Importance Of Marriage In Indian Culture ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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Indian Marriage

 भारतवर्ष में विवाह मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर मनुष्यत्व से युक्त करने की एक विधा है। विवाह संस्कार की प्रक्रियाओं को अगर हम देखें तो पाएंगे कि वैदिक विवाह संस्कार जैसा वैज्ञानिक और व्यवहारिक विधान विश्व के किसी भी मजहब, समुदाय तथा देश की विवाह प्रथा में नहीं हैं। उदाहरण के लिए सप्तपदी और उसके सातों वचन हैं। इन सात वचनों में स्त्री-पुरुष केवल एक-दूसरे के प्रति अपने दायित्वों की बात नहीं करते हैं, बल्कि परिवार और समाज के प्रति दायित्वों के निर्वहन करने में एक-दूसरे का साथ देने-लेने का भी वचन देते हैं। वे संकल्प लेते हैं कि यज्ञ यानी कि लोककल्याण के कार्यों में मिल कर लगेंगे।

  विवाह की इन वैदिक प्रक्रियाओं से यह पता चलता है कि विवाह केवल स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के लिए नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक व्रत है। इसलिए भारतीय परंपरा में कभी भी तलाक जैसी कोई व्यवस्था नहीं पनप पाई। पति-पत्नी में अलगाव तो हुआ, परंतु वह अलगाव केवल शारीरिक था, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक स्तर पर वे विवाहित ही रहते थे। एक-दूसरे की प्रतीक्षा में ही रहते थे। यह वैवाहिक आदर्श की पराकाष्ठा कही जा सकती है। भारत के इतिहास में ऐसा उदाहरण ढूंढने से भी नहीं मिलेगा, जिसमें किसी ने विवाह-विच्छेद करके दूसरा विवाह कर लिया हो।

  गृहस्थ यानी परिवार के कर्तव्यों को यदि हम देखें तो पाएंगे कि उसमें पूरी सृष्टि का पालन करने का भाव छिपा होता है। विवाह और गृहस्थ जीवन केवल सुखोपभोग के लिए नहीं माना गया। इसके कई उद्देश्य भारतीय मनीषियों ने सुनिश्चित किए। पहला उद्देश्य है प्रजोत्पत्ति यानी संतान उत्पन्न करना। दूसरा उद्देश्य है गृहनिर्माण। गृहनिर्माण का अर्थ केवल अपने आवास का प्रवंध करना नहीं है। अतिथियों से लेकर पशु-पक्षियों तक के रहने की व्यवस्था करना ही इसका अभीष्ट है। इसलिए प्राचीन काल से ही धनवान गृहस्थों द्वारा अतिथिशालाएं, पांथागार, धर्मशालाएं, मंदिर आदि बनवाने का इतिहास मिलता है। तीसरा उद्देश्य है सृष्टि का पालन। इसके लिए वह पंचमहायज्ञ करता है। मनुस्मृति में कहा है – अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिभौंतो नृयज्ञोतिथिपूजनम्।। वेदादि शास्त्रों का अध्ययन ब्रह्म यज्ञ, तर्पण पितृ यज्ञ, हवन देव यज्ञ, पंचबलि भूत यज्ञ और अतिथियों का पूजन सत्कार अतिथि यज्ञ कहा जाता है।

  इस प्रकार पहला महायज्ञ है स्वाध्याय। दूसरा यज्ञ है माता-पिता आदि घर के समस्त बुजुर्गों की सेवा। तीसरा महायज्ञ है दैनिक अग्निहोत्र जो यह वातावरण की शुद्धि के लिए किया जाता है। चौथा महायज्ञ है बलिवैश्वदेव जो पशु-पक्षी, कीट-पतंगा आदि समस्त प्राणि सृष्टि की पालना के लिए किया जाता है। पांचवाँ और अंतिम महायज्ञ है नृयज्ञ जिसमें घर आए किसी भी अतिथि यानी परिचित-अपरिचित व्यक्ति को भोजनादि से सत्कार किया जाता है। इस प्रकार एक गृहस्थ को जड़-चेतन सारी सृष्टि की चिंता करनी होती है। इसके लिए वह विवाह का व्रत धारण करता है। इसके लिए वह प्रजा की अभिवृद्धि करता है। इसके लिए वह शतहस्त समाहर यानी सौ हाथों से कमाता है और सहस्रहस्त संकिर: के आदेश के अनुसार हजार हाथों से बाँट देता है।

  इन पाँच महायज्ञों में चार ऋणों को उतारा जाता है। भारतीय मनीषियों का मानना था कि मनुष्य अपने ऊपर चार ऋण लेकर पैदा होता है। ये चार ऋण हैं – देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण और मनुष्यऋण। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार - 

ऋणं ह वै जायते योह्यस्ति। 

स जायमान स एव देवेभ्यस्ऋषिभ्य: पितृभ्यो मनुष्येभ्य:। 

 सभी मनुष्य ऋण रूप से ही उत्पन्न होते हैं। वह देवों, ऋषियों, पितरों और मनुष्यों के ऋण से उत्पन्न होता है। यहाँ पर स्पष्ट रूप से चार ऋणों की चर्चा की गई है। इन चार ऋणों से मुक्ति ही वास्तविक मोक्ष है जिसकी चर्चा चार पुरुषार्थों में की गई है।

  शतपथ ने इसके बाद इन ऋणों से मुक्ति के लिए उपाय भी बताए हैं। वे उपाय यही पंचमहायज्ञ हैं। इन ऋणों से मुक्ति ही मनुष्य का ध्येय है और इसके लिए ही वह वेदों में वर्णित तीन पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम को ग्रहण करता है। इसके परिणामस्वरूप उसे मोक्ष यानी मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसलिए वेद स्पष्ट रूप से कहते हैं – कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजिविच्छेतसमा:। एवं त्वयि नान्यथेतोस्स्ति, न कर्मलिप्यते नरे।। यानी कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा रखो, यही एक मात्र मार्ग जिससे मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता।

विवाह के बारे में वेदों के उपदेश

(विशेष रूप से नवविवाहिता वधु के लिए) 


सोमो वधूयुरभवदश्विनास्तामुभा वरा ।

सूर्या यत् पत्ये शंसंन्ती मनसा सविताददात् ॥

(RV 10.85.9 same as AV14.1.9)

 वीर्यवान ब्रह्मचारी वधु की कामना करने वाला पत ि हुआ और वधु ब्रह्मचारी दोनो ओर के माता पिता ने वधु का चुनाव और वरण किया । जबकि वधु के माता पिता ने विचार करके मन से प्रसन्नता पूर्वक कन्या को प्रदान किया। 

मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीदुतच्छदि: । 

शुक्रावनड्वाहावास्तां यदयात् सूर्या गृहम् ॥ 

(RV 10.85.10 same as 14.1.10)

 इस ब्रह्मचारिणी का मन ही एक रथ समान है , जिस की छत वधु की विचार शक्ति है और उसके मनरूपी रथ का वाहन करने वाले दो बैल उसकी ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां बनतीहैं | 

ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावित: ।

  श्रोत्रं   ते   चक्रे   आस्तां  दिवि   पन्थाश्चराचर: ॥ 

(RV 10.85.11 same as AV 14.1.11)

 दोनो कानों से जो सुना जाए उस को वधु ऋग्वेद से ज्ञान और सामवेद से उपासना द्वारा प्रेरित सत्विक वृत्ति से शान्ति सम्पन्न हो कर अपने मन रूपीरथ के दो पहिए के समान गृहस्थ जीवन को चलाएं | 

शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहत: ।

अनो मनस्मयं सूर्यारोहत् प्रयती पतिम् ॥

(RV 10.85.12 same as AV14.1.12)

  पति के ग्रह जाती हुई कन्या के मन रुपी रथ को चलाने वाले दो पहियों प्राण और अपान वायु, समस्त शरीर में व्याप्त व्यान धुरे के समान जुड़े हैं | वे (शुची) पवित्र विचार देने वाले हों |  

सूर्याया वहतु: प्रागात् सविता यमवासृजत् ।

अघासु  हन्यन्ते    गावोऽर्जुन्यो:   पर्युहयते ॥

(RV 10.85.13) 

मघासु हन्यते गाव: फल्गनीषु व्युह्यते । 

(same as AV14.1.13)

  विवाह के लिए कन्या के घर से प्रस्ताव भेजने के लिए माघ मास( February) और विवाह के पश्चात् नववधु को विदा कर के पति के घर भेजने के लिए फाल्गुन मास ( March) –सब की सुविधा के अनुसार- श्रेष्ठ माने जाते हैं | (valentine day भी माघ मास February में आता है) । 

यम-यमी सूक्त में हिन्दू विवाह के अनुशासन की झलक 

भारतीय समाज में विवाह के अनुशासन की झलक ऋग्वेद के यम-यमी सूक्त में मिलती है । दम्पति में परस्पर सखा-भाव को प्रधानता है।

  विवाह को नियमों में बाँधे जाने का प्रथम कार्य दीर्घतमस ऋषि द्वारा किया गया था। इसका अगला संस्करण औद्दालकि द्वारा हुआ। हिन्दू विवाह अग्नि के साक्षित्व , सप्तपदी और ध्रुव-अरुन्धति दर्शन की प्रक्रिया से सम्पन्न होता है ।

सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् । 

अघासु   हन्यन्ते   गावोऽर्जुन्योः  पर्युह्यते ॥

(ऋ.१०.८५.१३)

 विवाह सम्बन्धी वैदिक मन्त्र में भी अघा>मघा और अर्जुनी>फाल्गुनी नक्षत्र का कथन है। मिथिलापति विदेह जनक सीरध्वज भी अयोध्यापति दशरथ से कहते हैं -

मघा   हि   अद्य   महाबाहो   तृतीये  दिवसे  प्रभो ।

फल्गुन्याम् उत्तरे राजन् तस्मिन् वैवाहिकम् कुरु ॥

(बालकाण्ड-७१-२४)

  हे (कानून के जैसे ) लम्बे हाथों वाले प्रभु ! आज मघा नक्षत्र है, तीसरे दिन (परसों) उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है , उसमें विवाह कार्य सम्पन्न करें।

यम, याम, यमी, जामि, अजामि और अजामिल का आशय

वेदमन्त्रों/ऋचाओं में प्रायः जामि तथा अजामि शब्द साथ-साथ प्रकट होते हैं। उदाहरणार्थ, ऋग्वेदसंहिता १०.१०.१०(यम-यमी सूक्त) एवं अथर्ववेदशौनकशाखासंहिता १८.१.११(पितृमेध सूक्त) -

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृणवन्नजामि ॥

  (ऋचा के आरम्भ में आये तीन पद आ घा॒ ता इनके विशिष्ट अर्थ हो भी सकते हैं और नहीं भी, इन्हें सामान्य वार्तालाप में सहज प्रयुक्त आरारारा या अरेरेरे के समान भी माना जा सकता है। इसी प्रकार की ताल अन्य ऋचा ४.५१.७ में भी है - ता घा॒ ता) ।

 इस पद का अर्थ है कि हम उस उत्तर युग में प्रवेश करें जहां जामियों को अजामि बना लिया जाता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में जामि का अर्थ पुनरुक्ति/पुनरावृत्ति वाला और अजामि का अर्थ पुनरावृत्ति से रहित किया गया है । दिवा-रात्रि, श्वास-प्रश्वास क्रिया जामि, पुनरावृत्ति वाली कहलाएगी । 

  वैदिक ऋचाओं में अजामि को जामि बनाने का भी निर्देश है - जामि व अजामि दोनों को समाप्त करने के भी निर्देश हैं (४.४.५,६.४४.१७)

 वैदिक निघण्टु में जामयः शब्द का वर्गीकरण अंगुलि नामों में तथा जामि: व जामिवत् शब्दों का वर्गीकरण उदक व पद नामों में किया गया है ।

  प्रतीत होता है कि जामि शब्द यम या यामि से निष्पन्न हुआ है । यम या यामि का अभिप्राय दो प्रकार से लिया जा सकता है । पहले प्रकार में यम का अर्थ यम - नियम आदि गुणों के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। दूसरे प्रकार में यम का अर्थ है - संयत करना, नियन्त्रित करना, वश में करना । अतः तदनुसार यम/यामि चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करने की स्थिति है । इसके विपरीत अजामि वह स्थिति है जब चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करने की आवश्यकता न पडे, सभी प्रक्रियाएं स्वाभाविक रूप से होने लगें । 

     जामि शब्द का एक रहस्योद्घाटन इस तथ्य से होता है कि पुराणों में दक्ष-कन्या व धर्म-पत्नी जामि को यामि/यामी भी कहा गया है । यामि से यदु, ययाति आदि १२ याम देव उत्पन्न होते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जामि/यामि यम - नियम की स्थिति है, अपनी चेतना पर नियन्त्रण स्थापित करने की स्थिति है । लेकिन ऋग्वेद १०.१०.१० से संकेत मिलता है कि साधना की उत्तर स्थिति में अपनी चेतना पर से सारा नियन्त्रण हट जाता है , सभी प्रक्रियाएं स्वाभाविक रूप में, स्वतः होनी चाहिये । यह अजामि/अयामि की स्थिति है । 

  इस मन्त्र का एक विचित्र आयाम/अर्थ भी है कि भविष्य में ऐसा युग आयेगा जब यमुना(यमी ही यमुना नदी रूप हुई) को जमुना/जमना कहने वाले लोग होंगे और उनमें भाई-बहिन परस्पर विवाह करेंगे। आजकल प्रबुद्ध जन इसे जमनी तहजीब कहते हैं।

  भागवत पुराण में अजामिल इसी अजामि स्थिति का लालन-पालन करता है, तब वह वेश्या के, इन्द्रिय भोगों के वशीभूत हो जाता है । उस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है - नारायण । नारायण के संदर्भ में कहा गया है कि आपः नारा हैं और जो इन नार: का अयन है, वह नारायण है । आपः व्यक्त आनन्द की स्थिति है । इस आनन्द के स्रोत की खोज करनी है । अजामिल की कथा में नारायण को अजामिल का दश पुत्रों में कनिष्ठतम पुत्र कहा गया है। अजामिल के ९ पुत्र वेश्या से उत्पन्न हुये थे और दसवाँ पत्नी से। यह पुत्र रूप अजामिल की साधना का एक फल हो सकता है ।

  कथा संकेत करती है कि सबसे पहले मनुष्य यम - नियम आदि ९ गुणों को अपने व्यक्तित्व में प्रयत्नपूर्वक धारण करे । ये ९ गुण पतञ्जलिमुनि द्वारा निर्दिष्ट सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान भी हो सकते हैं अथवा अजामिल-कथा में ही निर्दिष्ट तप, ब्रह्मचर्य, शम, दम, त्याग, सत्य, शौच, यम तथा नियम (भा.पु. ६.१.१३) भी हो सकते हैं । इन यम-नियमों अथवा ९ गुणों को अपने व्यक्तित्व में प्रयत्नपूर्वक धारण करना जामि(यम - यामि) कहलाता है परन्तु शनैः - शनैः जब मनुष्य इन यम-नियमों को आत्मसात् कर ले अर्थात् उसका प्रयत्न समाप्त होकर ये गुण मनुष्य में स्वाभाविक रूप से ओतप्रोत हो जाएं तब वह स्थिति ही अजामि कहलाती है ।

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