काहू न कोऊ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सब भ्राता ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  कर्म का फल जरूर मिलता है इसलिए हमें सत्कर्म में ही लगना चाहिए। कर्म का चुनाव विवेक बुद्धि से करना चाहिए। ईश्वर तो हमें पिता की तरह माफ कर देते हैं पर कर्म कभी माफ नहीं करते जन्म-जन्मांतर तक पीछा कर खोज ही लेते हैं जैसे लाखों गायों में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ लेता है।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्टता"।

 अनासक्त जो समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है। कर्मयोग को सन्यास योग से बढ़कर कहा गया है। बिना कर्म के जीवन रह ही नहीं सकता। कर्म से ही मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है। कर्म सिद्धि ,विशिष्टता की भावना योग कहलाती है सफलता असफलता की आसक्ति को त्याग कर संपूर्ण विदेह भाव से अनासक्त होकर हमको कर्म करना चाहिए।

 ना कर्म किए हम शरीर का पालन पोषण भी नहीं कर सकते हैं। ईश्वर ने हमारी कर्मेंद्रियां ऐसी बनाई हैं जो परिश्रमार्थ सृजित की गई हैं। कफ,मल-मूत्र त्याग क्रिया स्वाभाविक रूप से करनी पड़ती है अन्यथा क्या होगा सब को पता है। फल आशात्याग सत्कर्म सर्वोपरि है।

  ये मेरा स्वयं का अनुभव है यदि हम कर्तव्य की दृष्टि से करते हैं तो अपना सर्वश्रेष्ठ कर पाते हैं। आज समाज के विघटन का कारण यही है चाहे मां-बाप,नाते -रिश्ते ,नौकरी हर क्षेत्र में फलेच्छा भाव से जोड़-भाग करते हैं यही दुख क्लेश ,द्वेष,अशान्ति का कारक होते हैं। बुजुर्गों से सुना जाता है - नेकी कर दरिया में डाल।

 कोई भी फलेच्छा से किया काम प्रतिपूर्ति चाहता है न होने पर मानसिक उत्तेजना,अधीरता,निराशा-हताशा अशान्ति अवसाद-विषाद का कारण फलप्रत्याशा होती है। मैने धीरे-धीरे छोटे रूप से करना सीखा आज बहुत अपने को हल्का महसूस करती हूं पहले कुछ नहीं तो प्रशंसात्मक शब्दचाह होती न मिलने पर कुछ कचोटता।अब तो बस ये कि मैने अपना कर्तव्य निर्वहन किया बाकी ईश्वराज्ञा। 

 आप कर्तव्यकर्म में अपेक्षा (फल की इच्छा) मत रखिये मूल दुख-सुख का कारण है आज ये मेरा खुद का अनुभूत है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

माकर्मफलहेतुर्भूमा तेसंगोऽस्त्वकर्मणि॥

 भाई मेरे तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच की फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं।

 श्री कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं।तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं इसलिए तुम कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म ना करने में भी आसक्ति न हो। कोई व्यक्ति अगर केवल कर्म के फल का ही चिन्तन करता रहे तो, उसे बार बार में कहा तक पहुंचा ये जानने में रूचि रहती है। आगे ? 

 वह दुसरे व्यक्ति के साथ अपनी तुलना करता रहेगा. अगर दुसरे व्यक्ति को इतने प्रयास से सफलता मिल गई हो, तो वह तुरंत ही ऐसा सोचने लगेगा की, मुझे अभी तक क्यों कुछ नही मिला ? ऐसी सोच ही उसे तुरत निराश कर देती है. वह बस एक और बैठ जाता है. मतलब की कर्म करना ही छोड़ देता है. क्योकि उसे ऐसा लगने लगता है की मुझे सफलता मिलने वाली ही नही.।

इनके बजाय अगर केवल कर्म ही करता रहे तो वह एक दिन अवश्य सफल होगा । he will certainly success one day. वास्तव मे ये श्लोक बहुत गहन भी है उनमे छिपा है एक गहन रहस्य ।

 कर्म का सिद्धांत इस तरह का है । अगर आप कर्म करेगे और उनके प्रति फल की इच्छा बहुत प्रभावी रूप से रखेगे, तो उस कर्म कर्माशय के रुप मे आपके अचेतन मन में स्टोर हो जायेगे और फिर से वही कर्म क्रियमाण हो कर आपके सामने अलग अलग स्थितियां ले कर सामने आयेगे।

 अगर ऐसा चलता रहा तो कभी भी कर्म का ये चक्र छुट नही पायेगा. इसलिए मुक्ति की जो सम्भावना है वह खत्म हो जाएगी. क्योकि कोई भी इन्सान कर्म किये बिना तो रह नही पायेगा. कर्म करेगा और उनके संस्कार जमा होगे उसे भोगने के लिए फिर से जन्म होगा. इस तरह से चलता रहेगा। ये श्लोक मुझे बहुत ही प्रेरणा देता है। मनुष्य जीवन में कर्म सर्वोपरि बताया गया है। तुलसीकृत रामचरितमानस में भी कहा गया है

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।

जो जस करिहिं सो तस फल चाखा ॥

गांव में छोटी सी कहावत कही जाती है -

 तब तक जीना तब तक सीना"॥

 शरीर को कर्म के लिए बाध्य किया जाता है।इसी से प्रकृति ने पेट लगा दिया और भूख सृजित की। कुछ कर्म इच्छा से चलना-फिरना ,हंसना -रोना तो कुछ स्वाभाविक होते हैं सांस लेना छोड़ना ,दिल का धड़कना,अंग संचालन आदि।

 मनुष्य स्वभाव ऐसा है कि कर्म करने से पहले फल की चिंता करने लगता है मन के अनुकूल फल ना मिले तो दुखी और फल मिल जाए तो सुखी हो जाता है।

 फल की चिंता में हानि-लाभ, सुख-दुख जुड़ने से कर्म कुशलता से किया ही नहीं जा सकता। हमारा ध्यान कर्म के फल में अधिक और कर्म को करने में बहुत कम हो जाता है। बार-बार ध्यान फलचाह में अटक-भटक जाता है। कर्म में स्वार्थ सिद्धि से उठकर कार्य करना चाहिए। जीवन में कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, हर कार्य को अपने पूरे मनोयोग लगन से करना चाहिए। 

  जब मेहनत के प्रति श्रद्धा, लगन व एकाग्रता जागृत हो जाती है तो सफलता अपने आप कदम चूमती है। दुनिया की सारी कायनात हमारे कर्म को सफलता दिलाने के लिए एकजुट हो जाती है। किसी काम को हम अपना सौ परसेंट देते हैं तो ईश्वर दोगुना साथ देते हैं। दिमाग एकाग्र होता है , सतर्कता चैतन्यता बढ़ जाती है इससे कार्यकुशलता बढ़ती जाती है।

  अगर हम उसके फल को सोचते हैं तो हमारे मनोमस्तिष्क में लाभ-हानि का गणित , सुख-दुख के विचार असमंजस में लगे रहते हैं। काम को करें कि ना करें , सफलता मिलेगी या नहीं। सफलता मिलेगी तो कितनी मिलेगी हर काम को करने से पहले यही उहापोह की स्थिति रहती है काम में एकाग्रता आ ही नहीं पाती। इस श्लोक ने मुझे बहुत अधिक प्रेरित किया कोई भी काम करता दो-तीन दिन तक उसी के विचार मथते रहते क्या परिणाम होगा ?

  करना चाहिए या ना करना चाहिए ,फिर मैंने इस श्लोक का गहराई से मनन किया कि बस सत्कर्म दुष्कर्म का विवेक बुद्धि से आंकलन कर हमें उस काम को करना है ,फल के विषय में नहीं सोचना जो होगा बस अच्छा होगा नहीं तो सीख देकर जायेगा।

फल आशा त्याग प्यारे शुभ काम करिये"।

अपने को फल का कारण ना समझ अनासक्त भाव से बिना फल की चिंता किए अपने कर्म को करना चाहिए।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्मकरोति यः।

स सन्यासी च योगी च न निरर्ग्निनः चाक्रियः"॥

गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं। "जो मनुष्य बिना कर्म फल की इच्छा के कर्तव्य मानकर कर्म करता है वह कर्मयोगी है। केवल अग्नि या क्रियाओं का त्याग करने वाला ही योगी नहीं है गृहस्थ भी ससत्कर्म करता हुआ योगी है। ऐसी मानसिकता से हम कार्य कुशल भी होते जाते हैं। व्याकरण में क्रिया से निष्पादित फल के आश्रय को कर्म कहते हैं।

 कर्म करना हमारे अपने ( इंसान) के हाथ में होता है फलप्राप्ति अन्यान्य कर्मों पर आश्रित होती है। हम यदि सत्कर्म करते हैं तो धीर-धीरे अभ्यास से कार्यकुशलता बढ़ती जाती है। कहा भी गया है -

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते सिल पर होत निशान "॥

साथ ही हमारी आदत में शामिल होता जाता है। फल की आशा को त्याग कर्मरत होना चाहिए।इससे हमें ही लाभ होता है। सत्कर्म करना इंसान के अपने हाथ में है जो अन्य योनियों में नहीं है। कर्म फल ईश्वरीय विधान है तो फिर चिन्ता क्यों जो हमारे लिए हितकर होगा वही प्रभु देंगे।जो अपने हाथ में नहीं उसे क्या सोचना।

  जो कर्म करने से पहले फल की सोचते रहते हैं उन्हें तनाव अधिक होता है जब हम कर्तव्य को कर्म समझकर करते हैं तो अपने आप अच्छा फल मिलता है जैसे हम किसी गाय को पालते हैं कितना दूध देगी कितना लाभ होगा तर्क-वितर्क चिन्तन परेशान ही करता है। कर्तव्य हेतु की गई क्रिया का कर्म एक अनूठी खुशी परमानन्द देता है ये भुक्तभोगी ही अभ्यास से समझ सकता है। 

 गाय को एक प्राणी समझकर उसकी सेवा करते हैं दूध तो मिलेगा ही, नहीं तो गौसेवा सत्कर्म। तनावमुक्त रहेंगे। भगवान श्री कृष्ण ने गीतोपनिषद में कर्म को योग की संज्ञा दी है निष्काम कर्म ही कर्म योग कहलाता है कर्म को यज्ञ स्वरूप कहा गया है तीसरे अध्याय का तो नाम ही कर्म योग दिया गया है। जो उपदेश अर्जुन को दिये गए ये आज हमारे जीवन में भी उपयोगी सिद्ध होते हैं।

न हि कश्चितक्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।

कार्यते हृयवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः"॥

 निस्संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता क्योंकि सारा जीव व मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा बांधा गया है , कर्म करने के लिए प्रकृति द्वारा बाध्य किया जाता है।

फ़िकर सभी को खा गई ।

फ़िकर जगत की पीर ॥

जो फ़िकर को खा गया।

उस का नाम फ़क़ीर॥

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