पूर्वकाल की बात है, गौतमी के उत्तर-तटपर आत्रेय नामके ऋषि निवास करते थे। उन्होंने अनेक ऋत्विज मुनियों के साथ सत्र आरम्भ किया। उसमें हव्यवाहन अग्नि ही होता थे। सत्र पूरा होनेपर महर्षिने माहेश्वरी इष्टिका अनुष्ठान किया। इससे अणिमा आदि आठ प्रकारके ऐश्वर्य तथा सर्वत्र आने-जाने की शक्ति उन्हें प्राप्त हो गयी।
एक समय वे इन्द्रलोकमें गये। वहाँ उन्होंने देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रको देखा, जो अप्सराओं का उत्तम नृत्य देख रहे थे। सिद्ध और साध्यगण उनकी स्तुति कर रहे थे। वे यह सब देखकर पुनः अपने आश्रम पर लौट आये और अपनी प्रियासे कहा-'देवि! अब मैं उत्तम-से- उत्तम फल-मूल भी, चाहे वे कितने ही अच्छे ढंगसे क्यों न बने हों, नहीं खा सकता। मुझे तो स्वर्गलोक के अमृत, परम पवित्र भक्ष्य-भोजन, श्रेष्ठ आसन, स्तुति, दान, सुन्दर सभा, अस्त्र-शस्त्र, मनोहर वस्त्र, अमरावतीपुरी और नन्दनवन की याद आती है।' यों कहकर महात्मा आत्रेय ने तपस्याके प्रभावसे विश्वकर्मा को बुलाया और इस प्रकार कहा—'महात्मन्! मैं इन्द्रका पद चाहता हूँ। आप शीघ्र ही यहाँ इन्द्रपुरी का निर्माण कीजिये। इसके विपरीत यदि आपने कोई बात मुँहसे निकाली तो मैं निश्चय ही आपको भस्म कर डालूँगा।'
आत्रेय के यों कहनेपर प्रजापति विश्वकर्मा ने तत्काल ही वहाँ मेरुपर्वत, देवपुरी, कल्पवृक्ष, कल्पलता, कामधेनु, वज्र आदि मणियों से विभूषित, सुन्दर तथा अत्यन्त चित्रकारी किये हुए गृह बनाये। इतना ही नहीं, उन्होंने सर्वाङ्गसुन्दरी शची की भी आकृति बनायी। क्षणभर में सुधर्मा सभा, मनोहारिणी अप्सराएँ, उच्चैःश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, वज्र आदि अस्त्र और सम्पूर्ण देवताओं का निर्माण हो गया। अपनी पत्नी के मना करनेपर भी आत्रेयने शची के समान रूप वाली उस स्त्री को अपनी भार्या बना लिया। वज्र आदि अस्त्रों को भी धारण किया। नृत्य और संगीत आदि सब कुछ वहाँ उसी तरह से होने लगा, जिस प्रकार वह इन्द्रपुरी में देखा गया था।
स्वर्गलोक का सम्पूर्ण सुख पाकर मुनिवर आत्रेय का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। उधर दैत्यों और दानवों ने जब स्वर्ग का वैभव पृथ्वी पर उतरा हुआ सुना, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वे परस्पर कहने लगे- 'क्या कारण है कि - इन्द्र स्वर्गलोक को छोड़कर पृथ्वी पर सुख भोगने के लिये आया है ? हमलोग अभी वृत्रासुर का वध कर नेवाले उस इन्द्र से युद्ध करनेके लिये चलें। ऐसा निश्चय करके असुरोंने वहाँ आकर महर्षि आत्रेयके द्वारा निर्मित इन्द्रपुरीको भी घेर लिया। इससे भयभीत होकर आत्रेयने कहा- 'मैं इन्द्र नहीं हूँ। मेरी यह भार्या भी शची नहीं है। न तो यह इन्द्रपुरी है और न यहाँ इन्द्र का नन्दनवन है। इन्द्र तो स्वर्ग में ही हैं। मैं तो वेदवेत्ता ब्राह्मण हूँ और ब्राह्मणों के साथ ही गौतमी के तटपर निवास करता हूँ। दुर्दैवकी प्रेरणा से मैंने यह कर्म कर डाला, जो न तो वर्तमान काल में सुख देनेवाला है और न भविष्य में ही ।' असुर बोले- मुनिश्रेष्ठ आत्रेय ! यह इन्द्र का अनुकरण छोड़कर यहाँ का सारा वैभव समेट लो, तभी तुम कुशलसे रह सकते हो; अन्यथा नहीं।
तब आत्रेय ने कहा-'मैं अग्नि की शपथ खाकर सच-सच कहता हूँ- आपलोग जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा।' दैत्यों से यों कहकर वे पुनः विश्वकर्मा से बोले- 'प्रजापते! आपने मेरी प्रसन्नता के लिये जो इन्द्रपद का निर्माण किया था, इसका फिर उपसंहार कर लीजिये और ऐसा करके मुझ ब्राह्मण मुनि की शीघ्र रक्षा कीजिये। मुझे फिर अपना वही आश्रम लौटा दीजिये, जहाँ मृग, पक्षी, वृक्ष और जल हैं। मुझे इन दिव्य भोगों की कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे इस बातका बोध हो गया है कि शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन करके प्राप्त की हुई कोई भी वस्तु सुखद नहीं होती।'
'बहुत अच्छा' कहकर प्रजापति ने उस इन्द्रपुरीके वैभवको समेट लिया। आत्रेय भी गौतमी-तटपर रहते हुए पुनः तपस्यामें संलग्न हो गये। (ब्रह्मपुराण)
thanks for a lovly feedback