गजेन्द्र मोक्ष, भागवत 8.3.1-29 हिन्दी अनुवाद सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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gajendra moksha by lord vishnu, bhagwat chapter 8.3.1-29
gajendra moksha by lord vishnu,
bhagwat chapter 8.3.1-29


 क्षीरसागर में त्रिकूट नामक सुन्दर विशाल पर्वत था। उस पर्वत के जंगल में बहुत सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र निवास करता था। एक दिन घूमते-घूमते वह गजेन्द्र धूप से व्याकुल हो गया और सरोवर की ओर चल पड़ा। उसने सरोवर में घुसकर स्नान करके अपनी थकान मिटाई। तभी एक ग्राह ने गजेन्द्र का पैर पकड़ लिया। गजेन्द्र ने अपना पैर छुड़ाने का भरसक प्रयत्न किया। एक हजार वर्षों तक ग्राह और गजेन्द्र में संघर्ष चलता रहा, किन्तु गजेन्द्र अपना पैर छुड़ा नहीं सका। हार कर गजेन्द्र ने सोचा कि सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् श्री हरि की ही शरण लेनी चाहिए। गजेन्द्र पूर्व जन्म में इन्द्रद्युम्न नामक मानव था। तब उसने भगवान् का एक सुन्दर स्तोत्र सीखा था। गजेन्द्र ने उसी स्तोत्र द्वारा भगवान् की स्तुति आरम्भ की। फलस्वरूप भगवान् प्रकट हुए और गजेन्द्र को ग्राह से मुक्ति दिलाई।


                    श्रीबादरायणिरुवाच


एवं   व्यवसितो   बुद्ध्या   समाधाय  मनो  हृदि । 

जजाप परमं जाप्यं प्राग्-जन्मन्य् अनुशिक्षितम् ।। १।।


  श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहाः तत्पश्चात् गजेन्द्र ने अपना मन पूर्ण बुद्धि के साथ अपने हृदय में स्थिर कर लिया और उस मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया, जिसे उसने इन्द्रद्युम्न नामक अपने पूर्व जन्म में सीखा था, और जो श्री कृष्ण की कृपा से उसे स्मरण था।

                       गजेन्द्र उवाच


ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच् चिदात्मकम्  ।

पुरुषायादि  - बीजाय        परेशायाभिधीमहि ।। २।।


  गजेन्द्र ने कहा, “मैं परम पुरुष वासुदेव को सादर नमस्कार करता हूँ (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) । उन्हीं के कारण यह शरीर आत्मा की उपस्थिति के फलस्वरूप कर्म करता है। अतएव वे प्रत्येक जीव के मूल कारण हैं। वे ब्रह्मा तथा शिव जैसे महापुरुषों के लिए पूजनीय हैं और वे प्रत्येक जीव के हृदय में प्रविष्ट हैं। मैं उनका ध्यान करता हूँ।"


यस्मिन्निदं   यतश्   चेदं  येनेदं   य  इदं  स्वयम् । 

योऽस्मात् परस्माच् च परस् तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्।। ३।।


  भगवान् की वह परम धरातल है, जिस पर प्रत्येक वस्तु टिकी हुई है। से यह अवयव हैं जिससे प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हुई है तथा वे वह पुरुष हैं, जिसने सृष्टि की रचना की और जो इस विराट् विश्व के एकमात्र कारण हैं। फिर भी वे कारण-कार्य से पृथक हैं। मैं उन भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ जो सभी प्रकार से आत्मनिर्भर हैं।

यः     स्वात्मनीदं    निज-     माययार्पितं

                 क्वचिद् विभातं क्व च तत् तिरोहितम् । 

अविद्ध-दृक् साक्ष्य् उभयं तद् ईक्षते 

                 स   आत्म- मूलोऽवतु मां परात् परः ।।४।।


   भगवान् अपनी शक्ति के विस्तार द्वारा कभी इस दृश्य जगत् को व्यक्त बनाते हैं और कभी इसे अव्यक्त बना देते हैं। वे सभी परिस्थितियों में परम कारण तथा परम कार्य (फल), प्रेक्षक तथा साक्षी दोनों हैं। इस प्रकार वे सभी वस्तुओं से परे हैं। ऐसे भगवान् मेरी रक्षा करें।


कालेन पञ्चत्वम् इतेषु कृत्स्नशो

                लोकेषु    पालेषु   च  सर्व-हेतुषु । 

तमस् तदाऽऽसीद् गहनं गभीरं 

                यस् तस्य पारेऽभिविराजते विभुः।। ५।।


  कालक्रम से जब लोकों तथा उनके निदेशकों एवं पालकों समेत ब्रह्माण्ड के सारे कार्य-कारणों का संहार हो जाता है, तो गहन अंधकार की स्थिति आ जाती है। किन्तु अंधकार के ऊपर भगवान् रहते हैं। मैं उनके अणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ।


न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्

                    जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुम् ईरितुम्। 

नटस्याकृतिभिर् विचेष्टतो यथा

                    दुरत्ययानुक्रमणः       स     मावतु।। ६ ।। 


  माया के कारण रंगमंच के कलाकार को श्रोता समझ नहीं पाते। इसी प्रकार आकर्षक वेशभूषा से ढके रहने तथा विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से परम कलाकार के कार्यों तथा स्वरूपों को बड़े-बड़े मुनि या देवतागण भी नहीं समझ पाते और बुद्धिहीन (जो पशुओं के तुल्य हैं) तो तनिक भी नहीं न तो देवता, न मुनि, न ही बुद्धिहीन मनुष्य भगवान् के स्वरूप को समझ सकते हैं और न ही वे उनकी वास्तविक स्थिति को व्यक्त कर सकते हैं। ऐसे भगवान् मेरी रक्षा करें।


दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं

             विमुक्त-सङ्गा  मुनयः सुसाधवः । 

चरन्त्य् अलोक-व्रतम् अव्रणं वने

             भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ।।७।। 


   जो सभी जीवों को समभाव से देखते हैं, जो सब के मित्रवत् हैं तथा जो जंगल में ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास व्रत का बिना त्रुटि के अभ्यास करते हैं, ऐसे विमुक्त तथा मुनिगण भगवान् के सर्व-कल्याणप्रद चरणकमलों का दर्शन पाने के इच्छुक रहते हैं। वही भगवान् मेरे गन्तव्य हों। 


न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा

            न    नाम-रूपे    गुण-दोष   एव वा । 

तथापि लोकाप्यय-सम्भवाय यः

            स्व-मायया तान्यनु-कालम् ऋच्छति।। ८।। 


तस्मै     नमः      परेशाय        ब्रह्मणेऽनन्त- शक्तये । 

अरूपायोरु-रूपाय         नम           आश्चर्य-कर्मणे ।। ९।।


   पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् भौतिक जन्म, कार्य, नाम, रूप, गुण या दोष से रहित हैं। यह भौतिक जगत् जिस अभिप्राय से सृजित और विनष्ट होता रहता है उसकी पूर्ति के लिए वे अपनी मूल अन्तरंगा शक्ति द्वारा श्री रामचन्द्र या भगवान् कृष्ण जैसे मानव सदृश रूप में आते हैं। उनकी शक्ति महान् है और वे विभिन्न रूपों में भौतिक कल्मष से सर्वथा मुक्त होकर अद्भुत कर्म करते हैं। अतएव वे परब्रह्म हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।


नम         आत्म- प्रदीपाय     साक्षिणे   परमात्मने । 

नमो      गिरां   विदूराय    मनसश्   चेतसाम् अपि ।। १०।।


   मैं उन आत्मप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो प्रत्येक में साक्षी स्वरूप स्थित हैं, व्यष्टि जीवात्मा को प्रकाशित करते हैं और जिन तक मन, वाणी या चेतना के प्रयासों द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता।  


सत्त्वेन       प्रतिलभ्याय    नैष्कर्म्येण   विपश्चिता । 

नमः     कैवल्य - नाथाय     निर्वाण-सुख-संविदे ।। ११।।


  भगवान् की अनुभूति उन शुद्ध भक्तों को होती है, जो भक्तियोग की दिव्य स्थिति में रहकर कर्म करते हैं। वे अकलुषित सुख के दाता हैं और दिव्यलोक के स्वामी हैं। अतएव मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।


नमः    शान्ताय    घोराय   मूढाय   गुण-धर्मिणे । 

निर्विशेषाय   साम्याय   नमो   ज्ञान- घनाय   च ।। १२ ।।


  मैं सर्वव्यापी भगवान् वासुदेव को, भगवान् के भयानक रूप नृसिंह देव को, भगवान् के पशुरूप (वराह देव) को, निर्विशेषवाद का उपदेश देने वाले भगवान् दत्तात्रेय को, भगवान् बुद्ध को तथा अन्य सारे अवतारों को नमस्कार करता हूँ। मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ, जो निर्गुण हैं, किन्तु भौतिक जगत् में सतो, रजो तथा तमो गुणों को स्वीकार करते हैं। मैं निर्विशेष ब्रह्मतेज को भी सादर नमस्कार करता हूँ।


क्षेत्र-ज्ञाय   नमस्- तुभ्यं    सर्वाध्यक्षाय  साक्षिणे । 

पुरुषायात्म-मूलाय     मूल      प्रकृतये       नमः ।। १३।।


  मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप परमात्मा, हर एक के अध्यक्ष तथा जो कुछ भी घटित होता है उसके साक्षी हैं। आप परम पुरुष, प्रकृति तथा समग्र भौतिक शक्ति के उद्गम हैं। आप भौतिक शरीर के भी स्वामी | अतएव आप परम पूर्ण हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। हैं।


सर्वेन्द्रिय-गुण-द्रष्ट्रे                 सर्व-प्रत्यय-हेतवे ।

असताच्छाययोक्ताय    सद्-आभासाय   ते   नमः।।१४।। 


  हे भगवन्! आप समस्त इन्द्रिय-विषयों के द्रष्टा हैं। आपकी कृपा के बिना सन्देहों की समस्या के हल होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह भौतिक जगत् आपके अनुरूप छाया के समान है। निस्सन्देह, मनुष्य इस भौतिक जगत् को सत्य मानता है क्योंकि इससे आपके अस्तित्व की झलक मिलती है।


नमो नमस्तेऽखिल कारणाय

                 निष्कारणायाद्भुत- कारणाय । 

सर्वागमाम्नाय - महार्णवाय 

                  नमोऽपवर्गाय    परायणाय ।। १५ ।।


  हे भगवन्! आप समस्त कारणों के कारण हैं, किन्तु आपका अपना कोई कारण नहीं है। अतएव आप हर वस्तु के अद्भुत कारण हैं। मैं आपको अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। आप पंचरात्र तथा वेदान्तसूत्र जैसे शास्त्रों में निहित वैदिक ज्ञान के आश्रय हैं, जो आपके ही साक्षात् स्वरूप हैं और परम्परा पद्धति के स्रोत हैं। चूँकि मोक्ष प्रदाता आप ही हैं अतएव आप ही अध्यात्मवादियों के एकमात्र आश्रय हैं। मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।


गुणारणिच्छन्न- चिद् - ऊष्मपाय

                  तत्क्षोभ - विस्फूर्जित- मानसाय । 

नैष्कर्म्य- भावेन विवर्जितागम- 

                   स्वयं-प्रकाशाय   नमस्  करोमि ।। १६।।


   हे प्रभु! जिस प्रकार अरणि-काष्ठ में अग्नि ढकी रहती है उसी प्रकार आप तथा आपका असीम ज्ञान प्रकृति के भौतिक गुणों से ढका रहता है। किन्तु आपका मन प्रकृति के गुणों के कार्यकलापों पर ध्यान नहीं देता। जो लोग आध्यात्मिक ज्ञान में बढ़े-चढ़े हैं, वे वैदिक वाङ्मय में निर्देशित विधि-विधानों के अधीन नहीं होते। चूँकि ऐसे उन्नत लोग दिव्य होते हैं अतएव आप स्वयं उनके शुद्ध मन में प्रकट होते हैं। इसलिए मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।


मादृक्- प्रपन्न- पशु-पाश-विमोक्षणाय

               मुक्ताय भूरि- करुणाय नमोऽलयाय ।

स्वांशेन सर्व-तनु- भृन्मनसि प्रतीत- 

                प्रत्यग्दृशे  भगवते   बृहते    नमस्ते ।। १७ ।।


   चूँकि मुझ जैसे पशु ने पापमुक्त आपकी शरण ग्रहण की है, अतएव आप निक्षय ही मुझे इस संकटमय स्थिति से उबार लेंगे। निस्सन्देह, अत्यंत 1 होने के कारण आप निरन्तर मेरा उद्धार करने का प्रयास करते हैं। दयालु आप अपने परमात्मा-रूप अंश से समस्त देहधारी जीवों के हृदय में स्थित है। आप प्रत्यक्ष दिव्य ज्ञान के रूप में विख्यात हैं और आप असीम हैं। हे भगवन्! मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।


आत्मात्मजाप्त-गृह-वित्त- जनेषु सक्तैर् 

                    दुष्प्रापणाय गुण-सङ्ग-विवर्जिताय ।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय

                     ज्ञानात्मने  भगवते  नम  ईश्वराय ।। १८।। 


   हे प्रभु! जो लोग भौतिक कल्मष से पूर्णत: मुक्त हैं, वे अपने अन्तस्थल में सदैव आपका ध्यान करते हैं। आप मुझ जैसों के लिए दुष्प्राप्य हैं, जो मनोरथ, घर, सम्बन्धियों, मित्रों, धन, नौकरों तथा सहायकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। आप प्रकृति के गुणों से निष्कलुषित भगवान् हैं। आप सारे ज्ञान के आगार, परमनियन्ता हैं। अतएव मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ।


यं धर्मकामार्थ-विमुक्ति- कामा

                       भजन्त  इष्टां  गतिम्  आप्नुवन्ति ।

किं त्वाशिषो रात्यपि देहम् अव्ययम्

                        करोतु मेऽदभ्र-दयो विमोक्षणम् ।। १९ ।। 


  भगवान् की पूजा करने पर जो लोग धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष- इन चारों में रुचि रखते हैं, वे उनसे अपनी इच्छानुसार इन्हें प्राप्त कर सकते हैं। तो फिर अन्य आशीर्वादों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कभी-कभी भगवान् ऐसे महत्वाकांक्षी पूजकों को आध्यात्मिक शरीर प्रदान करते हैं। जो भगवान् असीम कृपालु हैं, वे मुझे वर्तमान संकट से तथा भौतिकतावादी जीवन शैली से मुक्ति का आशीर्वाद दें।


एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं

                   वाञ्छन्ति ये वै भगवत्- प्रपन्नाः ।

अत्यद्भुतं तच्-चरितं सुमङ्गलं 

                    गायन्त     आनन्द-समुद्र-मग्नाः ।। २० ।।


तम् अक्षरं ब्रह्म परं परेशम्

            अव्यक्तम् आध्यात्मिक-योग-गम्यम् । 

अतीन्द्रियं सूक्ष्मम् इवाति- दूरम्

            अनन्तम्    आद्यं    परिपूर्णम्    ईडे ।। २१ ।।


   ऐसे अनन्य भक्त जिन्हें भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य कोई चाह नहीं रहती, वे पूर्णतः शरणागत होकर उनकी पूजा करते हैं और उनके आश्चर्यजनक तथा शुभ कार्यकलापों के विषय में सदैव सुनते हैं तथा कीर्तन करते हैं। इस प्रकार वे सदैव दिव्य आनन्द के सागर में मग्न रहते हैं। ऐसे भक्त भगवान् से कोई वरदान नहीं मांगते, किन्तु मैं तो संकट में हूँ। अतएव मैं उन भगवान् की स्तुति करता हूँ जो शाश्वत रूप में विद्यमान हैं, जो अदृश्य हैं, जो ब्रह्मा जैसे महापुरुषों के भी स्वामी हैं और जो केवल दिव्य भक्तियोग द्वारा ही प्राप्य हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वे मेरी इन्द्रियों की पहुँच से तथा समस्त बाह्य अनुभूति से परे हैं। वे असीम हैं, वे आदि कारण हैं और सभी तरह से पूर्ण हैं। मैं उनको नमस्कार करता हूँ।


यस्य   ब्रह्मादयो  देवा वेदा लोकाश् चराचराः । 

नाम-रूप- -विभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ।। २२ ।।


यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर् गभस्तयो 

           निर्यान्ति संयान्त्य् असकृत् स्व-रोचिषः । 

तथा यतोऽयं गुण-सम्प्रवाहो

                      बुद्धिर् मनः खानि शरीर-सर्गाः ।। २३ ।। 


सवै न देवासुर - मर्त्य तिर्यङ्

          न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जन्तुः ।

नायं गुणः कर्म न सन् न चासन्

           निषेध-शेषो    जयताद्     अशेषः ।। २४।।


   भगवान् अपने सूक्ष्म अंश जीव तत्त्व की सृष्टि करते हैं जिसमें ब्रह्मा, देवता तथा वैदिक ज्ञान के अंग (साम, ऋग् यजुर तथा अथर्व) से लेकर अपने-अपने नामो तथा गुणों सहित समस्त चर तथा अचर प्राणी सम्मिलित है। जिस प्रकार अग्नि के स्फुलिंग या सूर्य की चमकीली किरणें अपने स्रोत से निकलकर पुन: उसी में समा जाती हैं उसी प्रकार मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, स्कूल भौतिक तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर तथा प्रकृति के गुणों के सतत रूपान्तर (विकार)- ये सभी भगवान् स उद्भूत होकर पुनः उन्हीं में समा जाते हैं। वे न तो देव हैं, न दानव, न मनुष्य, न पक्षी और न ही पशु हे न तो स्त्री या पुरुष या क्लीब हैं, न ही वे भौतिक गुण, सकाम कर्म, प्राकट्य या अप्राकट्य हैं। वे "नेति नेति" का भेदभाव करने में अन्तिम शब्द हैं और वे अनन्त हैं। उन भगवान् की जय हो।


जिजीविषे नाहम् इहामुया किम्

                अन्तर् बहिश् चावृतयेभ- योन्या । 

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्

               तस्यात्म - लोकावरणस्य  मोक्षम्।। २५ ।। 


   घड़ियाल के आक्रमण से मुक्त किये जाने के बाद मैं और आगे जीवित रहना नहीं चाहता। हाथी के शरीर से क्या लाभ जो भीतर तथा बाहर से अज्ञान से आच्छादित हो? मैं तो अज्ञान के आवरण से केवल नित्य मोक्ष की कामना करता हूँ। यह आवरण काल के प्रभाव से विनष्ट नहीं होता।


सोऽहं    विश्व-सृजं विश्वम् अविश्वम् विश्व-वेदसम् ।

विश्वात्मानम्    अजं   ब्रह्म   प्रणतोऽस्मि  परं पदम्।। २६ ।।


   भौतिक जीवन से मोक्ष की कामना करता हुआ मैं अब उन परम पुरुष को सादर नमस्कार करता हूँ इस ब्रह्माण्ड के स्रष्टा हैं, जो साक्षात् विश्व का स्वरूप होते हुए भी इस विश्व से परे हैं। वे इस जगत् में हर वस्तु के परम ज्ञाता हैं, ब्रह्माण्ड के परमात्मा हैं। वे अजन्मा हैं और परम पद स्थित भगवान् हैं। उन्हें मैं सादर नमस्कार करता हूँ।


योग-रन्धित - कर्माणो   हृदि    योग-विभाविते ।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्य् अहम् ।। २७ ।। 


   मैं उन ब्रह्म, परमात्मा, समस्त योग के स्वामी को सादर नमस्कार करता हूँ जो सिद्ध योगियों द्वारा अपने हृदय में तब देखे जाते हैं जब उनके हृदय भक्तियोग के अभ्यास द्वारा सकाम कर्मों के फलों से पूर्णतया शुद्ध तथा मुक्त हो जाते हैं।


नमो नमस् तुभ्यम् असह्य-  वेग-

                 शक्ति-त्रयायाखिल-धी-गुणाय ।

प्रपन्न-   पालाय    दुरन्त- शक्तये

        कद् - इन्द्रियाणाम् अनवाप्य - वर्त्मने।। २८ ।। 


   हे प्रभु! आप तीन प्रकार की शक्तियों से दुस्तर वेग के नियामक हैं। आप समस्त इन्द्रियसुख के आगार हैं और शरणागत जीवों के रक्षक हैं। आप असीम शक्ति के स्वामी हैं, किन्तु जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखने में अक्षम हैं, वे आप तक नहीं पहुँच पाते हैं। मैं आपको बारम्बार सादर नमस्कार करता हूँ।


नायं  वेद  स्वम्  आत्मानं  यच्छक्त्याहं-धिया हतम् । 

तं    दुरत्यय-माहात्म्यं    भगवन्तम्   इतोऽस्म्यहम् ।। २९ ।।


   मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ जिनकी माया से ईश्वर का अंश जीव देहात्मबुद्धि के कारण अपनी असली पहचान को है। मैं उन भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ जिनकी महिमा को समझ पाना कठिन है।



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