हिन्दू विवाह में होने वाली लाजाहुति और अश्मारोहण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 लाजाहोम क्यों करते हैं ?

  कन्या का भाई शमी पत्र, पलाश पत्र और लाजा ( धान का लावा ) को मिला कर कन्या की अंजलि में अपनी अंजलि से हवन हेतु देता है।

  कन्यादान के समय जलधारा गिराने में तथा लाजा होम के समय भाई की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।कन्या का भ्राता अपनी अंजलि से बहन की अंजलि में लाजा,शमीपत्र और पलाशपत्र को हवनहेतु देताहै।पलाशपत्रके प्रयोगसे विद्या प्राप्ति होती है।उपनयनमें वटुक इसी का दंड ग्रहण करता है।शमीपत्र अग्निगर्भस्थ ऊर्जा को धारण करने वाला यज्ञ वृक्ष होता है।लाजा गृहस्थ्यजीवन में धान्य और सुख दुःख में स्थिरता का प्रतीक होता है।अतः इन तीनों को मिला कर कन्या हवन करती है।

  आजकल प्रायः केवल लाजा (लावा) का ही प्रयोग हो रहा है जबकि तीनोंको मिला कर हवन करना चाहिए।इसकार्य में कन्या का भाई ही उपयुक्त माना गया है।यदि भाई न हो तो चचेरा,ममेरा,फुफेरा,मौसेरा भाई इस कार्य में बहन को लाजा देता है --

भ्रातृस्थाने पितृव्यस्य मातुलस्य च य:सुतः।

मातृष्वसु: सुतः तद्वद् सुतः तद्वत् पितृष्वसु: ॥

- कारिका ॥

  लाजा होम को खड़ा होकर कन्या द्वारा किया जाता है और वर उसके पीछे खड़ाहोकर उसकी अंजलिको नीचेसे पकड़े रहता है।गोभिल गृह्य सूत्र में भाईके स्थान पर माता कोभी विकल्पसे स्वीकार किया गयाहै"पूर्वा माता लाजान् आदाय भ्राता वा " पर अन्य सूत्रकारों ने माता को लाजा प्रदान करने हेतु विकल्प नहीं दिया है।कन्या पूर्वमुख होती है।किसी एक ने उत्तर मुख भी स्वीकार किया हैपर मण्डप में पूर्वमुख की प्रधानता रहती है।

  लाजाहोममें त्रि पदार्थको सभी पद्धतिकारों ने स्वीकार किया है- शमीपत्र-पलाशपत्र- लाजा। साथ ही जोर देकर कहा गयाहै भाई अंजलि से बहन की अंजलि में लाजा को दे। मुट्ठी से नहीं। बहन की अंजलि विरल न हो। सघन हो।यदि लाजा अंजलि के बीच से नीचे गिरे तो अशुभ होता है। अतः देव तीर्थ ( उंगली अग्र भाग ) से अग्नि में वधू लाजा को डाले।

 आश्वलायन, पारस्कर, जैमिनी आदि ने तीन बार आहुति देने को कहा है। जैमिनी ने घी सने लाजा से हवन को कहा है पर अन्य ने नहीं।

प्रथम आहुति अर्यमा ( सूर्य विशेष ) देवता को दी जाती है -

अर्यमणं देवं कन्याऽग्निमयक्षत। 

स मे अर्यमा देवः प्रेतो मुंचतु मा पते: स्वाहा ॥

( हे अग्नि की तरह कान्तिमान अर्यमा देवता! पूर्व में कन्या ने पति पाने के लिए तुम्हारी आराधना की थी।आप इसे पितृकुल से मुक्त कीजिये पतिकुल से नहीं अर्थात् पति से जोड़िए। कन्या स्वयं सूर्यदेव से प्रार्थना करती है कि उसे पितृ कुल से मुक्त कर पति के कुल से जोड़ दीजिये जिससे वह आगे उस कुल के लिए सृष्टि कर सके।)

 द्वितीय आहुति -- पारस्कर द्वितीय आहुति में अग्नि को कन्या के पत्नीत्व अनुमोदन के लिए आह्वान करते हैं। जबकि आश्वलायन महर्षि वरुण देव का आह्वान करते हैं। 

इयं नार्युपब्रूते लाजानावपन्तिका ।

आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा ॥

( यह नारी लाजा को अग्नि में छोड़ती हुई पति के समीप बोलती है-- मेरे पति आयुष्मान हों , मेरे ज्ञाति ( गोत्रीय )बढ़ें -स्वाहा ।)

  महर्षि आश्वलायन की द्वितीय आहुति में वधू की ओर से वरुण देव को कहा गया है मुझे पितृकुल से मुक्त कीजिये पति कुल से जोड़ दीजिये।

उत्तर भारत की परम्परा में पारस्कर की कही आहुति दी जाती है।

तृतीय आहुति पारस्कर के अनुसार वधू कहती है- मैं पति की समृद्धि के लिए अग्नि में इन लाजा का होम करती हूँ।हमारा और तुम्हारा प्रेम बढ़े। इसका अग्निदेव अनुमोदन करें साथ ही यह अग्नि पत्नी स्वाहा भी हमारे प्रेम का अनुमोदन करे।

इमान् लाजान् अवपाम्यग्नौ समृधिकरणं तव ।

मम तुभ्य च संवननं तदग्निरनुमन्यतामियं स्वाहा ।।

( विवाह में इन्हीं मन्त्रों से अर्यमा,अग्नि और स्वाहा देवी सभी के सभी साक्षी रूप में स्थित होते हैं।)

 इन तीन आहुतियों को अग्नि में डालने के बाद वर कन्या के दाहिने हाथ को अंगूठे के साथ पकड़ कर दो मन्त्र बोलता है।इनसे आहुति नहीं दी जाती है।ये प्रार्थना मन्त्र हैं - अतिशय आनन्द के लिए तुम्हारे हाथ को पकड़ता हूँ।तुम मेरे साथ रहती हुई वृद्धत्व को प्राप्त करो।भग,अर्यमा,सविता देवता ने तुम सुन्दरी को मेरे गार्हस्थ्य जीवन के लिए दिया है।।मैं विष्णु तुम लक्ष्मीहो,तुम लक्ष्मी, मैं विष्णु हूँ। मैं आकाश हूँ तुम पृथ्वी हो। हम दोनों विवाह कर प्रजनन करें। वृद्ध होकर हम दोनों चमकते रहें। हमारा मन शुभ हो, हमारी दृष्टि, श्रवण शक्ति, आयु सौ वर्षों तक बनी रहे।

  महर्षि आश्वलायन के अनुसार वर बिना मन्त्र के बचे हुए लाजा को शूर्प के कोने से अग्नि में डाल देता है।वस्तुतः प्रजापति को जो आहुति दी जाती है वह मानसिक ही होती है।अतः अंतिम आहुति वर प्रजापति को देता है ऐसा आश्वलायन गृह्यसूत्र का कहना है।

  इन तीनों हवनीयआहुतियों को कतिपय ऋषियों ने अवदान होम कहा है। इसमें देवता से वधू द्वारा वर रूप में

पति को मांगने का भाव ही इसे अवदान सिद्ध करता है।

पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार अश्मारोहण और गाथा गायन के बाद शूर्प के कोने से अंतिम आहुति देने का विधान है। यही विधान उत्तरभारत में प्रचलित है। इसमें  " भगाय स्वाहा " मन्त्र का प्रयोग हुआ है।अतः यहां देवता भेद प्रकट होता है। प्रजापति या भग देवता में से कोई एक।

अश्मारोहण 

 ( पत्नी में पत्थर की तरह दृढ़ता लाना )

महर्षि आश्वलायन ने लाजा से पहले ही अश्मारोहण माना है जबकि पारस्कर ने बाद में। अश्मारोहण का अर्थ है- शिला ( पत्थर, शिल-बट्टा )आरोहण। पत्थर की तरह दृढ़ बन कर गृहस्थी को संचालित करने के भाव की उत्पत्ति। वर कहता है - हे कन्ये! दाहिने पैर से इस सामने स्थित शिला पर चढो। इसी की तरह पाषाणवत् दृढ़ बनो। कलह करने वालों को ऐसे ही दबा कर रखो और शत्रुओं को दूर हटा दो -

आरोहेममश्मानमेवं त्वं स्थिरा भव।

अभितिष्ठ पृतन्यतोsवबाधस्व पृतनायत ॥

 अश्मारोहण में विवाद 

  कुछ आचार्य कहते हैं पति पत्नी का दाहिना पैर पकड़ कर सामने रखे शिला पर चढ़ा दे। ऐसा प्रसिद्ध भाष्यकार हरिहर(१३ वीं सदी)कहते हैं। दूसरे आचार्य कहते हैं - पति आज्ञा देता है-- तुम शिला पर चढ़ जाओ।एक आचार्य वासुदेव हैं वे कारिका को प्रमाण में प्रस्तुत करते हैं कि वर कन्या का दाहिना पैर पकड़ कर शिला पर रखवाता है -

सव्येनादाय हस्तेन वधूपादं तु दक्षिणम्।

शिलामारोहयेत् प्राग्गायतां दक्षिणपाणिना ॥

इस मुद्दे को लेकर अनेक मंडपों में भारी कलह खड़ा हो जाता है। वैसे यह विवाद टीकाकारों द्वारा पैदा किया हुआ है। मूल में कन्या को शिला पर चढ़ने की प्रेरणा वर देता है ऐसा- कहा गया है।

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