प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥
भावार्थ:-मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥
एक बार राजा जनक को स्वप्न आया, कि जैसे कि वह किसी जंगल में अकेला भटक गया है ,और उसको बहुत अधिक भूख लगी हुई है । वह जंगल में देखता है कि एक छोटी सी झोपड़ी है । राजा झोपड़ी के पास गया तो वहां पर एक वृद्ध महिला थी । महिला से राजा जनक ने कहा कि हे माता क्या आपके पास खाने के लिए मुझे कुछ मिलेगा।
वृद्ध महिला ने कहा कि मेरे पास फिलहाल खिलाने के लिए तो कुछ नहीं है हां थोड़े से चावल है और मेरे पास हांडी है थोड़ा पानी है । अगर आप चाहो तो उनको पका कर खा सकते हो । राजा जनक ने खाना बनाना शुरु किया।
वह चूल्हे में आग जला जलाने के लिए बहुत फूँक मार रहा था लेकिन आग नहीं जल पा रही थी । राजा जनक बहुत परेशान थे लेकिन थोड़ी-थोड़ी आग जल जाने के बाद चावल पकने लगे । चावल जब तक पकने ही वाले थे बल्कि अधकचरे ही थे तभी दो जंगली भैंसे आपस में लड़ते लड़ते उतर आए और हांडी के ऊपर ही चढ़ गए और वह सारा खाना मिट्टी में मिला दिया।
इतनी ही देर बाद राजा जनक की आंख खुल गई तो वह सोचने लगे कि मैं इतने बड़े राज्य का राजा और सोने के पलंग पर सोया हुआ था लेकिन इस सपने में मैंने इतना भयंकर दृश्य देखा । राजा ने अपने राज्य के विद्वानों और उसने मंत्रियों आदि से सलाह ली कि यह ऐसी मेरी दुर्दशा सपने में थी इसका क्या अर्थ है वह सपना सच्चा था या फिर मेरा यह जीवन सच्चा है । लेकिन उसके राज्य में ऐसा कोई बताने वाला नहीं था।
बहुत से विद्वान और मंत्री आए लेकिन राजा की संतुष्टि के लायक उत्तर ना दे सके । राजा जनक में एक घोषणा करवा दी कि जो भी उसके इस प्रश्न का उत्तर देगा उसको आधा राज्य दे दिया जाएगा लेकिन अगर उत्तर सही नहीं दिया तो उसको या तो हमेशा हमेशा के लिए कारागृह में डाल दिया जाएगा या फिर फांसी पर लटका दिया जाएगा।
राजा के पास बहुत से लोग प्रश्नों का उत्तर देने के लिए आए और बहुत सारे लोग कारागृह में डाल दिए गए । राजा ने दो मंच बनवाए थे । पहले मंच पर बैठकर अगर कोई उत्तर देगा अगर उत्तर सही बैठ गया तो उसको आधा राज्य दे दिया जाएगा अगर उत्तर सही नहीं बैठा तो उसको का आजीवन कारावास दिया जाएगा ।
इसी कथा को यहां रोक कर एक दूसरी कथा सुनाना उल्लेखनीय होगा, वह यह कि अष्टकवर्ग जब 12 साल के बच्चे थे, तो अपने कुछ दोस्तों के साथ खेल रहे थे, तो किसी बात पर विवाद खड़ा हो गया, तो एक लड़के ने कसम खाई कि मैं अपने पिता की कसम खाता हूं कि यह बात सच है । अष्टरावक्र ने भी बोला कि मैं भी अपने पिता की कसम खाता हूं कि यह बात सत्य है।
लड़के बोलने लगे तेरे पिताजी कहां? तू तो बिना बाप का है। अब हुआ ऐसा था, कि जब राजा जनक ने उक्त स्वप्न से संबन्धित प्रश्न को जानने के ल्ये उत्तर मांगा था, तो स्वप्न का अर्थ बताने के लिए राजा अष्टरावक्र के पिता को जेल में डाल दिया गया था । अष्टावक्र को अपने दोस्तों की बात सुनकर बड़ा दुख हुआ उसने अपनी माता जी से जाकर बोला कि मेरे पिताजी कहां हैं ?
उसकी माता बोली तेरे कोई पिताजी नहीं है। वह बोले कि नहीं सब के पिताजी हैं तो मेरे भी पिताजी होंगे आप बताओ नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा । तब बूढ़ी माता ने बताया कि जब तू पैदा नहीं हुआ था तेरे पिताजी राजा जनक के यहां उनके स्वप्न का अर्थ बताने के लिए उनके दरबार में गए थे और वहां सही उत्तर नहीं दे पाने की वजह से राजा जनक के कारावास में डाल दिये गए थे।
अष्टावक्र बोला कि माता मैं अपने पिताजी को कारावास से छुड़वा कर वापस लेकर आऊँगा । उसकी माता बोली नहीं बेटा तू तो मेरा एक सहारा है अगर तू भी चला जाएगा । तुझे भी कारावास में डाल दिया गया तो क्या होगा।
अष्टावक्र बोला या तो मुझे जाने दो नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा । डर की वजह से बच्चे को राजा जनक के स्वप्न का अर्थ बताने के लिए दरबार में भेज दिया गया । अष्टरावक्र थोड़ा टेढा मेढा होकर चलते थे इसलिए वह अपने दोस्तों को साथ लेकर राजा जनक के दरबार के बाहर पहुंचे
अष्टावक्र टेढ़े-मेढ़े इसलिए चलते थे, क्योंकि जिस समय अष्टरावक्र गर्भ में थे तो उनके पिताजी ने उनको शाप दे दिया था ,कि तुम टेढ़े मेढ़े होकर चला करोगे।
उल्लेखनीय है, कि अष्टरावक्र के पिताजी शास्त्र और वेदों और कर्मकांडों में बहुत ज्यादा विश्वास करते थे ,और उनके हिसाब से अपने आप को बहुत ज्यादा विद्वान मानते थे, और उसी के अनुसार कर्मकांडी भक्ति करते थे।
अष्टावक्र ने जन्म से पूर्व एक दिन गर्भ से ही उनको बोला कि पिता जी आप इस कर्मकांडी भक्ति को छोड़कर परमपिता की सच्ची भक्ति करो । ज्ञानी प्राय: अहंकारी होते हैं उन्होंने उसको बोला तू अभी पैदा भी नहीं हुआ है और मुझे ज्ञान सिखाता है इसलिए मैं तुझे श्राप देता कि तू टेढ़ा मेढा होकर चला करेगा।
अष्टावक्र राजा जनक के दरबार के बाहर पहुंचे तो वहां सैनिकों ने उनको रोक लिया और पूछा कि कहां जा रहे हो ? अष्टरावक्र बोला कि मैं राजा के सपने का उत्तर देने के लिए जा रहा हूं । सैनिक बोले नहीं तुम वहाँ नही जा सकते । अष्टरावक्र बोले कि देखो सैनिक बोर्ड पर लिखा है कि कोई भी चाहे तो राजा के स्वपन से संबन्धित प्रश्नों का उत्तर दे सकता है ।
सैनिकों ने अष्टावक्र को राजदरबार में जाने दिया । अष्टरावक्र ने अंदर जाकर बोला कि मैं राजा जनक के सपने से संबन्धित प्रश्नों का उत्तर बताने के लिए आया हूँ । राजा जनक ने अपने मंत्रियों को बोला कि ठीक है इसको इसके आसन पर बैठाया बैठा दिया जाए ।
अष्टावक्र उस आसान पर जाम कर बैठ गए जिस पर उत्तर देने पर फांसी की सजा थी । राजा के दरबार में सभी मंत्री और विद्वान लोग अष्टरावक्र को देखकर हँसने लगे । कुछ पल रूककर अष्टरावक्र भी उनके साथ बहुत जोर से हँसने लगे ।
राजा ने बोला कि यह सभी विद्वान और मंत्री लोग आप पर हँसे यह तो समझ आता है कि आप टेढ़े-मेढ़े होकर चलते हो लेकिन आपकी हँसी का क्या तात्पर्य है । तब अष्टरावक्र बोले कि यह सब जो आप के दरबार में बैठे हुए विद्वान और मंत्री हैं सभी अच्छे चर्मकार हैं क्योंकि इन सभी को चमड़े की अच्छी परख है।
इनको मेरे ज्ञान की नहीं बल्कि मेरे टेढ़े-मेढ़े शरीर की परख है । जनक समझ गए कि यह लड़का कोई साधारण लड़का नहीं है यह कोई विद्वान या बहुत बड़ा संत है । राजा जनक ने अपने मंत्री को बोला कि जाओ इससे सपने का अर्थ पूछो ।
जैसे ही मंत्री अष्टावक्र से सपने का अर्थ पूछने लगा तो तुरंत अष्टरावक्र बोले कि यह कोई अदालत नहीं है कि प्रश्न किसी और का हो और प्रश्न कोई और करें तथा उत्तर कोई और दे । क्या आप का राजा गूंगा है या लंगड़ा है जो यहाँ आकार स्वयं प्रश्न नहीं कर सकता।
मंत्री ने राजा को जाकर अष्टरावक्र के वचन सुनाये । राजा जनक सिंहासन से उतरकर शास्त्रों के अनुसार शिष्टाचार से इस लड़के के पास गए और अष्टरावक्र के आसान के नीचे जाकर खड़े हो गए और बोले कि मैं अपने सपने का अर्थ जानना चाहता हूं ।
राजा जनक के सपने का वार्तान्त सुनने के बाद अष्टरावक्र बोले न तो सपना सच्चा है न हीं यह जीवन सच्चा है । सपना थोड़े समय के लिए सच महसूस हो रहा था । यह जीवन एक लंबे समय के लिए सच महसूस हो रहा है । यह दोनों ही झूठे हैं राजा जनक प्रश्न से संतुष्ट हो गए और उनको बोला कि ठीक है जब आप बोलें दोनों ही झूठे हैं तो सत्य है सत्य से अवगत कराइए ।
अष्टरावक्र बोला इसके लिए आपको जंगल में एकांत में चलना होगा । जंगल में जाकर अष्टरावक्र ने राजा जनक से कहा कि मैं आपको दीक्षा दे देता हूँ आप दक्षिणा में मुझे तन मन धन अर्पित कीजीए । राजा ने ऐसा ही किया और राजा ने बोला कि ठीक है मैं अपना तन मन धन सब कुछ आपको अर्पित करता हूं कृपया सभी ज्ञान कराने की कृपा करें।
राजा जनक बोले कि गुरुदेव मैंने सुना है कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल इतना ही समय पर्याप्त है जितनी देर में कोई घुड़सवार घोड़े पर बैठने में समय लगाता है । अष्टरावक्र ने अपने ध्यान के जरिए राजा जनक के ध्यान को आकर्षित किया अपने ध्यान द्वारा उनके ध्यान को खींचकर उनके ध्यान को समाधिस्थ कर दिया और राजा जनक की समाधि लग गई ।
समाधि इतनी लंबी थी कि उनको दो-तीन दिन तक होश नहीं आया । इसी बीच राजा के सैनिक और मंत्री कानून को खोजते खोजते जंगल में आए । उनको उठाया गया और बोले कि हे महाराज पूरे राज्य में हलचल है कि राजा पता नहीं कहां चले गए।
राजा जनक ने अष्टावक्र के पैर छुए और उनको बोला कि मैं अभी आपके साथ ही चलना चाहूंगा । अष्टावक्र बोले नहीं यह जो आपने मुझे तन मन धन सब कुछ दिया था मैं आपको वापस करता हूं । आप इसमें ध्यान में रखकर प्रभु ध्यान रखते हुए राजपाठ चलाओ । इसी आदेश के अनुसार राजा जनक ने अपना जीवन प्रभु भक्ति करते हुए व्यतीत किया । राजा जनक ही एक महान योगी और विदेह कहलाए ।
thanks for a lovly feedback