श्रीमद्भागवतकथा--एकादश स्कन्ध - सत्सङ्ग की महिमा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—

अथैतत्परमं गुह्यं श्रृण्वतो यदुनन्दन।

सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत्सखा।।

  प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्य की बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो,साथ ही सुनने के भी इच्छुक हो।

न रोधयति मां योगो न साङ्ख्यं धर्म एव च।

न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा।।

  प्रिय उद्धव ! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्सङ्ग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्सङ्ग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय,तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ—व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्सङ्ग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं।

सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः।

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः।।

   निष्पाप उद्धवजी ! यह एक युगकी नहीं, सभी युगोंकी एक-सी बात है। सत्सङ्ग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस,पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्योंमें वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृति के बहुत-से जीवों ने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्सङ्ग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं।

ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः।

अव्रतातप्ततपसः मत्सङ्गान्मामुपागताः।।

  उन लोगोंने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी,इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी, बस, केवल सत्सङ्ग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गये। गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रजके हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग—ये तो साधन-साध्य के सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भावके द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये।

यं न योगेन साङ्ख्येन दानव्रततपोऽध्वरैः।

व्याख्यास्वाध्यायसन्न्यासैः प्राप्नुयाद्यत्नवानपि।।

 बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु सत्सङ्ग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध (१.२-८) में कहा गया है—

धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विष्वक्सेनकथासु य:।

नोत्पादयेद्यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥

“अपने पद के अनुसार व्यक्ति द्वारा किये गये वृत्तिपरक कार्य यदि भगवान् के सन्देश के प्रति आकर्षण उत्पन्न नहीं कर पात तो ये व्यर्थ के श्रम होते।”

रामेण सार्धं मथुरां प्रणीते

श्वाफल्किना मय्यनुरक्तचित्ताः।

विगाढभावेन न मे वियोग

तीव्राधयोऽन्यं ददृशुः सुखाय।।

 जिस समय अक्रूरजी भैया बलरामजी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का हृदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रँगा हुआ था, मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी, तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ। 

तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता

मयैव वृन्दावनगोचरेण।

क्षणार्धवत्ताः पुनरङ्ग तासां

हीना मया कल्पसमा बभूवुः।।

 जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ—वे रास की रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं; परन्तु मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्प के समान हो गयीं। 

ता नाविदन् मय्यनुषङ्गबद्ध-

धिय: स्वमात्मानमदस्तथेदम् ।

यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये

नद्य: प्रविष्टा इव नामरूपे ॥

  जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधिमें स्थित होकर तथा गङ्गा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेमके द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलानेवाले पति-पुत्रादिकी भी सुध-बुध नहीं रह गयी थी,उन गोपियों में बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान्‌ न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभाव से मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओं ने केवल सङ्ग के प्रभाव से ही मुझ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया।

तस्मात्त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च।।

  इसलिये उद्धव ! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए-

मामेकमेव शरणमात्मानं सर्वदेहिनाम्।

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः।।

  समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो,क्योंकि मेरी शरणमें आ जानेसे तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे।

उद्धवजी ने कहा - 

 मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कुछ छोडक़र आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये । भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहा -

स एष जीवो विवरप्रसूतिः

प्राणेन घोषेण गुहां प्रविष्टः।

मनोमयं सूक्ष्ममुपेत्य रूपं

मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः।।

 जिस परमात्मा का परोक्षरूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति—जीवन-दान करने वाले हैं, वे ही पहले अनाहत नाद स्वरूप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधार चक्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरक चक्र (नाभिस्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं। फिर क्रमश: मुख में आकर ह्रस्व-दीर्घादि मात्रा, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल—वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं, अग्नि आकाश में ऊष्मा अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्त रूप में स्थित है। जब बलपूर्वक काष्ठमन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्म स्वरूप से क्रमश: परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ, इसी प्रकार बोलना, हाथों से काम करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प- विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहंकार के द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्व के रूप में सबका ताना- बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार कहाँ तक कहूँ—समस्त कर्ता, कारण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

अयं हि जीवस्त्रिवृदब्जयोनि-

रव्यक्त एको वयसा स आद्यः।

विश्लिष्टशक्तिर्बहुधेव भाति

बीजानि योनिं प्रतिपद्य यद्वत्।।

  यह सबको जीवित करने वाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमल का कारण है। यह आदि-पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है। जैसे तागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत है। जैसे सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है; किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मस्वरूप ही है - परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है।

य एष संसारतरुः पुराणः

कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते।।

 यह संसार वृक्ष अनादि और प्रवाहरूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है—कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं—मोक्ष और भोग।

द्वे अस्य बीजे शतमूलस्त्रिनालः

पञ्चस्कन्धः पञ्चरसप्रसूतिः।

दशैकशाखो द्विसुपर्णनीड-

स्त्रिवल्कलो द्विफलोऽर्कं प्रविष्टः।।

  संसार वृक्ष के दो बीज हैं—पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर—दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफ रूप तीन तरह की छाल है। इसमें दो तरह के फल लगते हैं—सुख और दु:ख,यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है,इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जाने वाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्र में नहीं पड़ते।

   इस वृक्ष के दो बीज—पापमय तथा पुण्य कर्म हैं और सैकड़ों जड़ें जीवों की असंख्य भौतिक इच्छाएँ हैं, जो उन्हें भवसागर में जकड़े रखती हैं। तीन निचले तने तीन गुणों को बताते हैं और पाँच ऊपरी तने पाँच स्थूल तत्त्वों को बताते हैं। यह वृक्ष पाँच रस उत्पन्न करता है—ये हैं ध्वनि, रूप, स्पर्श, स्वाद तथा सुगंध। इसमें ग्यारह शाखाएँ हैं—पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन। दो पक्षियों ने, अर्थात् आत्मा तथा परमात्मा ने, इस वृक्ष में अपना घोंसला बना रखा है। तीन प्रकार की छालें हैं वात, पित्त, तथा कफ, जो शरीर के अवयव हैं। इस वृक्ष के दो फल हैं, सुख तथा दुख।

  जो लोग सुन्दर स्त्रियों, धन तथा माया के विलासी पक्षों का भोग करने का प्रयास करते हैं, उन्हें दुख रूपी फल प्राप्त होता है। जिन लोगों ने भौतिक लक्ष्यों का परित्याग कर दिया है और आध्यात्मिक प्रकाश के मार्ग पर हैं, वे सुख रूपी फल भोगते हैं।

अदन्ति चैकं फलमस्य गृध्रा

ग्रामेचरा एकमरण्यवासाः।

हंसा य एकं बहुरूपमिज्यैर्मा-

यामयं वेद स वेद वेदम्।।

 जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयों में फँसे हुए हैं, वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं। वे इस वृक्ष का दु:ख रूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बन्धन में फँसे रहते हैं। जो अरण्यवासी परमहंस विषयों से विरक्त हैं, वे इस वृक्ष में राजहंस के समान हैं और वे इसका सुखरूप फल भोगते हैं। वास्तव में मैं एक ही हूँ, यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है, वह तो केवल मायामय है,जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है, वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है।

एवं गुरूपासनयैकभक्त्या

विद्याकुठारेण शितेन धीरः।

विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः

सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्।।

 अत: उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासना रूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीव भाव को काट डालो, फिर परमात्म स्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रों को भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूप में ही स्थित हो रहो।

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