अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है। सं...
अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोड़कर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है।
संसार का अर्थ है- आकांक्षा, तृष्णा, वासना कुछ होने की चाह, ये बाहर फैले हुए चांद-तारे, वृक्ष, पहाड़-पर्वत, लोग यह नहीं? भीतर फैली हुई वासनाओं का जाल है, मैं जैसा हूं, वैसे से ही तृप्ति नहीं, कुछ और होऊं तब तृप्ति होगी, जितना धन है, उससे ज्यादा हो, जितना सौंदर्य है, उससे ज्यादा हो।
जितनी प्रतिष्ठा है, उससे ज्यादा हो, जो भी मेरे पास है वह कम है, ऐसा जो कांटा गड़ रहा है वही संसार है, और ज्यादा हो जायें तो मैं सुखी हो सकूंगा, जो मैं हूं, उससे अन्यथा होने की आकांक्षा संसार है, जिस दिन यह आकांक्षा गिर जाती है, जिस दिन तुम जैसे हो वैसे ही परम तृप्त, जहां हो वहीं आनंद रसविमुग्धय जैसे हो वैसे ही गद, उसी क्षण संसार मिट गया।
संसार का मिटना और परमात्मा का होना दो चीजें नहीं हैं, संसार का मिटना और परमात्मा का होना एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं, ऐसा नहीं हैं कि रात मिट गई, फिर लालटेन लेकर खोज रहे हैं कि सुबह कहां है, रात मिट गई तो सुबह हो गयी, संसार गया कि परमात्मा हो गया, सच तो यह है, यह कहना कि परमात्मा हो गया, ठीक नहीं।
परमात्मा तो था ही पर संसार के कारण दिखाई नहीं पड़ता था, तुम कहीं और भागे हुए थे इसलिए जो निकट था वह चूकता जाता था, तुम्हारा मन कहीं दूर चांद-तारों में भटकता था, इसलिए जो पास था वह दिखाई नहीं पड़ता था, सब तरह से सुख को खोजने की कोशिश की, जैसा सभी करते हैं, धन में, पद में, यश में कहीं सुख पाया नहीं।
सुख को जितना खोजा उतना दुख बढ़ता गया, जितनी आकांक्षा की कि शांति मिले, उस आकांक्षा के कारण ही अशांति और सघन होती चली गयी, अतीत में सुख खोजा, बीत गया, जो उसमें सुख खोजा और नहीं पाया और भविष्य में सुख खोजा, कि अभी जो नहीं हुआ कल जो होगा वह कल कभी नहीं आया।
जो कल आ गए, अतीत हो गए, उनमें सुख की कोई भनक नहीं मिली और जो आए नहीं आते ही नहीं, उनमें तो सुख कैसे मिलेगा, दौड़-दौड़ थक गया, सब दिशाएं छान डालीं, सब तारे टटोल लिये, सब कोने खोज दिये, फिर सोचा सब जगह खोज चुका. अतीत में, भविष्य में, यहां-वहां अब जहां हूं वहीं खोजूं।
जो हूं उसी में खोजूं, इसी क्षण में खोजूं, वर्तमान में खोजूं, शायद वहां हो और वर्तमान में खोजा और वहां सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं था, हमारे मन में अधिक पाने की लालसा ही हमें दुखी करती है, दूसरों से आगे निकलने की ओर हमारा ध्यान ज्यादा रहता है, जितनी हम अक्षांशा करते हैं उतने ही भंवर में फंसते जाते हैं, और सुख की वजाय हम दुखी ही रहते हैं।
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