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गर्भ स्तुति, भागवत (10.02.26-41), हिन्दी अनुवाद सहित।

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Garbh stuti, गर्भ स्तुति, सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं, तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् , शृण्वन् गृणन् संस्मरयंश् च चिन्तयन्, दिष्ट्याम्ब ते कुक्षि- गतः,

    कंस ने वसुदेव तथा देवकी को कारागार में डाल रखा था। उनके छः पुरी की वह हत्या भी कर चुका था। देवकी के सातवें गर्भ में शेषजी, जिन्हें अनन्त भी कहते हैं, पधारे। विश्वात्मा भगवान् ने योगमाया को आदेश दिया कि मेरे अंश 'शेष' को देवकी के गर्भ से निकाल कर वसुदेव जी की पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दें। रोहिणी कंस के भय से गोकुल में नन्द बाबा के घर में निवास कर रहीं थीं। योगमाया ने वैसा ही किया। लोग समझे कि देवकी का गर्भपात हो गया। भगवान् श्रीहरि वसुदेव जी के मन में प्रकट हुए और उन्हें देवकी ने अपने गर्भ में धारण कर लिया। देवकी सर्वात्मा भगवान् का निवास- स्थान बन गईं। भगवान् शङ्कर, ब्रह्मा एवं समस्त देवगण तथा नारदादि ऋषि कंस के कारागार में पहुँचे और उन्होंने गर्भस्थ भगवान् श्री हरि की स्तुति की।

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं

सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।

सत्यस्य सत्यमृत सत्य नेत्रं

सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥२६॥ 

     देवताओं ने प्रार्थना की, हे प्रभो, आप अपने व्रत से कभी भी विचलित नहीं होते जो सदा ही पूर्ण रहता है, क्योंकि आप जो भी निर्णय जाते हैं वह पूरी तरह सही होता है और किसी के द्वारा रोका नहीं जा सकता। सृष्टि, पालन तथा संहार-जगत् की इन तीन अवस्थाओं में वर्तमान रहने से आप परम सत्य हैं। कोई तब तक आपकी कृपा का भाजन नहीं बन सकता जब तक वह पूरी तरह आज्ञाकारी न हो। अतः इसे दिखावटी लोग प्राप्त नहीं कर सकते। आप सृष्टि के सारे अवयवों में असली सत्य हैं, इसलिए आप अन्तर्यामी कहलाते हैं। आप सब पर समभाव रखते हैं और आपके आदेश प्रत्येक काल में हर एक पर लागू होते हैं। आप आदि सत्य हैं। अत: हम नमस्कार करते हैं और आपकी शरण में आए हैं। आप हमारी रक्षा करें।

एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश् -

चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा ।

सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो 

दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥

   शरीर को अलंकारिक रूप में “आदि वृक्ष" कहा जा सकता है। यह गुणों-सतो, रजो तथा तमो गुणों के साथ इस वृक्ष के कारणस्वरूप से वृक्ष भौतिक प्रकृति की भूमि पर आश्रित होता है और उसमें दो प्रकार के -सुख भोग के तथा दुःख भोग के फल लगते हैं। इसकी तीन जड़ें तीन रूपी फलों के स्वाद चार प्रकार के होते हैं- धर्म, अर्थ, काम शारीरिक सुख मोह, जरा, मृत्यु, भूख तथा प्यास के माध्यम से अनुभव किये जाते हैं। इस तथा मोक्ष, जो पाँच ज्ञान इन्द्रियों द्वारा छः प्रकार की परिस्थितियों-शोक, वृक्ष की छाल में सात परतें होती हैं— त्वचा, रक्त, पशा, वसा, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य। इस वृक्ष की आठ शाखाएँ हैं जिनमें से पाँच स्थूल तत्त्व तथा तीन सूक्ष्म तत्त्व हैं— क्षिति, जल, पावक, समीर, गगन, मन, बुद्धि तथा अहंकार। शरीर रूपी वृक्ष में नौ छिद्र (कोठर) हैं— आँखें, कान, नथुने, मुँह, गुदा तथा जननेन्द्रिय। इसमें दस पत्तियाँ हैं, जो शरीर से निकलने वाली दस वायु हैं। इस शरीररूपी वृक्ष में दो पक्षी हैं— एक आत्मा तथा दूसरा परमात्मा ।

त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्-

त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च । 

त्वन् - मायया संवृत- चेतसस् त्वां

पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥२८॥

   हे प्रभु, आप ही कई रूपों में अभिव्यक्त इस भौतिक जगत् रूपी मूल वृक्ष के प्रभावशाली कारणस्वरूप हैं। आप ही इस जगत् के पालक भी हैं और संहार के बाद आप ही ऐसे हैं जिसमें सारी वस्तुएँ संरक्षण पाती है। जो लोग माया से आवृत हैं, वे इस जगत् के पीछे आपका दर्शन नहीं कर पाते क्योंकि उनकी दृष्टि विद्वान् भक्तों जैसी नहीं होती।

विभर्षि रूपाण्य् अवबोध आत्मा

क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।

सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि

सताम् अभद्राणि मुहुः खलानाम् ॥२९॥ 

   हे ईश्वर, आप सदैव ज्ञान से पूर्ण रहने वाले हैं और सारे जीवों का कल्याण करने के लिए आप विविध रूपों में अवतरित होते हैं, जो भौतिक सृष्टि के परे होते हैं। जब आप इन अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं, तो तथा धार्मिक भक्तों के लिए मोहक लगते हैं। किन्तु भक्तों आप पुण्यात्माओं के लिए आप संहारकर्ता हैं।

त्वय्य् अम्बुजाक्षाखिल-सत्त्व- धाम्नि

समाधिनाऽऽ वेशित- चेतसैके । 

त्वत्-पाद-पोतेन महत्-कृतेन

कुर्वन्ति गोवत्स - पदं भवाब्धिम् ॥३०॥ 

   हे कमलनयन प्रभु, सम्पूर्ण सृष्टि के आगार रूप आपके चरणकमलों मैं अपना ध्यान एकाग्र करके तथा उन्हीं चरणकमलों को संसार-सागर को पार करने वाली नाव मानकर मनुष्य महाजनों (महान् सन्तों, मुनियों तथा भक्तों) के चरणचिह्नों का अनुसरण करता है। इस सरल सी विधि से वह अज्ञान सागर को इतनी आसानी से पार कर लेता है मानो कोई बछड़े के खुर का चिह्न पार कर रहा हो।

स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्

भवार्णवं भीमम् अदभ्र - सौहृदाः ।

भवत्-पदाम्भोरुह-नावम् अत्र ते 

निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥३१॥

   हे द्युतिपूर्ण प्रभु, आप अपने भक्तों की इच्छा पूरी करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। इसलिए आप वांछा-कल्पतरु कहलाते हैं। जब आचार्यगण अज्ञान के भयावह भवसागर को तरने के लिए आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करते हैं, तो वे अपने पीछे अपनी वह विधि छोड़ जाते हैं जिससे वे पार करते हैं। चूँकि आप अपने अन्य भक्तों पर अत्यन्त कृपालु रहते हैं अतएव उनकी सहायता करने के लिए आप इस विधि को स्वीकार करते हैं।

येन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनस्

त्वय्य् अस्त भावाद् आविशुद्ध-बुद्धयः । 

आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः

पतन्त्य् अधोऽनादृत- युष्मद्-अङ्गयः ॥३२॥ 

    कोई कह सकता है कि भगवान् के चरणकमलों की शरण खोजने वाले भक्तों के अतिरिक्त भी ऐसे लोग हैं, जो भक्त नहीं हैं किन्तु जिन्होंने मुक्ति प्राप्त करने के लिए भिन्न विधियाँ अपना रखी हैं। तो उनका क्या होता है ? इसके उत्तर में ब्रह्माजी तथा अन्य देवता कहते हैं) हे कमलनयन भगवान्, भले ही कठिन तपस्याओं से परम पद प्राप्त करने वाले अभक्तगण अपने को मुक्त हुआ मान लें, किन्तु उनकी बुद्धि अशुद्ध रहती है। वे कल्पित श्रेष्ठता के अपने पद से नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि उनके मन में आपके चरणकमलों के प्रति कोई श्रद्धाभाव नहीं होता। 

तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् 

भ्रश्यन्ति मार्गात् त्वयि बद्ध - सौहृदाः । 

त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया 

विनायकानीकप - मूर्धसु प्रभो ॥३३॥

   हे माधव! पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर, हे लक्ष्मीपति भगवान्, यदि आपके प्रेमी भक्तगण कभी भक्तिमार्ग से च्युत होते हैं, तो वे अभक्तों की तरह नहीं गिरते क्योंकि आप तब भी उनकी रक्षा करते हैं। इस तरह वे निर्भय होकर अपने प्रतिद्वन्द्वियों के मस्तकों को झुका देते हैं और भक्ति में प्रगति करते रहते हैं।

सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान् स्थितौ 

शरीरिणां श्रेय - उपायनं वपुः । 

वेद- क्रिया-योग- तपः - समाधिभिस्

तवाहणं येन जनः समीहते ॥३४॥ 

   हे परमेश्वर, पालन करते समय आप त्रिगुणातीत दिव्य शरीर वाले अनेक अवतारों को प्रकट करते हैं। जब आप इस तरह प्रकट होते हैं, तो को वैदिक कर्म-यथा अनुष्ठान, योग, तपस्या, समाधि आपके चिंतन पूर्ण तल्लीनता में युक्त होने की शिक्षा देकर उन्हें सौभाग्य प्रदान करते है। इस तरह आपको पूजा वैदिक नियमों के अनुसार की जाती है।

सत्त्वं न चेद् धातर् इदं निजं भवेद् 

विज्ञानम् अज्ञान- भिदाऽपमार्जनम् । 

गुण- प्रकाशैर् अनुमीयते भवान् 

प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ॥३५॥

   हे कारणों के कारण ईश्वर, यदि आपका दिव्य शरीर गुणातीत न होता तो मनुष्य पदार्थ तथा अध्यात्म के अंतर को न समझ पाता। आपकी उपस्थिति से ही आपके दिव्य स्वभाव को जाना जा सकता है क्योंकि आप प्रकृति के नियन्ता हैं। आपके दिव्य स्वरूप की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना आपके दिव्य स्वभाव को समझना कठिन है।

न नाम-रूपे गुण-जन्म- - कर्मभिर् 

निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः । 

मनो-वचोभ्याम् अनुमेय- वर्त्मनो

देव क्रियायां प्रतियन्त्य् अथापि हि ॥३६॥

   हे परमेश्वर, आपके दिव्य नाम तथा स्वरूप का उन व्यक्तियों को पता नहीं लग पाता, जो केवल कल्पना के मार्ग पर चिन्तन करते हैं। आपके नाम, रूप तथा गुणों का केवल भक्ति द्वारा ही पता लगाया जा सकता है।

शृण्वन् गृणन् संस्मरयंश् च चिन्तयन्

नामानि रूपाणि च मंगलानि ते। 

क्रियासु यस् त्वच्-चरणारविन्दयोर्

आविष्ट - चेता न भवाय कल्पते ॥३७॥ 

   विविध कार्यों में लगे रहने पर जिन भक्तों के मन आपके चरणकमलों में पूरी तरह लीन रहते हैं और जो निरन्तर आपके दिव्य नामों तथा रूप का श्रवण, कीर्तन, चिन्तन करते हैं तथा अन्यों को स्मरण कराते हैं, वे सदैव दिव्य पद पर स्थित रहते हैं और इस प्रकार से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को समझ सकते हैं।

भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः

दिष्ट्याङ्कितां त्वत् - पदकैः सुशोभनैर्।

 दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो

द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ॥३८॥

   हे प्रभु, हम भाग्यशाली हैं कि आपके प्राकट्य से इस धरा पर असुरों के कारण जो भारी बोझ है, वह शीघ्र ही दूर हो जाता है। निस्सन्देह हम अत्यन्त भाग्यशाली हैं क्योंकि हम इस धरा में तथा स्वर्गलोक में भी आपके चरणकमलों को अलंकृत करने वाले शंख, चक्र, पद्म तथा गदा के चिह्नों को देख सकेंगे।

न तेऽ भवस्येश भवस्य कारणं

विना विनोदं बत तर्कयामहे । 

भवो निरोधः स्थितिर् अप्यविद्यया 

कृता यतस् त्वय्य् अभयाश्रयात्मनि ॥३९॥

   हे परमेश्वर, आप कोई सामान्य जीव नहीं जो सकाम कर्मों के अधीन इस भौतिक जगत् में उत्पन्न होता है। अतः इस जगत् में आपका प्राकट्य या जन्म एकमात्र ह्लादिनी शक्ति के कारण होता है। इसी तरह आपके अंश रूप सारे जीवों के कष्टों-यथा जन्म, मृत्यु तथा जरा का कोई दूसरा कारण नहीं सिवाय इसके कि ये सभी आपकी बहिरंगा शक्ति द्वारा संचालित होते हैं।

मत्स्याश्व- कच्छप-नृसिंह- वराह- हंस-

राजन्य-विप्र-विबुधेषु कृतावतारः । 

त्वं पासि नस् त्रि-भुवनं च यथाधुनेश

भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥४०॥

   हे परम नियन्ता, आप इसके पूर्व अपनी कृपा से सारे विश्व की रक्षा करने के लिए मत्स्य, अश्व, कच्छप, नृसिंहदेव, वराह, हंस, भगवान् रामचन्द्र, परशुराम के तथा देवताओं में से वामन के रूप में अवतरित हुए हैं। आप इस संसार के उत्पातों को कम करके अपनी कृपा से पुनः हमारी रक्षा करे। हे यदुश्रेष्ठ कृष्ण, हम आपको सादर नमस्कार करते हैं। 

दिष्ट्याम्ब ते कुक्षि- गतः परः पुमान्

अंशेन साक्षाद् भगवान् भवाय नः । 

मा भूद् भयं भोज-पतेर् मुमूर्षोर्

गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः ॥४१॥ 

    हे माता देवकी, आपके तथा हमारे सौभाग्य से भगवान् अपने सभी स्वांशों यथा बलदेव समेत अब आपके गर्भ में हैं। अतएव आपको उस कंस से भयभीत नहीं होना है, जिसने भगवान् के हाथों से मारे जाने की ठान ली है। आपका शाश्वत पुत्र कृष्ण सारे यदुवंश का रक्षक होगा।

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भागवत दर्शन: गर्भ स्तुति, भागवत (10.02.26-41), हिन्दी अनुवाद सहित।
गर्भ स्तुति, भागवत (10.02.26-41), हिन्दी अनुवाद सहित।
Garbh stuti, गर्भ स्तुति, सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं, तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् , शृण्वन् गृणन् संस्मरयंश् च चिन्तयन्, दिष्ट्याम्ब ते कुक्षि- गतः,
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