यं प्रब्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यम् का हिन्दी शब्दार्थ एवं अनुवाद, शुकदेव भगवान की स्तुति, भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
1
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं 
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । 
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥२॥

हिन्दी शब्दार्थ —

यम्- जिसको प्रव्रजन्तम्- संन्यास लेते समय; अनुपेतम् — जनेऊ (यज्ञोपवीत) संस्कार किये बिना; अपेत—संस्कार न करके; कृत्यम् —करणीय कर्तव्यः द्वैपायनः-श्री व्यासदेवजी ने विरह-वियोग से; कातरः- भयभीत होकर; आजुहाव - पुकारा; पुत्र इति - हे पुत्रः तत्-मयतया —इस प्रकार लीन होकर तरवः— सभी वृक्षों ने अभिनेदुः— उत्तर दिया; तम्—उनको; सर्व— समस्त भूत — जीवों के हृदयम्- हृदय; मुनिम्— मुनि को; आनतः-अस्मि —नमस्कार करता हूँ।

हिन्दी अनुवाद —

   मैं उन महामुनि (श्री शुकदेव स्वामी) को सादर नमस्कार करता हूँ, जो सबके हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं। जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किये जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गए, तो उनके पिता श्री व्यासदेवजी ने उनके वियोग के भय 'आतुर होकर पुकारा, “हे पुत्र!" जो उस समय वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे, उन्हें मात्र ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया।

हिन्दी भावानुवाद —

  भाव यह है कि वर्ण तथा आश्रम प्रथा में अनुयायियों द्वारा पालन करने हेतु अनेक कर्तव्य निर्दिष्ट किये गए हैं। ऐसे कर्तव्यों में निर्देश है कि वेदों का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु को प्रामाणिक गुरु के पास जाकर अपने आपको शिष्य के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना करनी होती है। जो प्रामाणिक गुरु अथवा आचार्य से वेदों का अध्ययन करने हेतु सुयोग्य हैं, जनेऊ (यज्ञोपवीत) उनका प्रतीक है। श्री शुकदेव स्वामी ने ये संस्कार नहीं किये, क्योंकि वे जन्म से ही 'मुक्तात्मा थे।

  सामान्य रूप से मनुष्य साधारण जीव के रूप में जन्म लेता है और शुद्धीकरण संस्कारों के द्वारा उसका दोबारा जन्म होता है। जब उसे नया प्रकाश दिखता है और वह आध्यात्मिक उन्नति के लिए मार्गदर्शन खोजता है, तो वेदों के उपदेश हेतु वह गुरु के पास जाता है। गुरु केवल निष्ठावान् जिज्ञासु को ही शिष्य रूप में अपनाते हैं और उसे जनेऊ (यज्ञोपवीत) प्रदान करते हैं। इस प्रकार से मनुष्य दूसरी बार जन्मता है या द्विज बनता है। द्विज बनने के पश्चात् वह वेदों का अध्ययन करता है और वेदों में पटु होने पर वह विप्र बनता है। विप्र या योग्य ब्राह्मण परम ब्रह्म का साक्षात्कार करता है और तब तक आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करता रहता है, जब तक वह वैष्णव अवस्था तक नहीं पहुँच जाता। वैष्णव अवस्था किसी ब्राह्मण के लिए स्नातकोत्तर अवस्था है। प्रगतिशील ब्राह्मण को निश्चित रूप से वैष्णव बनना चाहिए, क्योंकि वैष्णव ही स्वरूपसिद्ध विद्वान् ब्राह्मण होता है।

   श्री शुकदेव स्वामी प्रारम्भ से ही वैष्णव थे, अतः उन्हें वर्णाश्रम धर्म के संस्कारों की कोई आवश्यकता न थी। वर्णाश्रम धर्म का परम लक्ष्य साधारण मनुष्य को श्रीभगवान् के शुद्ध भक्त या वैष्णव में बदलना है। अतः जो व्यक्ति उत्तम अधिकारी वैष्णव द्वारा स्वीकृत किये जाने पर वैष्णव बन जाता है, चाहे उसका जन्म या पूर्व कर्म कैसे भी रहे हों, उसे ब्राह्मण माना जाता है।  श्री शुकदेव स्वामी जन्म से ही वैष्णव थे, अतः वे ब्राह्मणत्व से समन्वित थे। उन्हें किसी प्रकार के संस्कार करने की आवश्यकता न थी। कोई भी निम्न कुल में उत्पन्न व्यक्ति, चाहे वह किरात हो या हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कश, आभीर, शुम्भ, यवन, खस या इनसे भी निम्न हो, वैष्णवों की कृपा से उसका उद्धार हो जाता है और वह सर्वोच्च दिव्य पद को प्राप्त करता है। श्री शुकदेव स्वामी श्री सूत जी के गुरु थे, अतः वे नैमिषारण्य के मुनियों के प्रश्नों के उत्तर देने के पूर्व अपने गुरु को नमस्कार करते हैं।

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top