"कहाँ जा रही है ,बहू ?"..स्कूटर की चाबी उठाती हुई पृथा से सास ने पूछा। "मम्मी की तरफ जा रही थी अम्माजी" "अभी परसों ...
"कहाँ जा रही है ,बहू ?"..स्कूटर की चाबी उठाती हुई पृथा से सास ने पूछा।
"मम्मी की तरफ जा रही थी अम्माजी"
"अभी परसों ही तो गई थी"
"हाँ पर आज पापा की तबियत ठीक नही है, उन्हें डॉ. को दिखाने ले जाना है"
"ऊहं!" "ये तो रोज का हो गया है" । "एक फोन आया और ये चल दी"। "बहाना चाहिए पीहर जाने का "सास ने जाते जाते पृथा को सुनाते हुए कहा.."हम तो पछता गए भई " "बिना भाई की बहन से शादी करके" "सोचा था ,चलो बिना भाई की बहन है ,तो क्या हुआ कोई तो इसे भी ब्याहेगा।"
"अरे !" "जब लड़की के बिना काम ही नही चल रहा,तो ब्याह ही क्यूं किया"..।
ये सुनकर पृथा के तन बदन में आग लग गई ,दरवाज़े से ही लौट आई ओर बोली ,"ये सब तो आप लोगों को पहले ही से पता था ना आम्मा जी ,कि मेरे भाई नही है" "और माफ करना" "इसमें एहसान की क्या बात हुई ,आपको भी तो पढ़ी लिखी कमाऊ बहु मिली है।"
"लो !" "अब तो ये अपनी नोकरी औऱ पैसों की भी धौंस दिखाने लगी।"
"अजी सुनते हैं ,देवू के पिताजी" सास बहू की खटपट सुनकर बाहर से आते हुए ससुर जी को देखकर सास बोली।
"पिताजी मेरा ये मतलब नहीं था ","अम्माजी ने बात ही ऐसी की, कि मेरेे भी मुँह से भी निकल गया " पृथा ने स्पष्ट किया।
ससुर जी ने कुछ नहीं कहा और अखबार पढ़ने लगे।
"लो!"" कुछ नहीं कहा " "लड़के को पैदा करो " "रात रात भर जागो " " टट्टी पेशाब करो" "पोतड़े धोओ" "पढ़ाओ लिखाओ" "शादी करो " "और बहुओं से ये सब सुनो "
"कोई लिहाज ही नही रहा छोटे बड़े का ",सास ने आखिरी अस्त्र फेंका ओर पल्लू से आंखे पोछने लगी बात बढ़ती देख देवाशीष बाहर आ गया," ये सब क्या हो रहा है अम्मा।"
"अपनी चहेती से ही पूछ ले।"
"तुम अंदर चलो" लगभग खीचते हुए वह पृथा को कमरे में ले गया
"ये सब क्या है! पृथा..अब ये रोज की बात हो गई है।"
"मैने क्या किया है देव बात अम्मा जी ने ही शुरू की है "
"क्या उन्हें नही पता था कि मेरे कोई भाई नही है?" "इसलिए मुझे तो अपने मम्मी पापा को संभालना ही पड़ेगा ,"पृथा ने रूआंसी होकर कहा..!
"वो सब ठीक है " "पर वो मेरी मां हैं" "बड़ी मुश्किल से पाला है उन्होंने मुझे" " माता पिता का कर्ज उनकी सेवा से ही उतारा जा सकता है " "सेवा न सही ,तुम उनसे जरा अदब से बात किया करो।"
"अच्छा !" "बाहर हुई सारी कन्वर्सेशन में तुम्हें मेरी बेअदबी कहाँ नजर आई..।
तुम्हें ये नौकरी वाली बात नहीं कहनी चाहिए थी..।
हो सकता है मेरे बात करने का तरीका गलत हो पर बात सही है देव और माफ करना..ये सब त्याग उन्होंने तुम्हारे लिए किया है मेरे लिए नहीं ..अगर उन्हें मेरा सम्मान ओर समर्पण चाहिए तो मुझे भी थोड़ी इज्जत देनी होगी..स्कूटर की चाबी ओर पर्स उठाते हुए वो बोली।
"अब कहाँ जा रही हो ",कमरे से बाहर जाती हुई पृथा से देवाशीष ने पूछा..जिन्होंने मेरे पोतड़े धोए हैं ,उनका कर्ज उतारने " पृथा ने व्यंग्य मिश्रित गर्व से ऊँची आवाज में कहा और स्कूटर स्टार्ट कर चल दी।
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