क्या हनुमान जी बन्दर थे ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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वानर किसे कहते हैं ?

वानर- वने भवं वानम्, राति (रा आदाने) गृह्णाति ददाति वा। 

वानं वन सम्बन्धिनं फलादिकं गृहणाति ददाति वा ॥

अर्थात्, जो वन में उत्पन्न होने वाले फलादि खाता है वह वानर कहलाता है । वर्तमान में जंगलों व पहाड़ों में रहने और वहाँ पैदा होने वाले पदार्थों पर निर्वाह करने वाले 'गिरिजन' कहाते हैं। इसी प्रकार वनवासी और वानप्रस्थ वानर वर्ग में गिने जा सकते हैं। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति, प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता। 

 जिसके द्वारा जाति एवं जाति के चिह्नों को प्रकट किया जाता है, वह आकृति है । प्राणिदेह के अवयवों की नियत रचना जाति का चिह्न होती है। सुग्रीव, बालि आदि के जो चित्र देखने में आते हैं उनमें उनके पूंछ लगी दिखाई जाती है, परन्तु उनकी स्त्रियों के पूंछ नहीं होती। नर-मादा में इस प्रकार का भेद अन्य किसी वर्ग में देखने में नहीं आता। इसलिए पूंछ के कारण हनुमान आदि को बन्दर नहीं माना जा सकता। 

   हनुमान से रामचन्द्र जी की पहली बार भेंट ऋष्यमूक पर्वत पर हुई थी। दोनों में परस्पर बातचीत के बाद रामचन्द्र जी लक्ष्मण से बोले -

नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। 

नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम्॥ 

नूनं व्याकरणं कृत्समनेन बहुधा श्रुतम्। 

बहुव्याहरतानेन न किञ्चिदपशब्दितम्॥

संस्कारक्रमसंपन्नामद्र तामविलम्बिताम्। 

उच्चारयति कल्याणी वाचं हृदयहारिणीम्॥

- कि० 3/28, 29, 32

  ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होंने सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है, क्योंकि इतने समय तक बोलने में इन्होंने किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। संस्कारसंपन्न, शास्त्रीय पद्धति से उच्चारण की हुई इनकी कल्याणी वाणी हृदय को हर्षित कर रही है। 

  वस्तुतः हनुमान अनेक भाषाविद् थे। वह अवसर के अनुकूल भाषा का व्यवहार करते थे, इसका संकेत हमें सुन्दर काण्ड में मिलता है। लंका में पहुंच कर हनुमान ने सीता को अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच बैठे देखा । वृक्षों की शाखाओं के बीच छुपकर बैठे हनुमान सोचने लगे -

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्। 

रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति॥ 

सेयमालोक्य मे रूपं जानकी भाषितं तथा। 

रक्षोमिस्त्रासिता पूर्व भूयस्त्रासं गमिष्यति॥

ततो जातपरित्रासा शब्दं कुर्यान्मनिस्विनी। 

जानाना मां विशालाक्षी रावणं कामरूपिणम्॥ 

- सुन्दर 30/18, 20

      यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूंगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझ कर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरम्भ कर देगी। इसलिए -

अहं त्वतितनुश्चैव वानरश्च विशेषतः। 

वाचं चोदहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम्॥17॥ 

      मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा। इससे प्रतीत होता है कि लंका की सामान्य भाषा संस्कृत थी, जबकि जन साधारण संस्कृत से भिन्न, किन्तु तत्सम अथवा तद्भव, शब्दों का व्यवहार करते थे। कुछ टीकाकारों के अनुसार हनुमान ने अयोध्या के आस-पास की भाषा से काम लिया था। 

बालिपुत्र अंगद के विषय में बाल्मीकि ने लिखा है -

बुद्धया ह्मष्टाङ्गयायुक्तं चतुर्बलसमन्वितम् । 

चतुर्दशगुणं मेने हनुमान् बालिनः सुतम्॥

 - कि० 54/2

 हनुमान् बालिपुत्र अंगद को अष्टाङ्ग बुद्धि से संपन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे। 

अष्टांग बुद्धि क्या है ?

शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। 

ऊपापोहार्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥ 

  सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक-ठीक समझना, विज्ञान व तत्त्वज्ञान-बुद्धि के ये आठ अंग हैं। 

चतुर्बल क्या है ? 

   साम, दाम, भेद, दण्ड। शत्रु को वश में करने के लिए नीति शास्त्र में चार उपाय बताए गए हैं, उन्हीं को यहाँ चार प्रकार का बल कहा गया है। किन्हीं-किन्हीं के मत से बाहुबल, मनोबल, उपाय बल और बन्धुबल ये चार बल हैं। 

चतुर्दश गुण कौन-कौन हैं ?

देशकालज्ञता दाढ्य, सर्वक्लशसहिष्णुता।

सर्वविज्ञानता दाक्ष्यमूर्जः संवृत्तमन्त्रता॥

अविसंवादिता शौयं भक्तिज्ञत्वं कृतज्ञता।

शरणागतवात्सल्यममर्षित्वमचापलम् ॥

    1. देशकाल का ज्ञान, 2. दृढ़ता, 3. कष्टसहिष्णुता, 4. सर्वविज्ञानता, 5. दक्षता, 6. उत्साह, 7. मन्त्रगुप्ति, 8. एकवाक्यता, 9. शूरता, 10. भक्ति ज्ञान, 11. कृतज्ञता, 12. शरणागतवत्सलता, 13. अमर्षित्व अधर्म के प्रति क्रोध और 14. अचपलता(गम्भीरता) । 

 और बालि की पत्नी एवं अंगद की माता तारा को वाल्मीकि ने 'मन्त्रवित्' बताया है (कि० 16/12)। मरते समय बालि ने तारा की योग्यता का बखान करते हुए सुग्रीव को परामर्श दिया -

सुषेणदुहिता चेयमर्थसूक्ष्मविनिश्चये। 

औत्पातिके च विविधे सर्वतः परिनिष्ठिता॥ 

यदेषा साध्विति ब्रूयात् कार्य तन्मुक्तसंशयम्। 

न हि तारामतं किंचिदन्यथा परिवर्तते॥ 

- कि० 23/13-14

  सुषेण (जिनकी चिकिप्सा से मृतप्राय लक्ष्मण जीवित हो गए थे संजीवनी वाले वैद्य) की पुत्री यह तारा सूक्ष्म विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिह्नों को समझने में सर्वथा निपुण है। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे निःसंग होकर करना । तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता। 

   बालि की अन्त्येष्टि के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी -

 "ओवंदेहिकमार्यस्य क्रियतामनुकूलतः" (कि० 25/30) 

अर्थात्, मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियम के अनुसार शास्त्रानुकूल किया जाए। 

  तदनन्तर सुग्रीव के राजतिलक के समय सोलह सुन्दर 'कन्याएँ अक्षत, अंगराज, गोरोचन, मधु, घृत आदि लेकर आई और वेदी पर प्रज्वलित अग्नि में- 

"मन्त्रपूतेन हविषा हुत्वा मन्त्रविदोजनाः" (26/10) 

मन्त्रोच्चारणपूर्वक हविष्म के द्वारा मन्त्रविद् विद्वानों ने हवन किया। 

 इस सारे वर्णन और विवरण को बुद्धिपूर्वक पढ़ने के बाद कौन मान सकता है कि हनुमान् और तारा आदि मनुष्य न होकर पेड़ों पर उछल-कूद मचाने वाले बन्दर-बन्दरिया थे ? 


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