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बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु। राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

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"बिना ज्ञान के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती और बिना श्रद्धा के प्रेम नहीं बढ़ सकता।" इसलिए सच्चा ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रेम के स...

"बिना ज्ञान के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती और बिना श्रद्धा के प्रेम नहीं बढ़ सकता।" इसलिए सच्चा ज्ञान स्वाभाविक रूप से प्रेम के साथ प्राप्त होता है। यदि हम यह दावा करते हैं कि हम ब्रह्म के ज्ञान से सम्पन्न हैं लेकिन यदि हमउसके प्रति प्रेम की अनुभूति नहीं करते तब हमारा ज्ञान केवल सैद्धान्तिक होता है। 

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है। ऐसी महान आत्मा वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ होती है।

ज्ञान किसी अभ्यास से पैदा नहीं होता, प्रत्युत जो वास्तव में है, उसको वैसा ही यथार्थ जान लेने का नाम ‘ज्ञान’ है ।

 वासुदेवः सर्वम्(सब कुछ परमात्मा ही है)

  यह ज्ञान वास्तव में है ही ऐसा । यह कोई नया बनाया हुआ ज्ञान नहीं है, प्रत्युत स्वतःसिद्ध है । अतः भगवान्‌ की वाणी से हमें इस बात का पता लग गया कि सब कुछ परमात्मा ही है, यह कितने आनन्द की बात है ! यह ऊँचा-से-ऊँचा ज्ञान है । इससे बढ़कर कोई ज्ञान है ही नहीं । कोई भले ही सब शास्त्र पढ़ ले, वेद पढ़ ले, पुराण पढ़ ले, पर अन्त में यही बात रहेगी कि सब कुछ परमात्मा ही है; क्यों कि वास्तव में बात है ही यही ।

  संसार में प्रायः कोई भी आदमी यह नहीं बताता कि मेरे पास इतना धन है, इतनी सम्पत्ति है, इतनी विद्या है, इतना कला-कौशल है । परन्तु भगवान्‌ ने ऊँचे-से-ऊँचे महात्मा के हृदय की गुप्त बात हमें सीधे शब्दों में बता दी कि सब कुछ परमात्मा ही है । इससे बढ़कर उनकी क्या कृपा होगी ।

  जितना संसार दीखता है, वह चाहे वृक्ष, पहाड़, पत्थर आदिके रूपमें हो, चाहे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में हो, सबमें एक परमात्मा ही परिपूर्ण हैं । परमात्मा की जगह ही यह संसार दीख रहा है । बाहर से संसार का जो रूप दीख रहा है, यह तो एक चोला है, जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है, नाशवान् है । परन्तु इसके भीतर सत्तारूप से एक परमात्मतत्त्व है, जो अपरिवर्तनशील है, अविनाशी है । भूल यह होती है कि ऊपर के चोले की तरफ तो हमारी दृष्टि जाती है, पर उसके भीतर क्या है–इस तरफ हमारी दृष्टि जाती ही नहीं ! इसलिए भगवान्‌ कहते हैं–

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: ।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विंशते तदनन्तरम् ॥

  केवल मेरे प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति करने से ही किसी को पता चलता है कि मैं सत्य में कौन हूँ। तब, मुझे जानने के बाद, मेरा भक्त मेरे बारे में पूर्ण चेतना में प्रवेश करता है।

‘मनुष्य मेरे को तत्त्व से जानकर फिर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है ।’ तत्त्व से जानना क्या है ? जैसे सूती कपड़ों में रूई की सत्ता है, मिट्टी के बर्तनों में मिट्टी की सत्ता है, लोहे के अस्त्र-शस्त्रों में लोहे की सत्ता है, सोने के गहनों में सोने की सत्ता है, ऐसे ही संसार में परमात्मा की सत्ता है–यह जानना ही तत्त्व से जानना अर्थात् अनुभव करना है

  यहाँ श्रीकृष्ण यह व्यक्त करते हैं कि अनेक जन्मों तक ज्ञान का अनुशीलन करने के पश्चात जब ज्ञानी मनुष्य का ज्ञान परिपक्व होकर सत्य ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है तब वह परम प्रभु को सभी का उद्गम जानकर उनके शरणागत होता है। इस श्लोक में यह चित्रित किया गया है कि महान आत्माएँ विरली ही होती हैं। भगवान ऐसे वचन ज्ञानी, कर्मी, हठ योगी इत्यादि के लिए नहीं कहते अपितु वे यह सब केवल अपने भक्त के लिए कहते हैं और यह घोषणा भी करते हैं कि ऐसी महान आत्माएँ अत्यंत दुर्लभ होती हैं जो यह समझती हैं कि “भगवान ही सब कुछ हैं और उनके शरणागत होती हैं।"

  पद्म पुराण में उपरोक्त सत्य को दर्शाने वाली एक सुंदर घटना का उल्लेख है। जाबालि नाम के एक ऋषि ने जंगल में एक अत्यंत तेजोमय और शांत युवती को ध्यान करते हुए देखा। उन्होंने उससे अपनी पहचान और ध्यान के उद्देश्य को प्रकट करने का अनुरोध किया। उसने जवाब दिया -

ब्रह्मविद्याहममतुला योगिन्द्रैर्या च मृग्यते।

सह हरिं पदाम्भोज कामय्या सुचिरं तपः ॥

चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तम॥

ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधीः ।

तथापि शून्यमात्मनम मन्ये कृष्णरतिम विना॥

"मैं ब्रह्म विद्या हूँ (स्वयं को जानने का विज्ञान, जो अंततः ईश्वर की ब्रह्म प्राप्ति की ओर ले जाता है)। बड़े-बड़े योगी और फकीर मुझे जानने के लिए तपस्या करते हैं। हालाँकि, मैं स्वयं भगवान के साकार रूप के चरण कमलों में प्रेम विकसित करने के लिए कठोर तपस्या कर रहा हूँ। मैं ब्रह्म के आनंद से परिपूर्ण और तृप्त हूं । फिर भी, भगवान कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण लगाव के बिना, मैं खाली और शून्य महसूस करता हूँ।" इस प्रकार, भगवान के व्यक्तिगत रूप के आनंद को चखने के लिए केवल ज्ञान अपर्याप्त है। यह भक्ति के माध्यम से है कि कोई इस रहस्य में प्रवेश करता है और पूर्ण ईश्वर-चेतना प्राप्त करता है।

  अनेक जन्मों तक ज्ञान का अनुशीलन करने के पश्चात जब ज्ञानी का ज्ञान परिपक्व अवस्था प्राप्त करता है तब वह अंततः भगवान के शरणागत होता है। वास्तव में सच्चा ज्ञान भक्ति की ओर ले जाता है। एक बार एक व्यक्ति समुद्र के किनारे भ्रमण कर रहा था और उसे वहाँ रेत में अंगूठी मिल गयी। उसने अंगूठी उठा ली लेकिन उसे अंगूठी का मूल्य ज्ञात नहीं था। उसने सोचा कि यह बनावटी आभूषण होगा और सामान्य रूप से आजकल उसका मूल्य मात्र 100 रुपये होना चाहिए। अगले दिन वह सुनार के पास गया और उससे कहा-'क्या तुम मुझे इस अंगूठी का दाम बता सकते हो? सुनार ने अंगूठी को परखा और कहा-'यह 22 केरेट का सोना है। इसका दाम एक लाख रुपये होना चाहिए।' यह सुनकर उस व्यक्ति का उस अंगूठी में अनुराग बढ़ गया। अब जब वह उस अंगूठी को देखता तब उसे इतनी प्रसन्नता होती जितनी उसे एक लाख रुपये का उपहार प्राप्त होने पर होती। 

  कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात उसका चाचा उसे मिला जो एक सुनार था और दूसरे नगर से आया था। उसने अपने चाचा से पूछा-'क्या आप इस अंगूठी और इसमें जड़े रत्न के मूल्य का आंकलन कर सकते हो।' उसके चाचा ने अंगूठी को देखा और चिल्ला कर कहने लगा—'यह तुम्हें कहाँ से मिली? यह शुद्ध हीरा है और इसका दाम एक करोड़ रुपये होगा।' यह सुनकर वह आनन्द से ओत-प्रोत हो गया और कहने लगा-'चाचा जी कृपया मेरे साथ उपहास न करें।' चाचा ने कहा-'नहीं मेरे पुत्र! मैं तुमसे कोई उपहास नहीं कर रहा। यदि तुम्हें विश्वास नहीं है तो तुम मुझे यह अंगूठी 75 लाख रुपये में बेच सकते हो' अब अंगूठी के वास्तविक मूल्य के संबंध में उसकी जानकारी पुष्ट हो गयी। तत्क्षण उसकी अंगूठी में आसक्ति बढ़ गयी। उसे लगा कि उसने कोई लॉटरी जीत लिया है और उसके आनन्द की कोई सीमा नहीं थी। 

  यह देखें कि कैसे उस व्यक्ति का उस अंगूठी के प्रति अनुराग उसके ज्ञान के अनुपात के अनुसार बढ़ता गया। जब उसे ज्ञात हुआ कि अंगूठी का दाम 100 रुपये है तब उसका अनुराग उसके प्रति कुछ सीमा तक बढ़ा। जब उसे यह जानकारी मिली कि उस अंगूठी का दाम एक लाख रुपये है तब उसी अनुपात में अंगूठी के प्रति उसका अनुराग और अधिक बढ़ गया। फिर जब उसे यह ज्ञात हुआ कि अंगूठी का वास्तविक मूल्य एक करोड़ रुपये है फिर उसके प्रति उसकी आसक्ति उसी प्रकार से बढ़ी।

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

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भागवत दर्शन: बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु। राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु। राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥
भागवत दर्शन
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