तुलसी कहते हैं कि भगवान् राम के चरण भक्तों के लिए दु:ख के दिनों में साथी हैं। ये उत्साह, धर्म, विचार, पुण्य, सुशीलता और सरल स्वभाव के आधा...
तुलसी कहते हैं कि भगवान् राम के चरण भक्तों के लिए दु:ख के दिनों में साथी हैं। ये उत्साह, धर्म, विचार, पुण्य, सुशीलता और सरल स्वभाव के आधार हैं, अत: उन्हीं के चरणों का आश्रय लो।
एक समय श्रीराम को मुनियों के द्वारा यह समाचार मिलता है कि लंकापति विभीषण द्राविड देश में कैद हैं। भगवान् श्रीराम अब नहीं ठहर सके, वे विभीषण का पता लगाने और उन्हें छुडाने के लिये निकल पड़े।
खोजते-खोजते विप्रघोष नामक गाँव में पहुँचे, विभीषण वहीं कैद थे। वहाँ के लोगों ने श्रीराम को दिखलाया कि ‘विभीषण जमीन के अन्दर एक कोठरी में जंजीरों से बँधे पड़े हैं।‘
श्रीराम के पूछ्ने पर ब्राह्मणों ने कहा–‘राजन् ! विभीषण ने ब्रह्महत्या की थी, एक अति धार्मिक वृद्ध ब्राह्मण निर्जन उपवन में तप कर रहा था, विभीषण ने वहाँ जाकर उसे पद्दलित करके मार डाला।
ब्राह्मण की मृत्यु होते ही विभीषण के पैर वहीं रुक गये, वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सका, ब्रह्महत्या के पाप से उसकी चाल बन्द हो गयी। हम लोगों ने इस दुष्ट राक्षस को बहुत मारा-पीटा, परन्तु इस पापी के प्राण किसी प्रकार नहीं निकले।
अब हे श्रीराम ! आप पधार गये हैं, आप चक्रवर्ती राजराजेश्वर हैं। इस पापात्मा का वध करके धर्म की रक्षा कीजिये।’
यह सुनकर श्रीराम असमंजस में पड़ गये। एक ओर विभीषण का भारी अपराध है, और दूसरी ओर विभीषण श्रीराम का ही एक सेवक है। यहाँ पर श्रीराम ने ब्राह्मणों से जो कुछ कहा वह बहुत ही ध्यान देने योग्य है।
शरणागत भक्त के लिये भगवान् कहाँ तक करने को तैयार रहते हैं, इस बात का पता भगवान् के शब्दों से ही लग जायगा। भगवान् श्रीराम स्वयं अपराधी की तरह नम्रता से कहने लगे
वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम्।
राज्यमायुर्मया दत्तं तथैव स भविष्यति॥
भृत्यापराधे सर्वत्र स्वामिनो दण्ड इष्यते।
रामवाक्यं द्विजाः श्रुत्वा विस्मयादिदमब्रुवन्॥
‘हे द्विजवरो ! विभीषण को तो मैं अखण्ड राज्य और आयु दे चुका, वह तो मर नहीं सकता। फिर उसके मरने की ही क्या आवश्यकता है ? वह तो मेरा भक्त है, भक्त के लिये मैं स्वयं मर सकता हूँ। सेवक के अपराध की जिम्मेदारी तो वास्तव में स्वामी पर ही होती है। नौकर के दोष से स्वामी ही दण्ड का पात्र होता है, अतएव विभीषण के बदले आप लोग मुझे दण्ड दीजिये।’
श्रीराम के मुख से ऐसे वचन सुनकर ब्राह्मण-मण्डली आश्चर्यसे डूब गयी। जिसको श्रीराम से दण्ड दिलवाना चाहते थे, वह तो श्रीराम का सेवक है और सेवक के लिये उसके स्वामी श्रीराम ही दण्ड ग्रहण करना चाहते हैं। अहा ! स्वामी हो तो ऐसा हो। भ्रान्त मनुष्यो ! ऐसे स्वामी को बिसारकर अन्य किस साधन से सुखी होना चाहते हो ?
तुलसी राम सुभाव सील लखि जौ न भगति उर आई।
तो तोहिं जनमी जाइ जननी जड़ तन तरुनता गँवाई॥
ब्राह्मण उसे दण्ड देना भूल गये। श्रीराम के मुख से ऐसे वचन सुनकर ब्राह्मणों को चिन्ता हो गयी कि विभीषण जल्दी छूट जाय और अपने घर जा सके तो अच्छी बात है। वे विभीषण को छोड़ तो सकते थे परन्तु छोड़ने से क्या होता, ब्रह्महत्या के पाप से उसकी तो गति रुकी हुई थी।
अतएव ब्राह्मणों ने कहा–‘राम ! इस प्रकार विभीषण को बन्धन में रखना उचित नहीं है। आप वसिष्ठ-प्रभृति मुनियों की राय से इसे छुडाने का प्रयत्न कीजिये।’
अनन्तर श्रीराम ने प्रधान-प्रधान मुनियों से पूछकर विभिषण के लिये तीन सौ साठ गोदान का प्रायश्चित बतलाकर उसे छुडा लिया।
प्रायश्चित द्वारा विशुद्ध होकर जब विभीषण भगवान् श्रीराम के सामने आकर सादर प्रणाम करने लगे तब श्रीराम ने उन्हें सभा में ले जाकर हँसते हुए यह शिक्षा दी–‘ऐसा कार्य कभी नहीं करना चाहिये। जिसमें अपना हित हो, वही कार्य करना चाहिये। राक्षसराज ! तुम मेरे सेवक हो, अतएव तुम्हें साधुशील होना चाहिये, सर्वत्र दयालु रहना चाहिये।’