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कुन्ती स्तुति भागवत (1.8.18-43) हिन्दी अनुवाद सहित

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 कुन्त्युवाच

नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम् । 

अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम् ॥१८॥

हिन्दी शब्दार्थ —

कुन्ती उवाच—श्रीमती कुन्ती ने कहा; नमस्ये—मेरा नमस्कार है; पुरुषम् — परम पुरुष को; त्वा—आप; आद्यम्—–मूल; ईश्वरम् —नियन्ता; प्रकृतेः –भौतिक ब्रह्माण्डों के, परम्―परे; अलक्ष्यम्–अदृश्य; सर्व – समस्त; भूतानाम् —जीवों के; अन्तः-अंदर बहिः - बाहर; अवस्थितम् — स्थित ।

हिन्दी अनुवाद —

  श्रीमती कुन्ती ने कहा- हे श्रीकृष्ण ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ; क्योंकि आप ही आदिपुरुष हैं और इस भौतिक जगत् के गुणों निर्लिप्त रहते हैं। आप समस्त वस्तुओं के अंदर तथा बाहर स्थित रहते हुए भी सबके लिए अदृश्य हैं।

मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम् । 

न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा ॥१९॥

हिन्दी शब्दार्थ —

माया—ठगने वाली; जवनिका—पर्दा; आच्छन्नम् — द्वारा ढका हुआ; अज्ञा— अज्ञानी, अधोक्षजम्— भौतिक बोध की सीमा से परे (दिव्य); अव्ययम्-अविनाशी; - नहीं लक्ष्यसे-दिखता है; मूढ-दृशा-अल्पज्ञ देखने वाले द्वारा; नटः- कलाकार; नाट्य-धर:- अभिनेता का वेश धारण किये; यथा- जिस प्रकार ।

हिन्दी अनुवाद —

  सीमित इन्द्रिय ज्ञान से परे होने के कारण आप मोहिनी शक्ति (माया) के पर्दे से ढके रहने वाले शाश्वत अव्यय-तत्त्व हैं। आप अल्पज्ञानी दर्शक के लिए ठीक उसी प्रकार अदृश्य रहते हैं, जिस प्रकार अभिनेता के वेश में कलाकार पहचान में नहीं आता ।

तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् । 

भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः ॥२०॥

हिन्दी शब्दार्थ —

तथा—इसके अतिरिक्त; परमहंसानाम् – उन्नत अध्यात्मवादियों का; मुनीनाम्—महान् चिन्तकों या विचारकों का, अमल-आत्मनाम्— आत्मा तथा पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम मन वाले; भक्ति-योग-भक्ति का विज्ञान; विधान-अर्थम् — सम्पन्न करने हेतु: कथम् — कैसे; पश्येम—देख सकती हैं; हि-निश्चित ही; स्त्रियः - स्त्रियाँ ।

हिन्दी अनुवाद —

  आप उन्नत अध्यात्मवादियों तथा आत्मा एवं पदार्थ में अन्तर करने में सक्षम होने से शुद्ध बने विचारकों के हृदयों में भक्ति के दिव्य विज्ञान का प्रसार करने हेतु स्वयं अवतरित होते हैं। तो फिर हम स्त्रियाँ आपको किस प्रकार पूर्ण रूप से जान सकती हैं ?

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।

नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥२१॥

हिन्दी शब्दार्थ

कृष्णाय — परम भगवान् को; वासुदेवाय - वसुदेव के पुत्र को, देवकी नन्दनाय— देवकी के पुत्र का;  —तथा; नन्द-गोप- नन्द तथा ग्वालों के, कुमाराय— उनके पुत्र को; गोविन्दाय–श्रीभगवान् को, जो इन्द्रियों तथा गायों के प्राण हैं; नमः—सादर नमस्कार नमः - नमस्कार ।

हिन्दी अनुवाद —

  अतः मैं उन श्रीभगवान् को सादर नमस्कार करती हूँ, जो वसुदेव के पुत्र, देवकी के लाड़ले, नन्द तथा वृन्दावन के अन्य ग्वालों के लाल एवं गौवों तथा इन्द्रियों के प्राण बनकर आए हैं।

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने । 

नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥२२॥

हिन्दी शब्दार्थ —

नमः - सादर नमस्कार है; पङ्कज-नाभाय - श्रीभगवान् को, जिनके उदर के मध्यभाग में कमलपुष्प के समान नाभि है; नमः - नमस्कार; पङ्कज-मालिने – कमलपुष्प की माला से सदैव सज्जित रहने वाले को; नमः - नमस्कार; पङ्कज-नेत्राय - जिनकी दृष्टि कमलपुष्प के समान शीतल है; नमः ते― आपको नमस्कार है; पङ्कज-अङ्घ्रये- आपको, जिनके चरणों के तलवे कमलपुष्पों से अंकित हैं (और इसलिए उन्हें चरणकमल कहा जाता है)।

हिन्दी अनुवाद —

  जिनके उदर के मध्य में कमलपुष्प के सदृश नाभि है, जो सदैव कमलपुष्प की माला से शोभायमान हैं, जिनकी चितवन कमलपुष्प के समान शीतल है और जिनके चरणों में कमल अंकित हैं ऐसे हे प्रभु! मैं आपको सादर नमस्कार करती हूँ ।

यथा हृषीकेश खलेन देवकी 

कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।

विमोचिताहं च सहात्मजा विभो

त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥२३॥

हिन्दी शब्दार्थ —

यथा— जैसे; हृषीकेश— इन्द्रियों के स्वामी; खलेन- ईर्ष्यालु द्वारा; देवकी - देवकी(श्रीकृष्ण की माता); कंसेन - राजा कंस द्वारा; रुद्धा-बन्दी बनायी गई; अति-चिरम्–दीर्घकाल तक; शुच-अर्पिता – दुःखी; विमोचिता-मुक्त किया; अहम्-च—मैं भी; सह-आत्म-जा - अपने बच्चों सहित; विभो— हे महान्; त्वया एव - आप ही के द्वारा; नाथेन -रक्षक के रूप में; मुहुः - निरन्तर; विपत्-गणात् — विपत्तियों के समूह से।

हिन्दी अनुवाद —

  हे हृषीकेश, हे इन्द्रियों के स्वामी, तथा देवों के देव!, आपने दीर्घकाल तक बन्दिनी बनायी गई और दुष्ट राजा कंस द्वारा सताई जा रही अपनी माता देवकी को तथा अनवरत विपत्तियों से घिरे हुए मेरे पुत्रों सहित मुझको मुक्त किया है।

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शना-

दसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः । 

मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो

द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥२४॥

हिन्दी शब्दार्थ —

विषात्—–विष से; महा-अग्नेः—प्रचंड आग से; पुरुष-अद- नरभक्षी से; दर्शनात्— युद्ध करके; असत्—दुष्ट; सभायाः – सभा से; वन-वास–जंगल में प्रवासित; कृच्छ्रतः- कष्ट से; मृधे मृधे—युद्ध में बारम्बार; अनेक—– अनेक; महा-रथ—-बड़े- बड़े सेनानायक; अस्त्रतः—हथियार से; द्रौणि-द्रोणाचार्य के पुत्र के; अस्त्रतः–अस्त्र से; – तथा; आस्म—था; हरे – हे भगवान्; अभिरक्षिताः- पूर्ण रूप से सुरक्षित।

हिन्दी अनुवाद —

  हे श्रीकृष्ण! आपने हमें विषाक्त भोजन से, भीषण अग्नि से, नरभक्षियों से, दुष्ट सभा से, वनवास काल के कष्टों से तथा महारथियों द्वारा लड़े गए युद्ध से बचाया है। और अब आपने हमें अश्वत्थामा के अस्त्र से बचा लिया है।

विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । 

भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥२५॥

हिन्दी शब्दार्थ —

विपदः - विपत्तियाँ सन्तु—आने दो; ताः —सभी; शश्वत् —पुनः पुनः; तत्र-वहाँ तत्र—तथा वहाँ; जगत्-गुरो— हे जगत् के स्वामी; भवतः - आपकी; दर्शनम्— भेंट; यत्—जो; स्यात्—हो; अपुनः- दोबारा नहीं; भव-दर्शनम् — जन्म-मृत्यु को बारम्बार देखना ।

हिन्दी अनुवाद —

  मैं चाहती हूँ कि ये सभी विपत्तियाँ बारम्बार आएँ, जिससे हम आपका दर्शन पुनः पुनः कर सकें; क्योंकि आपके दर्शन का अर्थ यह है कि हमें बारम्बार होने वाले जन्म तथा मृत्यु को नहीं देखना पड़ेगा।

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान् । 

नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम् ॥२६॥

हिन्दी शब्दार्थ —

जन्म-जन्म; ऐश्वर्य - ऐश्वर्य; श्रुत-शिक्षा; श्रीभिः- सुन्दरता के स्वामित्व द्वारा; एधमान - निरन्तर बढ़ता हुआ; मदः- नशा, पुमान्– मनुष्य; न—कभी नहीं; एव- ही; अर्हति — पात्र होता है; अभिधातुम्— भावविभोर होकर सम्बोधित करने हेतु; वै- निश्चय ही; त्वाम्—आपको; अकिञ्चन-गोचरम् - जो भौतिक दृष्टि से दरिद्र व्यक्ति द्वारा सरलता से प्राप्त हो सके।

हिन्दी अनुवाद —

   हे प्रभु! आप सरलता से प्राप्त होने वाले हैं, लेकिन केवल भौतिक दृष्टि से अकिंचन मनुष्यों द्वारा। जो सम्मानित कुल, महान् ऐश्वर्य, उच्च शिक्षा तथा शारीरिक सौंदर्य के द्वारा भौतिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने के प्रयास में लगा रहता है, वह आप तक एकनिष्ठ भाव से नहीं पहुँच पाता।

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।

आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः ॥२७॥ 

हिन्दी शब्दार्थ —

नमः - आपको प्रणाम है; अकिञ्चन-वित्ताय-निर्धनों के धन स्वरूप को; निवृत्त- भौतिक गुणों की क्रियाओं से पूर्णरूपेण परे; गुण— भौतिक गुण; वृत्तये – स्नेह; आत्म-आरामाय - आत्मतुष्ट को; शान्ताय - परम शांत को; कैवल्य-पतये-अद्वैतवादियों के स्वामी को; नमः -प्रणाम है।

हिन्दी अनुवाद —

  मैं आपको नमस्कार करती हूँ, जो निर्धनों के धन हैं। आपको प्रकृति के भौतिक गुणों की क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से कोई सरोकार नहीं है। आप आत्मतुष्ट हैं, अतएव आप परम शांत तथा अद्वैतवादियों के स्वामी (कैवल्यपति) हैं।

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम् ।

समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः ॥२८॥ 

हिन्दी शब्दार्थ —

मन्ये—मैं मानती हूँ; त्वाम्—आपको; कालम् —शाश्वत समय; ईशानम्-परमेश्वरः अनादि-निधनम्—आदि-अंतरहित; विभुम् — सर्वव्यापी; समम्— समान रूप से दयालु; चरन्तम्—वितरित करते हुए; सर्वत्र - सभी जगह; भूतानाम् — जीवों का; यत् - मिथ:- मिलने-जुलने से; कलिः - कलह ।

हिन्दी अनुवाद —

  हे भगवान्! मैं आपको शाश्वत समय, परम नियन्ता, आदि-अंत से रहित तथा सर्वव्यापी मानती हूँ। आप सबपर समान रूप से दया दिखलाते हैं। जीवों में जो पारस्परिक कलह है, वह सामाजिक संसर्ग के कारण है।

न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं 

तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम् । 

न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद् 

द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिर्नृणाम् ॥२९॥

हिन्दी शब्दार्थ —

न— नहीं; वेद - जानता; कश्चित्-कोई; भगवन्- हे प्रभुः चिकीर्षितम्- लीलाएँ; तव— आपकी, ईहमानस्य- सांसारिक व्यक्तियों की भाँति, नृणाम्— सामान्य मनुष्यों का; विडम्बनम् —भ्रामक; न—कभी नहीं; यस्य — उनका, कश्चित्— कोई; दयितः- विशेष कृपापात्र; अस्ति- है; कर्हिचित्— कहीं; द्वेष्यः - ईर्ष्या का पात्र; च-तथा; यस्मिन्—उनके प्रति; विषमा — पक्षपात; मतिः - विचार; नृणाम्—मनुष्यों का।

हिन्दी अनुवाद —

  हे प्रभु! आपकी दिव्य लीलाओं को कोई समझ नहीं सकता; क्योंकि वे मानवीय प्रतीत होती हैं और इस कारण भ्रामक हैं। न तो आपका कोई विशेष कृपापात्र है, न ही कोई आपका अप्रिय है। यह केवल मनुष्यों की कल्पना ही है कि आप पक्षपात करते हैं।

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः । 

तिर्यङ्नृषिषु यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम् ॥३०॥

हिन्दी शब्दार्थ —

जन्म-जन्म; कर्म-कर्म - तथा; विश्व-आत्मन् — हे विश्व के आत्मा; अजस्य– अजन्मा की; अकर्तुः - निष्क्रिय की; आत्मनः - प्राणशक्ति की; तिर्यक् — पशु; नृ — मनुष्य; ऋषिषु — ऋषियों में; यादः सु-जल में; तत्—वह; अत्यन्त—वास्तविक, अत्यन्त- विडम्बनम् — विस्मयकारी ।

हिन्दी अनुवाद —

  हे विश्वात्मा! यह सचमुच ही आश्चर्यजनक विडम्बना है कि आप निष्क्रिय रहते हुए भी कर्म करते हैं और प्राणशक्ति रूप तथा अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं। आप स्वयं पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा जलचरों के मध्य अवतरित होते हैं। सचमुच ही यह विस्मयकारी बात है।

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद् 

या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम् । 

वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य 

सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति ॥३१॥

हिन्दी शब्दार्थ —

गोपी-ग्वालिन (यशोदा) ने; आददे - लिया; त्वयि - आप पर; कृतागसि - शरारत करने पर (मक्खन की मटकी फोड़ने पर ); दाम - रस्सी; तावत्-उस समय; या- जो; ते-आपकी; दशा- स्थिति; अश्रु-कलिल-अश्रुपूरित; अञ्जन-काजल; सम्भ्रम- विचलित; अक्षम्— नेत्र; वक्त्रम् - चेहरा, मुख; निनीय-नीचे की ओर; भय-भावनया - भय की भावना से; स्थितस्य — स्थिति का, सा—वह, माम्— मुझको, विमोहयति — मोहग्रस्त करती है; भीः- अपि — साक्षात् भय भी; यत्—जिससे; बिभेति- भयभीत है।

हिन्दी अनुवाद —

  हे कृष्ण ! जब आपने कोई शरारत की थी, तब यशोदा ने जैसे ही आपको बाँधने हेतु रस्सी उठाई, तो आपकी व्याकुल आँखें अश्रुओं से डबडबा आईं, जिससे आपकी आँखों का काजल धुल गया। यद्यपि आपसे साक्षात् काल भी भयभीत रहता है, फिर भी आप भयभीत हुए। यह दृश्य मुझे मोहग्रस्त करने वाला है।

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये ।

यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम् ॥३२॥ 

हिन्दी शब्दार्थ —

केचित्— कोई; आहुः- कहता है; अजम्— अजन्मा; जातम् — उत्पन्न; पुण्य- श्लोकस्य – महान् पुण्यात्मा राजा की; कीर्तये - कीर्ति-विस्तार करने हेतुः यदोः - राजा यदु का; प्रियस्य- प्रिय; अन्ववाये - कुल में; मलयस्य- मलय पर्वत का इव- सदृश; चन्दनम्- चन्दन ।

हिन्दी अनुवाद —

 कुछ कहते हैं कि अजन्मा का जन्म पुण्यात्मा राजाओं की कीर्ति का विस्तार करने हेतु हुआ है और कुछ कहते हैं कि उन्होंने आपके सबसे प्रिय भक्तों में से एक राजा यदु को प्रसन्न करने हेतु जन्म लिया। आप उनके कुल में उसी प्रकार प्रकट हुए हैं, जिस प्रकार मलय पर्वत में चन्दन होता है।

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात् ।

अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम् ॥३३॥ 

हिन्दी शब्दार्थ —

अपरे — अन्य मनुष्य; वसुदेवस्य— वसुदेव का; देवक्याम्— देवकी का; याचित:- प्रार्थना किये जाने पर, अभ्यगात्— जन्म लिया; अज:- अजन्मा; त्वम् — आपः -तथा सुर—सज्जन, अस्य—इसके; क्षेमाय—कल्याण के लिए; वधाय- वध करने हेतु; द्विषाम्-देवताओं से ईर्ष्या करने वालों का।

हिन्दी अनुवाद —

  अन्य लोग कहते हैं कि चूँकि वसुदेव तथा देवकी दोनों ने आपके लिए प्रार्थना की थी, अतएव आप उनके पुत्र रूप में जन्मे हैं। निःसंदेह, आप अजन्मा हैं, फिर भी आप देवताओं का कल्याण करने तथा उनसे ईर्ष्या करने वाले असुरों को मारने हेतु जन्म लेते हैं।

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ । 

सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥३४॥

हिन्दी शब्दार्थ —

भार- अवतारणाय - संसार का भार कम करने हेतु, अन्ये—अन्य मनुष्य; भुवः- संसार का; नाव:-नाव; इव-सदृश; उदधौ – समुद्र में; सीदन्त्याः–आर्त, दुःखी; भूरि- अत्यधिक; भारेण—भार से; जात:-आपने जन्म लिया; हि-निश्चय ही; आत्म-भुवा-ब्रह्मा द्वारा; अर्थितः - प्रार्थना किये जाने पर।

हिन्दी अनुवाद —

  दूसरे कहते हैं कि जब यह संसार भार से बोझिल समुद्री नाव की तरह अत्यधिक पीड़ित हो उठा तथा आपके पुत्र ब्रह्मा ने प्रार्थना की, तो आप कष्ट का शमन करने हेतु अवतरित हुए हैं।

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः । 

श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन ॥३५॥

हिन्दी शब्दार्थ —

भवे- भौतिक संसार में; अस्मिन्—इस; क्लिश्यमानानाम्-कष्ट भोगने वालों का; अविद्या - अज्ञान; काम - इच्छा; कर्मभिः - सकाम कर्म करने के कारण; श्रवण- सुनने; स्मरण - स्मरण करने; अर्हाणि - पूजन; करिष्यन्— कर सकता है; इति-इस प्रकार केचन - अन्य लोग।

हिन्दी अनुवाद —

  तथा कुछ कहते हैं कि आप श्रवण, स्मरण, पूजन आदि रूपी भक्ति को पुनः जागृत करने हेतु प्रकट हुए हैं, जिससे भौतिक कष्टों को भोगने वाले बद्धजीव इसका लाभ उठाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः

स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।

त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं

भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥३६॥ 

हिन्दी शब्दार्थ —

शृण्वन्ति–सुनते हैं; गायन्ति-कीर्तन करते हैं; गृणन्ति-ग्रहण करते हैं; अभीक्ष्णशः–निरन्तर; स्मरन्ति – स्मरण करते हैं; नन्दन्ति–हर्षित होते हैं; तव—आपके; ईहितम्–कार्यकलापों को; जनाः – लोग; ते—वे; एव–निश्चय ही; पश्यन्ति–देख सकते हैं; अचिरेण - शीघ्र ही; तावकम् — आपका; भव-प्रवाह— पुनर्जन्म की धारा; उपरमम्—बन्द होना, रोकना, पद- अम्बुजम् — चरणकमल ।

हिन्दी अनुवाद —

  हे श्रीकृष्ण ! जो आपकी दिव्य लीलाओं का निरन्तर श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करते हैं या दूसरों को ऐसा करते देखकर हर्षित होते हैं, वे निश्चय ही आपके उन चरणकमलों का दर्शन करते हैं, जो जन्म-मृत्यु के पुनरागमन को रोकने का एकमात्र साधन है।

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो

जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः । 

येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजात्

परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥३७॥

हिन्दी शब्दार्थ —

अपि-यदि; अद्य—आज; नः—– हमको; त्वम् – आप; स्व-कृत — स्वयं सम्पन्न; ईहित—–समस्त कर्म; प्रभो —हे मेरे प्रभु; जिहाससि– त्यागकर; स्वित्—सम्भवतः; सुहृदः—घनिष्ठ मित्र; अनुजीविनः - दया पर निर्भर; येषाम्—जिनका; —न तो; च–तथा; अन्यत्—कोई अन्य; भवतः - आपके पद-अम्बुजात्— चरणकमलों से; परायणम् - आश्रित; राजसु — राजाओं के प्रति; योजित — लगे हुए; अंहसाम् — शत्रुता ।

हिन्दी अनुवाद —

  हे मेरे प्रभु! आपने समस्त कर्तव्य स्वयं पूरे कर दिये हैं। आज जब हम आपकी कृपा पर पूर्णरूपेण आश्रित हैं और जब हमारा और कोई रक्षक नहीं है और जब समस्त राजा हमसे शत्रुता किये हुए हैं, तो क्या आप हमें छोड़कर चले जाएंगे ?

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः । 

भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितुः ॥३८॥

हिन्दी शब्दार्थ—

के– कौन हैं; वयम् — हम; नाम-रूपाभ्याम् — ख्याति तथा सामर्थ्य से रहित; यदुभिः- यदुओं के; सह–साथ; पाण्डवा:- तथा पाण्डव; भवतः - आपकी; अदर्शनम् —अनुपस्थिति; यर्हि—मानो; हृषीकाणाम् – इन्द्रियों का; इव – सदृश; ईशितुः- जीव का।

हिन्दी अनुवाद —

  जिस प्रकार आत्मा के अदृश्य होते ही शरीर का नाम तथा यश समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार यदि आप हमारे ऊपर कृपादृष्टि नहीं करेंगे, तो पाण्डवों तथा यदुओं सहित हमारा यश तथा हमारी गतिविधियाँ तुरन्त ही नष्ट हो जाएंगी।

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर । 

त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥३९॥

हिन्दी शब्दार्थ —

—नहीं; इयम्—हमारे राज्य की यह भूमि; शोभिष्यते— सुन्दर लगेगी; तत्र-तव — यथा-जैसी अब है; इदानीम् — कैसे; गदाधर – हे श्रीकृष्ण; त्वत्-आपके; पदैः- चरणों द्वारा; अङ्किता— अंकित; भाति — शोभायमान हो रही है; स्व-लक्षण-आपके चिह्नों से; विलक्षितैः- चिह्नों से ।

हिन्दी अनुवाद —

  हे गदाधर ! (श्रीकृष्ण), इस समय हमारे राज्य में आपके चरणचिह्नों की छाप पड़ी हुई है, और इसके कारण यह सुन्दर लगता है, लेकिन आपके चले जाने पर यह ऐसा नहीं रह जाएगा।

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्कौषधिवीरुधः । 

वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥४०॥

हिन्दी शब्दार्थ —

इमे—ये सब; जन-पदाः— नगर तथा शहर; स्वृद्धाः – समृद्ध; सुपक्व—पूर्ण रूप से शक्व; औषधि—जड़ी-बूटी; वीरुधः - वनस्पतियाँ; वन–जंगल; अद्रि—पहाड़ियाँ नदी–नदियाँ; उदन्वन्तः—समुद्र, हि— निश्चय ही; एधन्ते – वृद्धि करते हुए; तव —आपके; वीक्षितैः- देखने से।

हिन्दी अनुवाद —

  ये सभी नगर तथा ग्राम सब प्रकार से समृद्ध हो रहे हैं; क्योंकि जड़ी- बूटियों तथा अन्नों की प्रचुरता है, वृक्ष फलों से लदे हैं, नदियाँ बह रही हैं, पर्वत खनिजों से तथा समुद्र सम्पदा से भरे पड़े हैं। और यह सब उनपर आपकी कृपादृष्टि पड़ने से ही हुआ है।

अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे । 

स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥४१।।

हिन्दी शब्दार्थ —

अथ—अत:; विश्व-ईश—हे ब्रह्माण्ड के स्वामी; विश्व-आत्मन्—हे ब्रह्माण्ड के आत्मा; विश्व-मूर्ते — हे विश्वरूप; स्वकेषु — मेरे स्वजनों में; मे—मेरे; स्नेह-पाशम्-स्नेह के बन्धन को; इमम्—इस; छिन्धि – काट डालो; दृढम् — गहरे; पाण्डुषु— पाण्डवों के लिए; वृष्णिषु-वृष्णियों के लिए भी ।

हिन्दी अनुवाद —

  अतः हे ब्रह्माण्ड के स्वामी, हे ब्रह्माण्ड के आत्मा, हे विश्वरूप! कृपा करके मेरे स्वजनों, पाण्डवों तथा वृष्णियों के प्रति मेरे स्नेह के बन्धन को काट डालें।

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।

रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥४२॥

हिन्दी शब्दार्थ —

त्वयि – आपमें; मे—मेरा; अनन्य-विषया-अनन्य विषय; मतिः- ध्यान; मधु-पते — हे मधु के स्वामी; असकृत्— निरन्तर; रतिम्-आकर्षण; उद्वहतात्-आप्लावित हो; अद्धा—प्रत्यक्ष रीति से; गङ्गा-गंगा नदी; इव-सदृश; ओघम् — बहती है; उदन्वति- समुद्र को । 

हिन्दी अनुवाद —

  हे मधुपति! जिस प्रकार गंगा नदी बिना किसी व्यवधान के सदैव समुद्र की ओर बहती है, उसी प्रकार मेरा आकर्षण अन्य किसी ओर न बँटकर आपकी ओर निरन्तर बना रहे।

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग् 

राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य । 

गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार 

योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥४३॥

हिन्दी शब्दार्थ —

श्री-कृष्ण—हे कृष्ण; कृष्ण-सख- हे अर्जुन के मित्र; वृष्णि– वृष्णिकुल के वंशज; ऋषभ - हे प्रमुख; अवनि - पृथ्वी; ध्रुक् — विद्रोही; राजन्य-वंश- राजाओं का वंश; दहन - हे विनाशकर्ता; अनपवर्ग-कमी के बिना वीर्य-पराक्रम; गोविन्द - हे गोलोक के स्वामी; गो—गायों के; द्विज- ब्राह्मणों के; सुर-देवताओं के; आर्ति-हर- दुःख दूर करने हेतु; अवतार- हे अवतार लेने वाले; योग-ईश्वर- हे सभी योगशक्तियों के स्वामी; अखिल - सम्पूर्ण जगत् के; गुरो—हे गुरु; भगवन्—हे समस्त ऐश्वयों के स्वामी नमस्ते—आपको सादर नमस्कार है।

हिन्दी अनुवाद —

  हे कृष्ण, हे अर्जुन के सखा, हे वृष्णिकुल के प्रमुख ! आप उन समस्त राजनीतिक दलों के विध्वंसक हैं, जो इस धरा पर उपद्रव फैलाने वाले हैं। आपका शौर्य कभी क्षीण नहीं होता। आप दिव्य धाम के स्वामी हैं और आप गायों, ब्राह्मणों तथा भक्तों के कष्टों को दूर करने हेतु अवतरित होते हैं। आप समस्त योगशक्तियों के स्वामी हैं और आप समस्त ब्रह्माण्ड के गुरु हैं। आप सर्वशक्तिमान श्रीभगवान् हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करती हूँ ।


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भागवत दर्शन: कुन्ती स्तुति भागवत (1.8.18-43) हिन्दी अनुवाद सहित
कुन्ती स्तुति भागवत (1.8.18-43) हिन्दी अनुवाद सहित
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