श्रीकृष्ण के शस्त्र उठाने पर भी भीष्म क्यों बच गये ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

bhisma_and_srikrishna
bhshma and srikrishna


 महाभारत युद्ध का नवां दिन बीत चुका था। दिवस के युद्ध विराम का शंख बज चुका था ।

संपूर्ण कौरव तथा पांडव सेना में महाबली पितामह भीष्म के शौर्य की ही चर्चा थी, जिन्होंने अपनी धनुर्विद्या के प्रचंड प्रदर्शन से साक्षात नारायण को उनकी प्रतिज्ञा तोड़ कर शस्त्र उठाने पर विवश कर दिया था । 

पांडव पक्ष में चिंता की लहर थी कि अगर पितामह भीष्म को रोका नही गया तो युद्ध तो पांडव हार ही जायेंगे, लेकिन यक्ष प्रश्न यह था कि उन्हे रोका कैसे जायेगा ?

ऐसे में जब कृष्ण ने मुस्कुराते हुए अर्जुन से कौरवों के शिविर की ओर चलने को कहा तो सभी को आश्चर्य तो हुआ परंतु कृष्ण की बात काटने का साहस भला किसमें होता ?

पितामह के शिविर में तो कौरवों के महारथियों की भीड़ थी जो उन्हे उनके शौर्य पर बधाई देते नही थक रहे थे। ऐसे में जब उन्होंने कृष्ण और अर्जुन के पितामह से मिलने आने का समाचार सुना तो दुर्योधन आदि महारथी उन दोनो पर व्यंग भरी मुस्कान उछालते वहाँ से चले गए । 

"प्रणाम पितामह !!", कृष्ण और अर्जुन ने वीरासन में आकर उन्हे प्रणाम किया । 

" कल्याण मस्तु !! कहिये द्वारिकाधीश ! यहाँ कैसे आना हुआ ?"

"आपको बधाई देने आया हूँ पितामह । आपने मेरे शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को तोड़ने की जो प्रतिज्ञा की थी, उसके पूरा होने की बधाई तो आपको देनी ही थी ।"

"हाँ इस बात की प्रसन्नता तो मुझे भी है केशव, कि साक्षात नारायण को उनकी प्रतिज्ञा तोड़ने पर विवश कर दिया मैंने...! कदाचित गुरुदेव भगवान परशुराम से युद्ध में विज़य श्री के पश्चात यह सबसे बड़ी उपलब्धि है मेरे लिए ।"

"हम्म....!!! पितामह किंतु क्या आपने एक क्षण के लिए भी यह विचार किया मेरे शस्त्र उठाने के बाद भी आप जीवित क्यों हैं ? क्या आपको यह घटना इतनी साधारण लगती है जिसमें कोई भी गूढ़ रहस्य नही छुपा है ।"

"केशव मुझे तो इसका बस यही कारण दिखता है कि कदाचित आप यह कार्य किसी और से करवाना चाहते हैं, और भला क्या कारण हो सकता है ?", भीष्म थोड़ा विचार करके बोले ।

"क्या आपने एक क्षण के लिए भी सोचा पितामह, कि जब क्षण के हजारवें हिस्से में ही सुदर्शन चक्र मेरी तर्जनी पर सज्ज हो जाता है तो फिर आपके लिए मुझे किसी पहिये को उठाने की आवश्यकता क्यों थी ?
और यदि मुझे आपका वध करना ही नहीं था तो मैंने अपना शस्त्र न उठाने का प्रण तोड़ा ही क्यों ?", अब केशव के प्रश्नों ने भीष्म को बेचैन कर दिया था । 

"मैं इन प्रश्नों के उत्तर की अपेक्षा आपसे ही रखता हूँ केशव...!", पितामह ने मुरलीधर के समक्ष हाथ जोड़ते हुए कहा । 

कुछ क्षणों के मौन के बाद कृष्ण ने अर्जुन को कुछ संकेत किया और पार्थ पितामह को प्रणाम करके शिविर के बाहर चले गए । 

"पितामह मैंने अपना प्रण आपको यह विदित कराने के लिए तोड़ा है, कि धर्म के पथ पर प्रण और प्रतिज्ञाओं का कोई मूल्य नही होता । मैंने आपको इस बात से अवगत कराने के लिए अपना प्रण तोड़ा है कि कृष्ण के प्रण, भीष्म के प्रण की भाँति जड़ एवं आत्ममुग्ध नही हैं। कृष्ण के लिए उसकी प्रतिज्ञाएँ नही बल्कि धर्म की स्थापना महत्वपूर्ण है । क्षमा करें पितामह परंतु आपने मात्र अपनी प्रतिज्ञा तथा अपनी प्रसिद्धि को सुरक्षित रखने के लिए जीवन भर अधर्म का साथ दिया है और इस धर्म युद्ध में भी आप अधर्म की ओर से ही लड़ रहे हैं, जबकि इस हो रहे विध्वंस के मूल कारणों में से एक आप भी हैं ।
वो आप ही हैं जिनकी राजभक्ति के कारण दुर्योधन आदि बिना किसी भय के अधर्म पर अधर्म करते रहे क्योंकि उनको आपका संरक्षण प्राप्त था । इतिहास आपको एक ऐसे योद्धा के रूप में स्मरण करेगा जिसने अपनी प्रतिज्ञाओं को तथा अपनी प्रसिद्धि को धर्म के ऊपर रखा ।"

"तो क्या तुम मुझे अधर्मी कह रहे हो केशव ?", भीष्म अवाक थे...। 

"आप ही बताएं पितामह कि अधर्मियों को संरक्षण एवं अभय देने वाले को क्या कहते हैं ?"

जिस बात को जानते हुए भी भीष्म इतने वर्षों में मानने से हिचक रहे थे, उसे एक क्षण में ही केशव ने उन्हे समझा दिया । वे अचानक ही थके से लगने लगे और फिर सर झुका कर आसंदिका पर बैठ गए । 

इस बार पितामह का मौन अधिक लंबा और अत्याधिक मारक था । 

"फिर अब मेरे लिए क्या आज्ञा है केशव ?, बहुत समय पश्चात भीष्म के मुख से बोल फूटे । 

"अब विश्राम का समय आ चुका है पितामह और आपके श्राप की अवधि भी पूर्ण होने को है ।" आपसे अनुरोध है कि धर्म की राह को और कठिन न बनाइये । "अम्बा के प्रतिशोध को अब पूर्ण होने दीजिये पितामह । इसी में धर्म की जय है।"  - "जो आज्ञा मुरलीधर !!"

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top