ब्रह्म में शक्ति नही होगी तो अपने सत्ता की रक्षा कैसे करेगा, स्वरूपानंद का भोग करना सर्वज्ञता आदि शक्ति स्वाभाविक है। ये बात शङ्कराचार्य...
ब्रह्म में शक्ति नही होगी तो अपने सत्ता की रक्षा कैसे करेगा, स्वरूपानंद का भोग करना सर्वज्ञता आदि शक्ति स्वाभाविक है। ये बात शङ्कराचार्य ने भी मानी है। शंकराचार्य ने प्रथम ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिखा है। नित्य शुद्धबुद्धमुक्त स्वभावं सर्वज्ञं सर्वशक्ति समन्वितं ब्रह्म। अर्थात:ब्रह्म में सारी शक्तियां है एवं सविशेष है । परन्तु उन्होंने अद्वैत सिद्धि के लिए अभेद वादिनि ऋचाओं को पकड़ा उन्होंने मुख्यार्थ को छोड़कर लक्ष्णावृती पर ध्यान दिया है। क्योंकि परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया । अर्थात् ब्रह्म मे ज्ञानं बल क्रिया तीनों शक्ति स्वाभाविक है प्राकृतिक है।(श्वेताश्वतरोपनिषद्)
ब्रह्म नित्य सर्वःशक्ति युक्त है इस बात की पुष्टि वेदव्यास ने भी कर दी वेदांत सूत्र में - सर्वोपेता च तद्दर्शनात् । वह ब्रह्म समस्त शक्तियोंसे सम्पन्न है, क्योंकि श्रुतियोंमें ऐसा ही देखा जाता है ।(वेदांतसूत्र)
भगवान शिव अनंत ब्रह्मांड मे सर्व व्यापक है फिर भी जीव को दिखाई नहीं देते इसका उत्तर ईशोपनिषद् में (मन्त्र १५) भी इस योगमाया(पराशक्ति) आवरण की पुष्टि हुई है, जिससे भक्त प्रार्थना करता है –
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
अर्थात्, हे भगवान ! आप समग्र ब्रह्माण्ड के पालक हैं और आपकी भक्ति सर्वोच्च धर्म है । अतः मेरी प्रार्थना है कि आप मेरा भी पालन करें । आपका दिव्यरूप योगमाया से आवृत है । ब्रह्मज्योति आपकी अन्तरंगा शक्ति का आवरण है । कृपया इस तेज को हटा ले क्योंकि यह आपके सच्चिदानन्द विग्रह के दर्शन में बाधक है।(ईशोपनिषद्)
शम्भोज्ञानक्रियाइच्छाबलकरणमन्: शान्ति तेज: शरीर स्वलोकागारदिव्य आसन्वरमहिषी भोग्यवर्गआदिरूपा सर्वैरेतैरूपेतास्वयमपिच परंब्रह्मणसतस्य शक्ति: सर्वा आश्वर्येक भूमिमूनिर्भिभिनुता वेद्तन्त्र्याभियुक्ते।
अर्थात् परब्रह्म भगवान शंकर की चित_शक्ति ही ज्ञान, क्रिया,इच्छा,बल,करण(साधन) ,मन ,शांति, तेज़, शरीर, शिवलोक(स्वलोक) गृह, दिव्यआसन , श्रेष्ठमहिषी तथा भोग्यवर्ग (समस्त भोग लौकिक एवं अलौकिक) रूप मे विख्यात है। स्वयं ज्ञानेच्छा आदि को से युक्त पुरुष रूप होती है। यह आश्चर्यो की एकमात्र जननी है, मूनिगण वेद, तंत्र तथा आचार्य इसकी सदैव स्तुति करते रहते है।(अप्पय दीक्षित)
शम्भु शक्त्या वीशिष्टठं प्रथयति परमं ब्रह्म वेदान्त राशि। अर्थात्, चित् शक्ति से समन्वित शिवरूप ब्रह्म ही उपनिषदो एवं ब्रह्मसूत्रों का प्रतिपाद है।(आनन्द लहरी )
फिर देखिए कहा -
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मादेतद्ब्रह्म नामरूपमन्नं च जायते॥"
अर्थ - वह सर्वज्ञ है। वह सब जगह पहुँचा हुआ है। उसका "तप" क्या है? "ज्ञान" ही उसका तप है।हमारा तप कैसे प्रकट होता है? "क्रिया" के रूप में। उसका "तप" कैसे प्रकट होता है? "ज्ञान" के रूप में। उसी के विकास से यह बृहत्, नाम रूपवाला जगत् और यह अन्न जिससे सब व्यवहार चल रहा है, उत्पन्न होता है।(मुण्डकोपनिषत्)
शंकराचार्य ने भी सगुण साकार सविषेश ब्रह्म को स्वीकार किया है -
मूर्तं चैवामूर्तम् द्वे एव ब्रह्मणो रूपे।
इत्युपनिषत् तयोर्वा द्वै भक्तौ भगवदुपदिष्टौ॥
ब्रह्म के दो स्वरूप है सगुण साविशेश साकार एवं निर्गुण निर्विशेश निराकार , ब्रह्म के दो स्वरूप के कारण दो तरह के भक्त भी होते है । अद्वैत भक्त जिसे ज्ञानी कहते है द्वैत भक्त जिसे भक्त कहते है।(शंकराचार्य)
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