सुनी री मैंने निरबल के बल राम।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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    भगवान् के मार्ग पर चल रहे हैं तो अकेले चलें। वे हमेशा साथ हैं। जिसका कोई नहीं होता है, उसके भगवान् होते हैं। जहाँ दूसरे की सहायता मिलती रहती है वहाँ भगवान् की सहायता को अपेक्षा नहीं होती है। परन्तु जिसके कोई नहीं होता है, उसके भगवान् होते हैं।

सुनी री मैंने निरबल के बल राम।

जब लगि गज बल अपनी बरत्यो, नेक सर्यो नहिं काम॥

निरबल है बल राम पुकार यो आये आधे नाम॥

  गजराज-मत्त गजराज, युथपति गजराज हजारों हाथी और हथिनियाँ उसके दल में, मतवाला, सरोवर में आकर नहाने लगा। ग्राह ने पैर पकड़ा और अन्दर खींचने लगा। गजराज ने सोचा यह क्या है ? मेरे दल के सामने इस ग्राह का कौन-सा बल ? अभी झटका देकर बाहर निकाल दूँगा। बाहर खींचा, परन्तु खींच न सका। 

  हाथियों से कहा–‘लगाओ जोर।’ हाथियों ने पूँछ और सँड़ का गठबन्धन करके, जैसे इंजन में गाड़ी के डिब्बे लग जाते हैं, इसी प्रकार सूँड़ से पूँछ और पूँछ से सूँड़ पकड़कर हजारों हाथियों की कतार लगायी। सब लगे बाहर खींचने, परन्तु भगवान् की लीला ? वे सब नहीं खींच पाये बल्कि अन्दर खिंचने लगे। 

          तब सबने बद्धिमानी से कहा–या संसार के स्वरूप ‘स्वार्थ’ को प्रकट किया कि ‘इसे तो मरना है, सब साथ क्यों मरें ?’ यह मनुष्य की बुद्धिमानी या मनुष्य का स्वार्थ। भगवान् जाने क्या बात है। सबने छोड़ दिया। 

 जब लगि गज बल अपनी बरत्यो।

 जब तक अपने साथियों का बल देखा तो प्रयास किया और जब देखा हाथियों ने छोड़ दिया, हथिनियों ने छोड़ दिया, कोई साथी नहीं, कोई अवलम्ब नहीं–अब तो डूबना ही है, तब -

निरबल है बल राम पुकारयो।

  कहा–‘हे नारायण !’ नारायण शब्द पूरा नहीं निकला। आये आधे नाम'। यह आता है श्रीमद्भागवत में कि भगवान् गरुड़ पर आते हुए दीखे। गजराज ने उन्हें अर्पित करने के लिये सूँड़ में कमल उठाया। वे वहीं आविर्भूत हो गये, गरुड़ से नहीं उतरे। 

  अर्थात् जिस गति से गरुड़ आ रहा था, वह गति भी भगवान् को रुचिकर नहीं। देर कर रहा है। अपने-आप भगवान् प्रकट हो गये, आविर्भूत हो गये। कब ? जब एक भगवान् को पुकारा और दूसरे सब की आशा छोड़ दिया।

गीता में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं कि -

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

  जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। इसी प्रकार द्रौपदी का दृष्टान्त है कि -

द्रुपदसुता निरबल भइ ता दिन, तजि आये निज धाम ॥

दुष्ट दु:शासन जब राजरानी द्रौपदी के केशों को पकड़े हुए राजदरबार में ले आया। पाण्डवों ने सिर नीचा कर लिया और चुप होकर बैठ गये। भीष्म की मति मारी गयी थी। उन्होंने कह दिया–‘बेटी ! मुझे पता नहीं कि तुम हारी गयी या नहीं। युधिष्ठिर से पूछो।’

  धृतराष्ट्र अन्धा था, बड़ी धर्म की बातें कहता था। चुप हो गया। बेटों की बुरी बातें सुनता रहा। दुर्योधन का एक भाई था, केवल उसने कहा अन्याय हो रहा है। कर्ण ने उसका कान पकड़कर बैठा दिया। कोई बोलने वाला नहीं। 

 अन्दर एक सिपाही को द्रौपदी को लाने के लिये भेजा गया। गान्धारी ने कहा–‘खबरदार ! हाथ लगाओगे तो....।’ वह लौट आया। 

          दुर्योधन ने कहा–‘दु:शासन ! तुम जाओ। उस वेश्या को नंगी करके ले आओ। वह पाँच पतिवाली है।’   पाण्डवों के वदन में आग लग गयी, परन्तु बन्धन में थे इसलिये बोले नहीं। उस समय द्रौपदी एकवस्त्रा थी, रजस्वला थी, उसके केश खुले थे। दु:शासन ने माँ की बात नहीं सुनी और उसके केश पकड़कर खींच लाया। 

  जरा सोचिये, क्या दुर्दशा उस समय द्रौपदी की हुई होगी ? जरा उसके मन पर जाइये। द्रौपदी को मन:स्थिति का ध्यान कीजिये। वह राजरानी ‘असर्यपश्या’ जिसको कोई देख नहीं सकता था, जो पैदल भी चलती नहीं थी, उस एकवस्त्रा द्रौपदी को पकड़कर दस हजार हाथियों के बलवाला दुष्ट दुःशासन सभा में ले आया है और दुर्योधन ने कहा है–‘इसे नंगी कर दो, मेरी जाँघ पर बैठा दो।’ क्या दशा ? कोई बोलने वाला नहीं है। द्रौपदी ने चारों ओर देखा। कोई नहीं बोला। वह हार गयी। तब बोली–

गोविन्द द्वारकावासिन् कृष्ण गोपीजनप्रिय।

कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव॥

   ‘हे नारायण! हे श्रीकृष्ण! हे श्यामसुन्दर ! श्रीद्वारिकावासिन ! हे गोपीजन प्रिय ! प्रभो ! मैं कौरवों के समुद्र में डूब गयी। मुझे तुम उबारो। तुम्हारे सिवाय कोई उबारनेवाला नहीं है।’ एकवस्त्रा द्रौपदी निराश होकर इस प्रकार से भगवान् को पुकार उठी। भगवान् आ गये। किस रूप में आये ? बिलकुल नये रूप में। भगवान् का कहीं ऐसा अवतार नहीं हुआ। भगवान् रजस्वला द्रौपदी की साड़ी बन गये।

दुःशासन की भुजा थकित भइ बसन रूप भए स्याम ॥

सुनी री मैंने निरबल के बल राम।

  दस हजार हाथियों के बलवाला दु:शासन साड़ी खींचने लगा। साड़ी का तो कुछ पता ही नहीं कि कितनी लम्बी है। राजदरबार में साड़ी का ढेर लग गया। दु:शासन पसीने-पसीने हो गया। उसकी भुजाएँ थक गयीं। 

दस हजार गज-बल घट्यो घट्यो न दस गज चीर।

दस हाथ कपड़ा अनन्त हो गया। उसमें अनन्त आ विराजे। दु:शासन हार गया। उसका दम फूलने लगा और द्रौपदी की साड़ी छोड़ श्वास लेने, दम भरने बैठ गया। क्यों ? वह कपड़ा अनन्त हो गया। उसमें अनन्त आ विराजे न ! यह तब हुआ जब मात्र एक भगवान् का सहारा रहा। इसलिये साधक एक को देखे। देर नहीं होगी।

हरि  माया  कृत  दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।

भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥

  श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री राम जी का भजन करना चाहिए॥

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