रघुपति कीन्ही बहुत बडाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

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Ram and hanuman at ramsetu    हनुमानजी की प्रशंसा करते हुए भगवान कहते हैं कि ‘तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो’ यानी ‘तुम मेरे हो यह भगवा...

Ramsetu
Ram and hanuman at ramsetu


   हनुमानजी की प्रशंसा करते हुए भगवान कहते हैं कि ‘तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो’ यानी ‘तुम मेरे हो यह भगवान अपने मुख से भक्त के लिये कहना यह भक्ति का अन्तिम फल है ।

भगवान ! ‘मैं तेरा हूँ’ यह भक्ति है और ‘मै तेरे लिये हूँ’ यह साधना है ।

 भगवान ‘मै तेरे लिए हूँ यह साधना जितनी तीव्र होती है’, उतनी मैं तुम्हारा हूँ यह वृत्ति बढती जाती है ।

 ‘मैं तुम्हारा हूँ’ केवल ऐसा बोलकर नहीं चलता अंदर वैसी वृत्ति तैयार होनी चाहिये । उसीके लिये साधना करनी पडती है । वह साधना यानी ‘मैं तुम्हारे लिये हूँ’ ऐसा निश्चय करना, यही भक्ति है । मैं भगवान के लिये हूँ तो मुझे भगवान का कोई काम करना चाहिये । जिस प्रकार हनुमानजी हैं,

 राम काज करिेबे को आतुर। 

ऐसा हनुमान चालीसा में हनुमानजी के बारे में उल्लेख है । हनुमानजी भगवान का कार्य करने को हमेशा आतुर रहते हैं ।

लेकिन आज हम अर्थात्  समाज में -

हरि डर, गुरु डर, जगत डर, डर करनी में सार।

रज्जब डर्या सो ऊबर्या, गाफिल खायी मार ॥ 

  मनुष्य जब पाप, अन्याय, अत्याचार आदि निषिद्ध आचरण करना चाहता है, तब (उनको करने की भावना मन में आते ही) भीतर से भय पैदा होता है। मनुष्य निषिद्ध आचरण तभी तक करता है, जब तक उसके मन में ‘मेरा शरीर बना रहे, मेरा मान-सम्मान होता रहे, मेरे को सांसारिक भोग-पदार्थ मिलते रहें।

कपट गाँठ मन में नहीं, सबसों सरल सुभाव।

नारायन ता भक्त की, लगी किनारे नाव ॥ 

 इसलिये साधक के शरीर, वाणी और मनके व्यवहारमें कोई बनावटीपन नहीं रहना चाहिये उसमें स्वाभाविक सीधापन हो।

 भक्ति क्या है? यह समझने के लिये सर्व प्रथम हमे भगवानपर बौद्धिक प्रेम खडा करना चाहिये । मनुष्य मन ही मन में विचार करता है कि मेरा शरीर किसने बनाया? शरीर कैसे चलता है? शरीर में रक्त संचार कैसे होता है? हृदय किस प्रकार चलता है? इतने वर्षों से हृदय चल रहा है मगर कभी उसने एक सेकन्ड की भी छुट्टी नहीं ली । एक कारखाना चलाने के लिये कितने ही आदमीयों की जरुरत पडती है । तो मेरे शरीर में कितने ही यंत्र है, उन्हे कौन चलाता है? देखना क्या है? आँखे मुझे पत्ता नहीं । दृष्टिसंबंधी ज्ञानतन्तु (Optical nerves) कैसे बनाये है? उस क्षेत्र में कितना पतला (Superfine) खून जाता होगा? यह सारी यंत्रणा (Machinery) इस शरीर में कौन चलाता होगा? ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होने के बाद उसे लगता है कि मेरे शरीर से शुरुवात करके पूरा विश्व निर्माण करनेवाला और उसे चलानेवाला कोई होना चाहिये । उसके बारे में नि:संशयता पैदा होती है । उसके बाद भगवान के लिए बौद्धिक प्रेम (Intellectual love towards god) खडा होता है। इसे पक्की नींव की भक्ति कहते हैं ।

  इस विश्वके पीछे एकाध शक्ति है उसको हमे मानना चाहिए । भगवान निर्माता है यह बात निश्चित होने के बाद आदमी के मन में विचार आता है, कि मैं रोज सो जाता हूँ सोनेे के बाद मेरी सारी थकावट उतर जाती है यह बात सच है, मगर मुझे नींद कैसे आती है? नींद किसने पैदा की? नींद क्या है? आदमी आँखे बंद करके सो जाता है तब वह कहाँ जाता है? दूसरे में, जहाँ वह जाता है वहाँ से वह कैसे वापस आता है? कौन ले जाता है और कौन वापस लाता है? सचमुच नींद विषयक डॉक्टरों ने हल किया होगा या नही, किसे पता फिर भी हम सो जाते हैं नीद कैसे आती है हम यह नहीं जानते ।

 हम सब रोज सोते है  । आज के तत्ववेत्ताओंसे पूछो कि what is sleep तो वे कहते हैं, 

"The projection of the unconscious on the superficial mind that is sleep."

  मगर इसका अर्थ क्या है ? यह बात तो हम जैसे लोगों के दिमाग के ऊपर से चली जाती है यह सब सुनकर आदमी सोने लगता है।

 अपने शरीर से शुरु करके विश्व निर्माता तक आदमी जब विचार करता है, तब उसके पीछे खडी दुर्दम्य शक्ति के बारे में उसे शंका नहीं रहती । मेरा शरीर चालानेवाली, सारे विश्व को चलानेवाली जो कोई भी दुर्दम्य शक्ति होगी उसे मुझे मानना पडेगा । ऐसा पहला निर्णय आदमी की बुद्धि में होता है । यह भक्ति की शुरुवात है । फिर उसे लगता कि केवल इस शक्ति को मानकर नहीं चलता मुझे उसकी पसंद का बनना चाहिए । मैं उसकी पसंद का क्यों नही हो सकता हूँ ? मैं उसकी पसंद का बनूँगा । यह दूसरा निर्णय होता है उसके बाद मुझे उसका बनना चाहिए, यह तीसरा निर्णय होता है । भगवान हैं और वे समर्थ हैं । वे ‘कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ:’ हैं। 

  यह विचार दृढ होने के बाद भक्ति शुरु होती है । आलसी व्यक्ति थोडे ही भक्ति करते हैं । बहुत सारी बातों के लिए किसी का हाथ पकडना चाहिए । यदि किसी का हाथ पकडना ही हो तो समर्थ का ही हाथ पकडना चाहिए । ‘भगवान समर्थ हैं’ इस बात के लिए बुद्धि नि:संशय होनी चाहिए ।

  जब तक भगवान के उपर बौद्धिक प्रेम नहीं बैठता तब तक तुम भक्ति नहीं कर सकते, ऐसी शंका रहती है । उसके बिना आदमी डोलायमान स्थिति में रहता है ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। 

मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ 

  इस भौतिक संसार में सन्निहित आत्माएं मेरे शाश्वत अंश हैं। लेकिन भौतिक प्रकृति से बंधे हुए, वे मन सहित छह इंद्रियों से संघर्ष कर रहे हैं।

 ‘भगवान हैं ही और वे समर्थ हैं,’ ऐसी समझ पक्की होने के लिए सत्संगति चाहिए । सिर्फ दो भजन गाने से ही सत्संगति नहीं होती है सत्शब्द का बहुत बडा अर्थ है । सत् शब्द का अर्थ प्रभावी तथा प्रकाशमान है सत् अलग बात है, सत् कौन है? जो भगवान के भरोसे चलता है । जिसे के सामर्थ्य पर विश्वास है। उसके अनुसार जो जीता है, वह सत्पुरुष कहलाता है । उसके साथ सम्ब्न्ध रखने को सत्संगति कहते हैं । उसके विचारों का संग अपेक्षित है , सत्संग से भक्ति की भावना दृढ होती है ।

  भगवान परम करुणा सागर हैं यह समझ दृढ होने पर भाव उत्पन्न होता है, कृति के पीछे भाव होना चाहिए । अध्यात्म का विचार करते समय भाव, भक्ति तथा मुक्ति इन तीनों बातो का विचार करना चाहिए।

अभयं सत्त्वसंशुद्धिः ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥ 

 भाव क्या है ? 

 यह एक बडा प्रश्न है । मेरा फलाने पर भाव है, इसका अर्थ क्या है?क्या भाव पदार्थ है? मेरा भाव है अर्थात् लगाव है, मगर लगाव का अर्थ क्या है?

 लगाव तो काफी कारणों से होता है । काम के कारण लगाव होता है उसी तरह स्वार्थ के कारण भी लगाव होता है । तो फिर भाव का क्या अर्थ होता है?

  ‘भव’ से भाव शब्द की उत्पत्ति हुई है । ‘भव’ का अर्थ है होना । हमारा कुछ न कुछ ‘होना’ चलता ही रहता है । उसी को भव रोग कहते हैं। मैं अनपढ हूँ मगर मुझे विद्वान होना है, मैं गरीब हूँ मगर मुझे धनी होना है, र्मै दुर्गुणी हूँ मगर मुझे सद्गुणी होना है इस ‘होना’ को ही भव कहते है । आयुष्यमान् भव ! कीर्तिमान भव ! पुत्रवान भव ! वित्तवान भव ! ये सब ‘भव’ हैं भव यानी होना, इसी को अग्रेंजी में becoming and crave for becoming something कहते हैं ।

  यह भव चलता रहता है । मैं ‘हुआ’ मगर दूसरे के कारण हुआ, उसके लिए निर्माण होनेवाली जो वृत्ति है उसे भाव कहते है, मैं पैसे वाला तो हूँ मगर किसके कारण? मेरे पिताजी ने मेहनत करके धन कमाकर रखा उसी के कारण मैं पैसे वाला हुआ । इस वृत्ति को भाव कहते है । मेरे पास विद्या है परन्तु वह मुझे गुरु से मिली है । इस समझ को भाव कहते है । इसके कारण मन मे एक वृत्ति निर्माण होती है । मैं छोटे से बडा हुआ मगर किसके कारण हुआ ? माँ के कारण हुआ । बचपन में जब मैं बीमार पडता तब माँं कितने ही रात सोयी नहीं । बिना खाये पीये वह जागती रही । उसीके कारण मैं बडा हुआ । इसीलिए माँ-बाप और आचार्य के लिए भाव उत्पन्न होता है।

  आज मेरी जो स्थिति है वह इन्ही के कारण है । उनके प्रति मेरे अन्त:करण में जो वृत्ति निर्माण होती है उसे भाव कहते है । भाव यह एक रसायन है । भाव नाम की वस्तु बाजार में नहीं मिलती भाव एक संयोजन है । दो-चार बातों के निश्रण से भाव उत्पन्न होता है । एक, मेरे लिये किसीने कुछ किया है अत: कृतज्ञता खडी होती है । उसमें वात्सल्य की अनुभूति आती है । उसी तरह अन्त:करण में विश्वास निर्माण होता है । ये सब बाते मन में एकत्र होती है तब एक मानसिक रसायन उत्पन्न होता है उसी का नाम भाव है।

  कृतज्ञता, आत्मीयता की अनुभूति और वात्सल्य का अनुभव तथा विश्वास इन चार बातों के मिश्रण से जो रसायन बनता है उसका नाम है भाव है । तभी वह सच्चा भाव कहलाता है । 

भगवान हैं तो भगवान और मेरा सम्बन्ध क्या है?

 यह सर्वप्रथम निश्चित होना चाहिए, सम्बन्ध निश्चित होने पर भक्ति शुरु होती है । जो सम्बन्ध निश्चित होता है उसीके अनुरुप हमें ढलना चाहिए। भगवान ने गीता में कहा है :

 ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

 यहाँ भगवान कहते हैं कि तुम जैसे कपडे पहनोगे, उनके अनुकूल वैसे ही कपडे मैं भी पहनूँगा । भक्ति में भगवान कैसे हैं उसे सुनना है और हमें कैसे बनना है उसका विचार करना है। यदि ये दो बातें न होती होगी तो भक्ति नहीं होती ।

 भगवान मेरे मालिक हैं । भगवान मालिक, दाता, शासक, पालक, पिता, मित्र और स्वामी भी हो सकते हैं ।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।

अर्थात् भगवान हमारे सबकुछ है।

 त्वमेव माता च पिता त्वमेव

त्वमेव सर्वम् मम देव देव ॥

 अर्थात् भगवान ही हमारे सब कुछ है। सम्बन्ध का अर्थ, भगवान या संसार कौन हमारा सम्बन्धी है ?

 गीता मे अर्जुन ने तीन स्थितियाँ बताई है -

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:

 प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम् । 

  जीवन विकास के लिये भक्ति की आवश्यकता है । भक्ति जिज्ञासा से उत्पन्न होनी चाहिए । बुद्धि मे कृति का निश्चय होना चाहिए । हम भक्ति का अर्थ स्तुति करना समझते हैं । हम समझते हैं कि जो भगवान की ज्यादा प्रशंसा करता है वह भगवान को अच्छा लगता है मगर वास्तव में ऐसा नहीं होता है । भक्ति भगवान की प्रंशसा करने के लिये नहीं है बल्कि मानवी जीवन बदलने के लिए है ।

  भगवान,‘ मै तुम्हारा हूँ’ इस स्थिति पर पहुँचना हो तो उसके लिये साधना कौनसी है? ‘भगवान, मै तुम्हारे लिये हूँ’ यह साधना है । ‘मै तुम्हारे लिये हूँ’ इन दोनों बाताें में पूरा विश्व समा जाता है ।

भगवान गीता में कहते हैं -

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय॥ 

  यानी भगवान समय तुम्हारा, पैसे तुम्हारे, शरीर तुम्हारा, मन तुम्हारा, बुध्दि तुम्हारी, मेरा संसार भी तुम्हारा ही है । मेरा अहंकार तुम्हारा, मेरा सर्वस्व तुम्हारा, मेरे देह पर सत्ता भी तुम्हारी है यह भक्ति है । ऐसी भक्ति हनुमानजी की थी इसीलिए भगवान राम ने हनुमानजी की इस समर्पण भक्ति से प्रसन्न होकर कहा है -

तुम मम प्रिय भरत सम भाई। 

यह भक्ति का अंतिम फल है । भगवान के लिये हूँ तो मुझे भगवान को कोई काम करना चाहिए ।

 भगवान! मै चौबीसों घंटे और तीन सौ पैसंठ दिन तुम्हारे लिये हूँ यह श्रेष्ठ बात है । मगर उतना भी हमसे न हो तो वर्ष में तीस दिन भगवान के कार्य के लिये निश्चित करने चाहिए, उतना न हो तो पंद्रह दिन भगवान का काम करना है ऐसा निश्चित करना चाहिए । इतना भी न हो सके तो रोज के दो घण्टे भगवान के काम के लिए निश्चित करने चाहिए । ‘मै मेरा धन्धा या नौकरी करके भी रोज दो घन्टे भगवान का काम करुँगा ‘इसे साधना कहते हैं । भगवान उससे प्रसन्न भी होंगे ।

भगवान के लिये बौद्धिक प्रेम(Intellectual love towards god) खडा होना चाहिये उसके लिये बौद्धिक विकास अपेक्षित है । उसके लिये आवश्यकता के बिना काम करने की इच्छा निर्माण होनी चाहिए । निष्काम कर्म करने की शुरुवात करनी चाहिये । समग्र जीवनमें इसका अभ्यास करना चाहिए । भगवान को निेष्काम कर्म करने वाले भक्त अति प्रिय हैं । 

  भगवान ने गीता में बारहवे अध्याय में भक्त का जो वर्णन किया है उसमें उन्होने लिखा है -

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ 

 इस प्रकार धीरे-धीरे भक्ति मार्ग में आगे बढने पर अंतिम भक्त की इच्छा होती है कि भगवान अपने मुख से कहे ‘तू मेरा है’। 


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भागवत दर्शन: रघुपति कीन्ही बहुत बडाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
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