और असुरों की पत्नियों के गर्भपात हो गये थे। भगवान् जंगल तथा युद्धभूमि जैसे विकट स्थानों में कृपा करके मेरी रक्षा करें।

रक्षत्व् असौ माध्वनि यज्ञ - कल्पः

स्व- - दंष्ट्रयोनीत-धरो वराहः ।

रामोऽद्रि- कूटेष्व् अथ विप्रवासे

सलक्ष्मणोऽव्याद् भरताग्रजो ऽस्मान् ।। १५ ।। 

परम अविनाशी भगवान् को यज्ञों के द्वारा जाना जाता है, इसीलिए वे यज्ञेश्वर कहलाते हैं। भगवान् वराह के रूप में अवतार लेकर उन्होंने पृथ्वी लोक को ब्रह्माण्ड के गर्त से जल में से निकालकर अपनी नुकीली दाढ़ों में धारण किया। ऐसे भगवान् मार्ग में दुष्टों से मेरी रक्षा करें। परशुराम मेरी पर्वत शिखरों पर रक्षा करें और भरत के अग्रज भगवान् रामचन्द्र अपने भाई लक्ष्मण सहित विदेशों में मेरी रक्षा करें।

माम् उग्र- -धर्माद् अखिलात् प्रमादान्

नारायणः पातु नरश् च हासात् । 

दत्तस् त्व् अयोगाद् अथ योग-नाथः

पायाद् गुणेशः कपिलः कर्म - बन्धात् । । १६ । । 

मिथ्या धर्मों के अनावश्यक पालन तथा प्रमादवश कर्तव्यच्युत होने से भगवान् नारायण मेरी रक्षा करें। नर रूप में प्रकट भगवान् मुझे वृथा गर्व से बचाएँ। भक्तियोग के पालन से च्युत होने से योगेश्वर दत्तात्रेय मेरी रक्षा करें। समस्त श्रेष्ठ गुणों के स्वामी कपिल सकाम कर्म के भौतिक बन्धन से मेरी रक्षा करें।

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्-

धयशीर्षा मां पथि देव-हेलनात् । 

देवर्षि-वर्यः पुरुषार्चनान्तरात् 

कूर्मो हरिर् मां निरयाद् अशेषात्।। १७ ।।

सनत्कुमार कामवासनाओं से मेरी रक्षा करें। जैसे ही मैं कोई शुभकार्य शुरु करूँ, श्री हयग्रीव मेरी रक्षा करें जिससे मैं परमेश्वर को नमस्कार न करने का अपराधी न बनूँ। श्री विग्रह की अर्चना में कोई अपराध न हो इसके लिए देवर्षि नारद मेरी रक्षा करें। भगवान् कूर्म असीम नरकलोक में गिरने से मुझे बचाएँ।

धन्वन्तरिर् भगवान् पात्व् अपथ्याद्

द्वन्द्वाद् भयाद् ऋषभो निर्जितात्मा । 

यज्ञश् च लोकाद् अवताज् जनान्ताद् 

बलो गणात् क्रोध-वशाद् अहीन्द्रः ।। १८ ।।

श्री भगवान् अपने धन्वन्तरि अवतार के रूप में मुझे अवांछित खाद्य पदार्थों से दूर रखें और शारीरिक रुग्णता से मेरी रक्षा करें। अपनी अन्तः तथा बाह्य इन्द्रियों को वश में करने वाले श्री ऋषभदेव सर्दी तथा गर्मी के द्वैत से उत्पन्न भय से मेरी रक्षा करें। भगवान् यज्ञ जनता से मिलने वाले अपयश तथा हानि से मेरी रक्षा करें और शेष-रूप भगवान् बलराम मुझे ईर्ष्यालु सर्पों से बचायें।

द्वैपायनो भगवान् अप्रबोधाद्

बुद्धस् तु पाखण्ड- गणात् प्रमादात् । 

कल्किः कलेः काल- मलात् प्रपातु

धर्मावनायोरु- कृतावतारः । । १९ । ।

वैदिक ज्ञान से विहीन होने के कारण सभी प्रकार की अविद्या से श्री भगवान् के अवतार व्यासदेव मेरी रक्षा करें। वेद विरुद्ध कर्मों से तथा आलस्य से, जिसके कारण प्रमादवश वेद ज्ञान तथा अनुष्ठान भूल जाते हैं, भगवान् बुद्धदेव मुझे बचाएँ। भगवान् कल्कि देव, जिनका अवतार धार्मिक नियमों की रक्षा के लिए हुआ, मुझे कलियुग की मलिनता से बचायें।

मां केशवो गदया प्रातर् अव्याद्

गोविन्द आसङ्गवम् आत्त - वेणुः । 

नारायणः प्राह्ण उदात्त - शक्तिर्

मध्यन्दिने विष्णुर् अरीन्द्र - पाणिः ।। २० ।। 

भगवान् केशव दिन के पहले चरण में अपनी गदा से तथा दिन के दूसरे चरण में अपनी बाँसुरी से गोविन्द मेरी रक्षा करें। सर्व शक्तियों से सम्पन्न भगवान् नारायण दिन के तीसरे चरण में और शत्रुओं का वध करने के लिए हाथ में चक्र धारण करने वाले भगवान् विष्णु दिन के चौथे चरण में मेरी रक्षा करें।

देवोऽपराह्णे मधु - होग्रधन्वा

सायं त्रि-धामावतु माधवो माम् । 

दोषे हृषीकेश उतार्थ - रात्रे 

निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः । । २१ । ।

असुरों के लिए भयावह धनुष धारण करने वाले भगवान् मधुसूदन दिन के पंचम चरण में मेरी रक्षा करें। संध्या समय ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर त्रिमूर्ति के रूप में प्रकट होकर भगवान् माधव और रात्रि प्रारम्भ होने पर भगवान् हृषीकेश मेरी रक्षा करें। अर्ध रात्रि में (रात्रि के दूसरे तथा तीसरे चरण में) केवल भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें।

श्रीवत्स - धामाऽपर- रात्र ईशः

प्रत्यूष ईशोऽसि-धरो जनार्दनः ।

दामोदरोऽव्याद् अनुसन्ध्यं प्रभाते 

विश्वेश्वरो भगवान् काल-मूर्तिः ।। २२ ।।

वक्ष पर श्री वत्स धारण करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अर्धरात्रि के पश्चात् से आकाश के गुलाबी होने तक मेरी रक्षा करें। खड्गधारी भगवान् जनार्दन रात्रि के समाप्त होने तक (रात्रि की अंतिम चार घटिकाओं में) मेरी रक्षा करें। भगवान् दामोदर बड़े भोर में तथा भगवान् विश्वेश्वर दिन तथा रात की संधियों के समय मेरी रक्षा करें।

चक्रं युगान्तानल - तिग्म- नेमि

भ्रमत् समन्ताद् भगवत् प्रयुक्तम् । 

दन्दग्धि दन्दग्ध्य् अरि-सैन्यम् आशु

कक्षं यथा वात- सखो हुताशः ।। २३ ।।

श्री भगवान् द्वारा चलाया जाने वाला तथा चारों दिशाओं में घूमने वाला तीखे किनारे वाला उनका चक्र युगान्त में प्रलय- अग्नि के समान विनाशकारी है। जिस प्रकार प्रातः कालीन मन्द पवन के सहयोग से धधकती अग्नि सूखी घास को भस्म कर देती है, उसी प्रकार यह सुदर्शन चक्र हमारे शत्रुओं को जला कर भस्म कर दे।

गदे ऽशनि - स्पर्शन- विस्फुलिङ्गे

निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्य् अजित - प्रियासि । 

कूष्माण्ड- वैनायक-यक्ष- रक्षो-

भूतग्रहांश् चूर्णय चूर्णयारीन्।। २४ ।।

हे श्री भगवान् के हाथ की गदा ! तुम वज्र के की चिन्गारियाँ उत्पन्न करो, तुम भगवान् की अत्यन्त प्रिय हो। मैं भी उन्हीं का दास हूँ, अतः कुष्माण्ड, वैनायक, यक्ष, राक्षस, भूत तथा ग्रह-गणों को समान शक्तिशाली अग्नि कुचल देने में मेरी सहायता करो। कृपापूर्वक उन्हें चूर चूर कर दो। 

त्वं यातुधान- प्रमथ-प्रेत- मातृ-

पिशाच- विप्रग्रह - घोर - दृष्टीन् ।

दरेन्द्र विद्रावय कृष्ण- पूरितो 

भीम- स्वनोऽरेर् हृदयानि कम्पयन् ।। २५ ।।

भगवान् के हाथों में धारण किए हुए हे शंखश्रेष्ठ, हे पांचजन्य! तुम भगवान् श्री कृष्ण की श्वास से सदैव पूरित हो, अतः तुम ऐसी डरावनी ध्वनि उत्पन्न करो जिससे राक्षस, प्रमथ, भूत, प्रेत, माताएँ, पिशाच तथा ब्रह्म-राक्षस जैसे शत्रुओं के हृदय काँपने लगें।

त्वं तिग्म- धारासि - वरारि- सैन्यम्

ईश- प्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि । 

चक्षूंषि चर्मञ् छत - चन्द्र छादय

द्विषाम् अघोनां हर पाप-चक्षुषाम् ।। २६ ।। 

हे तलवारों में श्रेष्ठ तीक्ष्ण धार वाली तलवार! तुम श्री भगवान् द्वारा काम में लायी जाती हो। कृपा करके तुम मेरे शत्रुओं के सैनिकों को खण्ड- खण्ड कर दो; कृपया उन्हें खण्ड-खण्ड कर दो। हे सैकड़ों चन्द्रमण्डल के समान वृत्ताकारों से अंकित तेजमान् ढाल! पापी दुश्मनों की आँखें ढक दो और उनकी पापी आँखों को निकाल लो।

यन्भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च। 

सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽ होभ्य एव वा । । २७।। 

सर्वाण्य् एतानि भगवन् - नाम-रूपास्त्र -कीर्तनात् । 

प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः । । २८ ।।

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के दिव्य नाम, रूप, तथा आयुधों का कीर्तन हमें अशुभ नक्षत्रों, केतुओं, विद्वेषी मनुष्यों, सर्पों, बिच्छुओं तथा बाघों भेड़ियों जैसे पशुओं के प्रभाव से बचाये। वह प्रेतों से तथा क्षिति, जल, जैसे भौतिक तत्त्वों तथा पूर्व पापों से हमारी रक्षा करे। हम अपने शुभ जीवन में इन बाधाओं से सदैव भयभीत रहते हैं, अतः हरे कृष्ण महामंत्र के जप से इन सबका पूर्ण विनाश हो। पावक, वायु

गरुडो भगवान् स्तोत्र - स्तोभश् छन्दो- मयः प्रभुः । 

रक्षत्व् अशेष-कृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्व-नामभिः ।। २९ । ।

भगवान् विष्णु के वाहन श्रीगरुड़ श्रीभगवान् के समान शक्तिशाली होने के कारण सर्वपूज्य हैं। वे साक्षात् वेद हैं और चुने हुए श्लोकों से उनकी पूजा की जाती है। वे सभी भयानक स्थितियों में हमारी रक्षा करें। भगवान् विष्वक्सेन अपने पवित्र नामों के द्वारा सभी संकटों से बचायें। 

सर्वापद्भ्यो हरेर् नाम-रूप- यानायुधानि नः ।

बुद्धीन्द्रिय-मनः - प्राणान् पान्तु पार्षद भूषणाः ।। ३० ।।

श्री भगवान् के पवित्र नाम, दिव्य रूप, वाहन तथा आयुध, जो उनके पार्षदों के समान उनकी शोभा बढ़ाने वाले हैं, हमारी बुद्धि, इन्द्रियों, मन तथा प्राण की सभी प्रकार के संकटों से रक्षा करें।

यथा हि भगवान् एव वस्तुतः सद् असच् च यत् । 

सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशम् उपद्रवाः ।। ३१ ।।

यह सूक्ष्म तथा स्थूल दृश्य जगत् भौतिक है, तो भी यह पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् से अभिन्न है, क्योंकि वस्तुतः वे ही समस्त कारणों के कारण हैं। कारण तथा कार्य वास्तव में एक ही हैं, क्योंकि कार्य में कारण विद्यमान रहता है। अतः परम सत्य श्री भगवान् हमारे समस्त संकटों को अपने किसी भी शक्तिशाली अंग से नष्ट कर सकते हैं।

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्प-रहितः स्वयम् । 

भूषणायुध-लिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।। ३२ ।।

तेनैव सत्य मानेन सर्व-ज्ञो भगवान् हरिः । 

पातु सर्वैः स्वरूपैर् नः सदा सर्वत्र सर्व-गः ।। ३३ ।।

श्री भगवान्, जीवात्माएँ, भौतिक शक्ति, आध्यात्मिक शक्ति तथा सम्पूर्ण सृष्टि-वे सभी व्यष्टियाँ हैं। अन्ततोगत्वा ये सब मिलकर परब्रह्म का निर्माण करती हैं। अतः जो आत्मज्ञानी हैं, वे भिन्नता में एकता देखते हैं। ऐसे बढ़े-चढ़े पुरुषों के लिए भगवान् के शारीरिक अलंकरण, उनके नाम, उनका यश, उनके लक्षण एवं रूप तथा आयुध उनकी शक्ति की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। उनके समुन्नत आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाले सर्वज्ञ भगवान् सर्वत्र विद्यमान हैं। वे सदैव सभी विपदाओं से सर्वत्र हमारी रक्षा करें।

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वम् अधः समन्ताद्

अन्तर् बहिर् भगवान् नारसिंहः । 

प्रहापयँल्-लोकभयं स्वनेन

स्व- तेजसा ग्रस्त - समस्त- -तेजाः ।। ३४।।

प्रह्लाद महाराज ने भगवान् नृसिंहदेव के पवित्र नाम का उच्चस्वर से जप किया। अपने भक्त प्रह्लाद महाराज के लिए गर्जना करने वाले नृसिंहदेव! आप उन संकटों के भय से हमारी रक्षा करें जो विष, आयुध, जल, अग्नि, वायु इत्यादि के द्वारा समस्त दिशाओं में महा-भटों के द्वारा फैलाया जा चुका है। हे भगवन्! आप अपने दिव्य प्रभाव से इनके प्रभाव को आच्छादित कर लें। नृसिंहदेव समस्त दिशाओं में, ऊपर-नीचे, बाहर-भीतर हमारी रक्षा करें।

मघवन् इदम् आख्यातं वर्म नारायणात्मकम्। 

विजेष्यस्य् अञ्जसा येन दंशितोसुर-यूथपान्।। ३५ ।।

विश्वरूप ने आगे कहा—हे इन्द्र! मैंने तुमसे नारायण के इस गुह्य कवच को कह सुनाया। तुम इस सुरक्षात्मक कवच को धारण करके असुरों के नायकों को जीतने में निश्चय ही समर्थ होगे।

एतद् धारयमाणस् तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।

पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते । । ३६ ।। 

यदि कोई इस कवच को धारण करता है, वह जिस किसी को अपने नेत्रों से देखता है, अथवा पैरों से छू देता है, वह तुरन्त ही उपर्युक्त समस्त संकटों से विमुक्त हो जाता है।

न कुतश्चिद् भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्। 

राज-दस्यु-ग्रहादिभ्यो व्याध्यादिभ्यश्च कर्हिचित् ।। ३७।।

नारायण-कवच नामक यह स्तोत्र नारायण के दिव्यरूप से सम्बद्ध सूक्ष्म ज्ञान से युक्त है। जो इस स्तोत्र का प्रयोग करता है, वह सरकार, लुटेरों, दुष्ट असुरों या किसी प्रकार के रोग द्वारा न तो विचलित किया जाता है न ही सताया जाता है।

COMMENTS

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भागवत दर्शन: नारायण कवच, भागवत (६.८.४-३७), हिन्दी अनुवाद सहित।
नारायण कवच, भागवत (६.८.४-३७), हिन्दी अनुवाद सहित।
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भागवत दर्शन
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