dharma adharma हमारे तन्त्रशास्त्र तो दूर की बात , इनके प्रवक्ता तो स्वयं परमपवित्र भगवान् शंकर हैं, यदि एक दानव से भी वेदसम्मत ...
हमारे तन्त्रशास्त्र तो दूर की बात , इनके प्रवक्ता तो स्वयं परमपवित्र भगवान् शंकर हैं, यदि एक दानव से भी वेदसम्मत युक्तियुक्त वचन हमें सुनाई देगा तो हम वैदिकों का समर्थन तो उस तथ्य पर स्वतः ही है किन्तु वेदविरुद्ध व युक्तिहीन वचन साक्षात् भगवान् से भी सुनाई पड़ेगा तो हम वैदिकों को वह स्वीकार्य नहीं होगा , यहॉ तक कि वेद के वचनों को भी ग्रहण करने से पूर्व , पूर्वमीमांसा से हम उनको परखते हैं कि नहीं ? यामिमां पुष्पितां वाचं ...वेदवादरताः पार्थ- ये युक्तियुक्त विचार ही तो है और यही हमारी परम्परा भी है । इसी रीति से अपौरुषेय वेद से लेकर मयमतम् प्रभृत शास्त्रों तक का विचार करके उनको ग्रहण हम करते हैं ।
तो तब यहॉ विचार ये किया जा सकता है कि क्या स्वयं भगवान् भी कभी वेदविरुद्ध या युक्तिहीन वचन कह सकते हैं ? यदि ऐसा हो इस संसार में आप्त पुरुष कौन रह जायेगा फिर ? तो इसका समाधान यही है कि वैदिकों की रक्षार्थ सत् सम्प्रदायों से लेकर असुरों के मोहनार्थ पाखण्ड सम्प्रदायों तक का प्रवर्तन स्वयं भगवान् ने किया है , तो वैद्यराजों के औषधिवितरण की भाँति आप्तपुरुष भी लोककल्याण के लिये अधिकारिभेद से उपदेशभेद प्रदान करते हैं । उस उस शास्त्र के उस उस अनुबन्ध चतुष्टय को बिना जाने ही उनके अमुक वचनों पर लट्टू होने वाले लोग कईं बार भगवान् की संहारलीला की चपेट में आ जाते हैं ।
तो इसलिये अब धर्मनिर्णय हेतु इस सब समस्याओं का समाधान क्या है ? तो इसी सुप्रसिद्ध श्लोक के माध्यम से आपको स्मरण कराते हैं कि ~
आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः।।
- श्रीमनुस्मृतिः १२।१०६
अर्थात् ऋषिदृष्ट वेद का और वेदज्ञ मुनियों से उपदिष्ट स्मृतियों का भी जो वेदशास्त्र के अविरोधी तर्क से पर्यालोचन करता है, वही धर्म को जान सकता है, दूसरा नहीं ।
तो तात्पर्य क्या निकला ? कि स्वशाखासूत्रानुसार प्रतिपादित धर्म के अनुकूल एवं उपयोगी बात तन्त्रशास्त्र में भी होगी तो सहर्ष हम वैदिकों द्वारा मान्य होगी, तदन्य बात हम वैदिकों के लिये अग्राह्य हो जायेगी, क्योंकि हम वैदिकों के लिये ग्राह्यता- अग्राह्यता का विचार ही तो दूसरे शब्दों में हमारे लिये धर्माधर्म का विचार है।
इस कलिकाल में तो ऐसे अनगिनत लोग मिलेंगे, जो कहेंगे कि हमको अमुक स्थल पर अमुक दर्शन हुआ , अमुक रात को अमुक सपना मिला, यहॉ से ये दीक्षा मिली वो मिला ये सो , अमुक जगह अमुक शास्त्र है, उसमें ये कहा है सो कहा है, अमुक ने ये कहा है, सो कहा है , धर्माचार्य भी कब कहॉ कौन किस अंश में कैसा होगा, ये सब भगवान् भरोसे ही होगा , सप्तर्षि महाजन भूमण्डल पर विराजमान होंगे नहीं कि उनसे जाकर कोई धर्म अधर्म पूछ ले, तो तब क्या हो ? तो अब ऐसा मनुप्रोक्त तर्क ही ऋषि है, वैदिकों के लिये इन्हीं एकमात्र विश्वसनीय ऋषि के द्वारा मान्य सिद्धान्त ही धर्म है , दूसरा नहीं । यही विशुद्ध सनातन वैदिक परम्परा है ।
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