ईश्वर के सर्वव्यापी होने की मान्यता क्यों ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  जैसे बीज में छिपा वृक्ष दिखाई नहीं देता, दूध में घी मौजूद होते हुए भी दिखाई नहीं देता, तिल में तेल दिखाई नहीं देता, फूल की खुशबू दिखाई नहीं देती, शरीर में होने वाली पीड़ा दिखाई नहीं देती, अपनी बुराई दिखाई नहीं देती, वैसे ही ईश्वर सर्वत्र व्यापक रूप से विद्यमान होने पर भी दिखाई नहीं देता।

 जैसे हमारे शरीर में आत्मा व्याप्त और विद्यमान रहती है, परमात्मा समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त और विद्यमान रहता है, फिर भी हमारे अज्ञान के कारण वह हमसे बहुत दूर होता है और ज्ञान व भक्ति से इसे हमारे बहुत निकट अनुभव किया जा सकता है। जैसे जमीन में पानी सब जगह रहता है, परंतु उसका प्राप्ति स्थान कुआं है, ऐसे ही भगवान् सब जगह है, पर उसका प्राप्ति स्थान हृदय है।

 श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-'हृदि सर्वस्य विष्ठितम्' गीता 13/17 तथा 'सर्वस्य वाहं हृदि सन्निविष्टो' गीता 15/15। यद्यपि मैं सब जगह समान भाव से परिपूर्ण हूं, फिर भी सबके हृदय में अंतर्यामी रूप से मेरी विशेष स्थिति है, अतएव हृदय मेरी उपलब्धि का विशेष स्थान है। अध्याय 13 के श्लोक 13 में लिखा है

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।  

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥

 अर्थात् ईश्वर सब ओर हाथ-पैर वाला, नेत्र, सिर तथा मुख वाला एवं सब ओर से कान वाला है। ऐसा कोई स्थान नहीं जहां वह न हो, कोई शब्द नहीं जिसे वह न सुनता हो, कोई दृश्य नहीं, जिसे वह न देखता हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे वह न ग्रहण करता हो और ऐसी कोई जगह नहीं जहां वह न पहुंचता हो।

जैसे यजुर्वेद में कहा गया है- 

ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगतू । -यजुर्वेद 40/1

  अर्थात इस सारे संसार के सब पदार्थों में ईश्वर व्यापक है। श्वेताश्वतर उपनिषद् का वचन है- एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

  अर्थात् ईश्वर एक ही है, वह सब प्राणियों के अंदर छिपा हुआ है, वह सर्वव्यापक और सब प्राणियों में आत्मा के रूप में विद्यमान है। ईश्वर के भक्तों को पहले दृढ़ निश्चय कर ईश्वर के होने को स्वीकारना चाहिए। वह अपने भक्तों को अवश्य मिलते हैं। फिर विश्वास पूर्वक निरंतर ईश्वर का ध्यान करते हुए उसे प्राप्त करना चाहिए। ईश्वर आपके हृदय में ही विराजमान है, जो उसे मन से चाहता है, अवश्य पा लेता है। नारदपुराण के पूर्वखंड अध्याय 11 में श्लोक 57 और 64 के* *मध्य भगवान् का कहना है कि राग, द्वेष, गुणों में दोष दृष्टि रखने वाले, पाखंड से रहित (दूर) मेरे भक्त मुझे हदय में निरंतर धारण करते हैं। जलन से हीन, पति प्राण, पतिव्रता स्त्री, माता-पिता, गुरु और अतिथि की सेवा करने वाले, ब्राह्मणों के हितैषी, पुण्य तीर्थ तथा सत्संग के प्रेमी, पर धन, पर स्त्री से बचे परोपकारी पुरुष तथा अन्न और जल का दान करने वाले भी मुझे निरंतर हृदय में धारण किए रहते हैं। 

  सूर्य का प्रकाश सब जगह समान रूप से विस्तृत रहने पर भी दर्पण आदि में इसके प्रतिबिंब की विशेष अभिव्यक्ति होती है एवं कांच के लेंस में उसका तेज प्रत्यक्ष प्रकट होकर अग्नि पैदा कर देता है ऐसे ज्ञानी व्यक्ति जिनका अंतःकरण शुद्ध और स्वच्छ होता है, उनके हृदय में मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होता है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च। 

सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च ततु ॥  

                                                              -श्रीमद्भगवद्गीता 13/15

 अर्थात् वह परम सत्य परमात्मा, जड़ और चेतन सभी में भीतर व बाहर विद्यमान है। अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण वह भौतिक इंद्रियों से देखा व जाना नहीं जा सकता।

  जैसे सूर्य की किरणों में स्थित हुआ जल सूक्ष्म होने से साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता। इसी प्रकार परमात्मा श्रद्धालु की आत्मा में होने से अत्यंत समीप है और श्रद्धा रहित, अज्ञानी पुरुषों के लिए न जानने के कारण बहुत दूर है। शास्त्रकार ने लिखा है -

ब्रह्मवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्योत्तरेण।

अथश्योर्व्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ॥  

                                                                    -मुंडक उपनिषद् 2.21

  अर्थात् वह अमृत स्वरूप परब्रह्म ही सामने है। ब्रह्म पीछे है, ब्रह्म ही दाई ओर तथा बाई ओर, नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी फैला हुआ है। यह जो संपूर्ण जगत है, वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।

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